एक बड़ी अनूठी कहानी है। सुना है, अशोक के जीवन में घटी है। कहना मुश्किल है कि कहां तक सच है। लेकिन बड़ी गहरी सचाई की खबर देती है। एक संध्या, वर्षा के दिन हैं, पाटलीपुत्र में, पटना में अशोक गंगा के किनारे खड़ा है। भयंकर बाढ़ आई है गंगा में। सीमाएं तोड़कर गंगा बह रही है। बड़ा विराट उसका रूप है; भयंकर तांडव करता उसका रूप है। न मालूम कितने गांव बहा ले गई। न मालूम कितने खेतों को विनष्ट कर दिया, कितने पशु—पक्षी बहते चले जा रहे हैं। अशोक खड़ा है अपने अमात्यों, अपने मंत्रियों के साथ। और उसने कहा कि क्या यह संभव. है, क्या कोई ऐसा उपाय है कि गंगा उलटी बह सके? ऐसा अचानक उसको खयाल उठ आया कि क्या कोई रास्ता है कि गंगा उलटी बह सके स्रोत की तरफ? अमात्यों ने कहा- असंभव! और अगर चेष्टा भी की जाए तो अति कठिन है। एक वेश्या भी अशोक के साथ गंगा के किनारे आ गई है। वह नगर की सब से बड़ी वेश्या है। उन दिनों में वेश्याएं भी बड़ी सम्मानित होती थीं। वह नगरवधू है। उस वेश्या का नाम था, बिंदुमति। वह हंसने लगी और उसने कहा किअगर आप आज्ञा दें, तो मैं इसे उलटा बहा सकती हूं। अशोक चौंका। उसने कहा कि क्या ढंग है? क्या मार्ग है इसको उलटा बहाने का? तेरे पास ऐसी कौन—सी कला है? तो उस वेश्या ने कहा, मेरी निजता का सत्य! बड़ी अनूठी कहानी है। उसने कहा, मेरी निजता का सत्य! मेरे जीवन का सत्य मेरी सामर्थ्य है। मैंने उसका कभी उपयोग नहीं किया। बड़ी ऊर्जा मेरे जीवन के सत्य की मेरे भीतर पड़ी है। अगर आप कहें, तो यह गंगा उलटी बहेगी, मेरे कहने से बहेगी। इसका मुझे पक्का भरोसा है। क्योंकि मैं अपने सत्य से कभी भी नहीं डिगी। सम्राट को भरोसा न आया, पर उसने कहा, देखें। वेश्या ने आंखें बंद कीं; और कहानी कहती है कि गंगा उलटी बहने लगी। सम्राट तो चरणों पर गिर पड़ा वेश्या के। और उसने कहा- बिंदुमति! हमें तो कभी पता ही न चला कि तू वेश्या के अतिरिक्त भी कुछ और है। यह राज, यह रहस्य तूने कहां सीखा? यह तो बड़े सिद्ध पुरुष भी नहीं कर सकते हैं। वेश्या ने कहा- मुझे सिद्ध पुरुषों का कोई पता नहीं। मैं तो सिर्फ एक सिद्ध वेश्या हूं। और वही मेरे जीवन का सत्य है। क्या है तेरे जीवन का सत्य, तू वह बात खोलकर कह! -अशोक ने कहा। उसने कहा, मेरे जीवन का सत्य इतना है कि मैं जानती हूं कि वेश्या होना ही मेरे जीवन की शैली है। वही मेरी नियति है। अन्यथा मैंने कभी कुछ और होना नहीं चाहा। अन्यथा की चाह ही मैंने कभी अपने भीतर नहीं आने दी। मैं समग्र हूं मैं सिर से लेकर पैर तक वेश्या हूं। मेरा रोआं-रोआं वेश्या है। और मैंने वेश्या के धर्म से कभी अपने को च्युत नहीं किया। अशोक ने पूछा, क्या है वेश्या का धर्म? पागल, मैंने कभी सुना नहीं कि वेश्या का भी कोई धर्म होता है। हम तो वेश्या को अधार्मिक समझते हैं। और यही मैं मानता था कि तू कितनी ही सुंदर हो, लेकिन तेरे भीतर एक गहरी कुरूपता है। क्योंकि तू शरीर को बेच रही है, सौंदर्य को बेच रही है। इससे क्षुद्र तो कोई व्यवसाय नहीं! वेश्या ने कहा, व्यवसाय क्षुद्र और बड़े नहीं होते, व्यवसायी पर सब निर्भर करता है। मेरे जीवन का सत्य यह है कि मेरे गुरु ने, जिसने मुझे वेश्या होने की शिक्षा और दीक्षा दी, उसने मुझे कहा- 'एक सूत्र भर को सम्हाले रखना, तो तेरा मोक्ष कभी तुझसे छिन नहीं सकता। और वह सूत्र यह है कि चाहे धनी आए चाहे गरीब आए; चाहे शूद्र आए, चाहे ब्राह्मणं आए; चाहे सुंदर पुरुष आए, चाहे कुरूप पुरुष आए; चाहे जवान, चाहे कोढ़ी आए रुग्ण आए; जो भी तुझे पैसे दे, तू पैसे पर ध्यान रखना और व्यक्तियों के साथ समान व्यवहार करना। न तो तू कोढी को और रोगी को घृणा करना, न सुंदर को प्रेम करना। वह वेश्या का काम नहीं है। तू तटस्थ रहना। तेरा काम है पैसा ले लेना। बस, बात खतम हो गई। तेरा ध्यान पैसे पर रहे। ब्राह्मण आए, तो तू अतिशय भाव से उसके पैर मत छूना। और शूद्र आए, तो तू उसे इनकार मत करना। वेश्या का ध्यान पैसे पर। बाकी कोई भी आए, तू सम भाव रखना। वही तेरा सम्यकत्व है, वही तेरा सत्य है।' और मैंने उसे सम्हाला है। मैंने न तो कभी किसी के प्रति प्रेम किया, न लगाव दिखाया, न आसक्ति बनाई, न मोह किया। न मैंने कभी किसी को घृणा की, न जुगुप्सा की। मैं दूर तटस्थ खड़ी रही हूं। -ओशो (गीता दर्शन)