पद, पैरवी और पुरस्कार का आपस में घनिष्ठ नाता है । पद की प्रतिष्ठा होती है इसलिए पद की लालसा में मनुष्य पैरवी करने से गुरेज नहीं करता पर पैरवी के लिए पैसे की जरूरत होती है अन्यथा किसी मंत्री-संत्री से पैरवी में पैसे के बदले में कुछ खातिरदारी कर पद प्राप्त किया जा सकता है । यह खातिरदारी किस रूप में करनी होगी यह मंत्री जी पर निर्भर करता है । अगर आप पुरूष राज है तो आपको मंत्री जी के बीवी, बाल और बच्चों के कपड़े तक धोना पड़ सकता है साथ ही उनके यहाँ नौकरी गिरी का काम करना पड़ेगा सो अलग । अगर आप महिला है तो पता नहीं आप को इज्जत भी दाँव पर लगानी पड़ सकती है अन्यथा आपकी पैरवी अधूरी रह जाएगी । हालांकि आज कल पैरवी के तौर-तरीकों में भी बदलाव आने लगे है ।
पुरस्कार का भी पद से
नाता है। इसके लिए आपको जुगाड़ लगाना पड़ सकता है । जिसे शुद्ध रूप में पैरवी कहा
जाता है । पुरस्कार में बवाल हर जगह होती है । चाहे वह नोबेल पुरस्कार, भारत रत्न,
साहित्य अकादमी हो या किसी विभाग द्वारा दिया गया पुरस्कार । सब जगह पुरस्कार पाने
के रूप बदल रहे हैं । हालांकि उसकी प्रक्रिया पुरी जरूर होती है पर मन में शंका रह
जाती है कि पुरस्कार मिलेगी या नहीं ? हाँ, अगर साहेब
यानि बॉस चाहे तो पुरस्कार मिलने की संभावना बढ़ जाती है । बहुतायत पुरस्कार तो
उन्हीं लोगों को दी जाती है जिनके ऊपर निर्णायक मंडली का हाथ हो ।
पुरस्कार न मिलने वालों
का भी कोई मलाल होता है । वह अगले बार पुरस्कार पाने की जुगाड़ में लग जाता है ।
असली मलाल तो उस व्यक्ति को होता है जिसके नम्बर वन यानि प्रथम पुरस्कार नहीं
प्राप्त होता है । वह विरोध का स्वर पहले तो नहीं, पुरस्कार पाने के बाद करते हैं,
क्योंकि पुरस्कार देते समय बड़े-बड़े अधिकारी होते हैं । इतना सम्मान तो वे रखते
ही हैं । पुरस्कार वितरण के बाद जब सभी अधिकारी चले जाते हैं तब अन्य लोगों के
सामने अपनी मन की भड़ास निकालते हैं । भड़ास भी ऐसा जिसमें जमकर भड़ास निकालना कह
सकते हैं । वे यह तो कहते हैं कि पुरस्कार वितरण में धांधली हुई है पर यह नहीं
बताते हैं कि कहाँ पर धांधली होती है । जैसे कोई नेता किसी दंगे के दोषियों के
पकड़ जाने पर कहता है कि वह निर्दोंष है पर दोषी कौन है यह नहीं बताते ।