पत्नी
तुम क्या जानो मौन वेदना,
नारी जो मन ही मन सहती है।
दे देती है सारे हक हंस कर,
अपना दर्द भी हंसकर सहती है।।
बिन बोले जो कुछ भी,
नजरों से सवाल वो करती है।
हंस कर अपना लेती है बिन जाने,
तेरी भोली सूरत पर ही तो मरती है।।
मूक बधिर सी जो बन,
सातों वचन निभाने आती है।
तुम क्या जानो उस मूरत को,
घर की लक्ष्मी कहलाती है।।
मात पिता की सीख समझकर,
तुमको अपना मीत समझकर।
जीवन के सुर को संगीत बनाने,
तेरे जीवन को गम हीन बनाने।।
ना दया कर , ना पीर भी कर,
जिंदा रख उसको,ज़िंदा ही तस्वीर ना कर।
तेरे हिस्से को हर गम को अपनाती है,
तू क्या जाने, पत्नी भी तो सच्चा धन कहलाती है।।
कौन सदृश है नारी सा,
जीवन उसका बलिदानी का।
रण क्षेत्र में लक्ष्मी महारानी सा,
प्यासे को जीवन में जैसे पानी का।।
क्षणभंगुर के सुख को,
किसी का अभिशाप ना बन।
पाल सके जो ना पल भर को,
तो फिर किसी बच्चे का बाप न बन।।
तू क्या जाने मौन वेदना,
नारी जो मन ही मन सहती है।
दे देती है सारे हंसकर
अपना दर्द भी हंस कर सहती है।।
अनुराग कुमार मिश्रा "द्वारिकेश"
शिवराजपुर, सतना (मध्यप्रदेश)