पवमानः पुनातु मा कृत्वे दक्षाये जीवसे। अथो अरिष्टतातये।।038- अथर्ववेद 6/19/2
हे ईश्वर मेरे हृदय में भक्तिभाव व कर्मण्यता का विकास हो। मुझे नीरोगी जीवन प्राप्त हो। मुझे सभी ओर से पवित्र बनाईए।
मनुष्य को अन्तः-बाह्य दोनों रूप से पवित्र रहना चाहिए क्योंकि पवित्रता में ही प्रसन्नता रहती है। सौन्दर्य उसी के पास रहता है जो
आत्मपरायण है। आत्मपरायण के पास सदैव विचार, व्यवहार व वस्तुएं सुन्दर रहती हैं। अन्तः पवित्र हो तो व्यक्ति तपस्वी, संयमी और अनुशासित होता है। बाह्य पवित्रता व्यक्ति को अच्छा स्वास्थ्य प्रदान करती है। शरीर, मन व आध्यात्मिक पवित्रता से व्यक्ति अपने लक्ष्य को अवश्य पाता है।