■ पिशाचिनी का प्रतिशोध ■ भाग 49
(पिशाचिनी सिद्धि)
________________________________________________________________________________आपको ,आपके मित्र अमरप्रताप चौहान नें अभी अभी और तुरन्त बुलाया है।
एक आगन्तुक सुवह सुवह ही मेरें पास आया।
उस समय मैं अपनें घर पर अख़बार लेकर पढ़नें बैठा ही था।
अतः मैंने उस आगन्तुक को ऊपर से नीचे तक सरसरी नज़र से निहारा , वह अभी अभी मेरे समक्ष आकर खड़ा हुआ था ,और वह जोर जोर से हाँफ रहा था,लगता था मानों वह दौड़कर आया हो।
बैठो,.....बरखुर्दार , चंद पलों को अपनी हालत दुरुस्त कर लो , .....फिर चलतें हैं।
मैनें अपनें सामनें खड़े हुए उस नबयुवक को घूरते हुए बोला।
जी सर ,मैं ठीक हूँ, आप जल्दी से जल्दी यहाँ से निकल चलें।
वह आगन्तुक लगभग अपनीं श्वांशों को कावू करते हुए बोला, पर वह बैठनें के बजाए उसी तरह खड़ा रहा।
इसी बीच मेरीं पत्नी निकट पड़ी टेबिल पर दो कप कॉफी रखकर चली गई थी।
आओ मित्र के दूत, "मेरे छोटे से घर में आपका हार्दिक स्वागत है "।
मैंने उस व्यक्ति की ओर देखतें हुए प्यार से कहा।
सर आप कॉफी पीजिए, मैं आपकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ।
वह आगन्तुक मुझें देखकर जल्दबाजी में बोला।
हे अतिथि ,हमारा चंद पलों का आथित्य स्वीकार कर हमें अनुगृहीत करें।
मैंने अपने यहाँ पर आए उस नवयुवक व्यक्ति से कहा।
अतः वह बड़ी मुश्किल से बैठनें को राजी हुआ, और वह एक कुर्सी पर मजबूरी में बैठ गया, तभी मैंने उसकी ओर एक प्याला कॉफी का बढ़ाया।
लो भाई पियों और अभी हम तैयार हो कर यहां से निकलतें हैं।
मैंने उसे आश्वासन दिया।
वह अति शीघ्रता से कॉफी पीनें लगा।
लगता था वह अति जल्दी में था ,इसलिए उसनें वह कॉफी का प्याला फूँक मार मार कर अति शीघ्रता से ख़त्म कर , वह तुरन्त कुर्सी को छोड़कर पुनः खड़ा हो चुका था और बोला।
सर जी , मालिक का शख़्त आदेश है, कि अविलम्ब आपकों साथ लेकर आया जाए।
सब कुशल तो है ।
मैंने उस आगन्तुक को देखतें हुए कहा।
नहीं साहब कुशल ही तो नहीं है। बरना आपको मैं एसे नहीं बोलता।
वह वेचैनी से खड़ा हो चुका था और बार बार इधर उधर लॉन में टहल नें लगा था।
तुम्हारें मालिक अमरप्रताप चौहान तो ठीक है।
मैंने उस से पुनः पूँछा।
साहब बक्त वहुत कम है, कहीं हम देर होनें पर अपनें स्वामी को खो ना बैठें।
वह व्यक्ति एक झुरझुरी लेकर बोला।
ओह ,।
अचानक मेरें मुहँ से निकला, मामला लगता था कोई गम्भीर था, मैं मन ही मन विचार कर रहा था, और आगन्तुक था ,वह कुछ बताना ही नहीं चाहता था, अतः पल भर को मैं अपनी ध्यानावस्था में गया तो मुझें जो दृश्य दिखाई दिया, उसे देखकर मैं खुद हैरान था।मैनें अपनें मित्र चौहान को ध्यान में देखा कि वह हाथ में अपनी लाइसेंसी बन्दूक लिए अपनें शयनकक्ष के वाहर खड़ा हुआ था, और शयनकक्ष का द्वार अन्दर से बन्द था, साथ ही उसके परिजन उसे समझानें का प्रयास कर रहे थे।
अगलें पल मैं किसी भावी दुर्घटना की आशंका से चौंक कर ध्यानावस्था से वाहर आया।
चलो भाई, तुम किस वाहन से आये हो।
मैंने उस व्यक्ति से जान ना चाहा।
साहव मैं मालिक की मोटरसाइकिल पर आया हूँ,अतः आप अतिशीघ्र चलिए।
अगलें पल मैं अति शीघ्रता से घर में प्रवेश कर जब वापिस आया तो ,वह आगन्तुक मुझें देखकर बिना कुछ बोलें मोटरसाइकिल स्टार्ट कर चुका था।अतः मैं भी समयानुसार अविलम्ब उस आगन्तुक के पीछे बैठ चुका था।और मोटरसाइकिल किसी परिंदे की भाँति वायु में उड़ती हुई नजर आ रही थी।
अगलें बीस मिनट में हम लोग अपनें मित्र अमरप्रताप चौहान के घर पर पहुँच चुकें थे ।अतः मैं मोटरसाइकिल से उतर कर आगे बढ़ा, उसके घर के सामनें लोगों की हजूम भीड़ थी।
ये हटो थोड़ा रास्ता दो।
मेरें साथ आये उस नबयुवक नें भीड़ को चीरते हुए कहा। अतः पलभर में हम अमरप्रताप के घर में घुसकर उसके जनान खानें की ओर पहुँचे।
मित्र कुशल तो है।
मैंने अपनें मित्र को एक कमरे के सामनें बन्दूक लिए हुए देखा, उसकी आँखें गुस्सा की अधिकता से लाल हो रहीं थीं, कपड़े अस्त व्यस्त हो रहे थे, बाल बेतरतीबी से आँखों पर आ रहे थे।
क्या बात है......अमरप्रताप....सब कुशल तो है,?
मैंने अमरप्रताप को देखतें हुए बोला।
दरवाजा खोल कुतिया ,आज तू और तेरा यह पिल्ला किसी भी हालात में बचनें का नहीं है।
वह दरवाज़े को अपनी लाइसेंसी बन्दूक की बट से ठकठकाते हुए बोला।
पर अंदर से कोई भी किसी तरह की कोई प्रतिक्रिया नहीं की गई ।
इसके अंदर कौन है?
मैंने अपनें मित्र की ओर देखते हुए कहा।किन्तु वह मुझें देखकर कुछ नहीं बोला, बल्कि अपनें ख़ुश्क होंठों पर जुबान फेर ते हुए परे देखनें लगा था।
वह नव युवक मुझें छोड़कर वहुत पहिलें ही जा चुका था।
मुझें बताओं मित्र तुम्हारें क्रोध का क्या कारण है।
मैंने अमरप्रताप के कंधे पर अपना सहजता से हाथ रखकर उस से पूँछा।
आज इस कुतिया को और इसके पिल्ले को कोई भी मेरे हाथों बचा नहीं सकता।
अमरप्रताप क्रोधावेश में अपनें दोनों नथुनें फुलाता हुआ चीखा।
मगर यार हुआ क्या है, यह तुम्हारा रौद्र रूप का कोई कारण तो होगा।
मत पूँछों दोश्त मैं तुम्हें इस कुतिया का इतना घृणित चरित्र आपको सुना भी तो नहीं सकता।
वह क्रोधावेश में लगभग काँप रहा था।
अच्छा चलो इस समस्या को तो हम लोग बाद में निवटायेंगें ही पर अभी यहाँ से हटो, और हम लोग बैठक में बैठकर बात करतें हैं।
आप चलो मैं अभी इसका निपटारा कर के आता हूँ।
वह मुझसें शुष्क स्वर में बोला।
मित्र मुझें कुछ बताओगे भी कि यहाँ क्या घटना घटी है ?
मैंने अपनें मित्र को शांत करनें के उद्देश्य से कहा।
इस बार वह पहिलें की अपेक्षा कुछ नरम हुआ था ,अतः मैंने उसे अवसर समझकर उसे अपनी ओर खींचते हुए वाहर बैठक में लेकर आ चुका था, अतः अगलें पल हम बैठक में एक सोफा पर बैठ चुके थे, और मैं अपनें मित्र अमरप्रताप की बोलनें की प्रतीक्षा कर रहा था, पर वह अपनें विचारों में खोया हुआ गुमसुम कभी उत्तेजित हो जाता तो कभी वह अपनें भावों पर अंकुष लगानें की कोशिश में दिखता,इस सिचियुसन में वह मुझें लगातार देखता तो कभी उसका हाथ अपनी लाइसेंसी बन्दूक पर कस चुका होता।
देखो मित्र, अपनें मन की व्यथा अगर तुम मुझें नहीं बताओगे तो फिर किस से कहोगे।
मैंने उसके अंदर उठतें जज्वातों को भाँपते हुए बोला।
.................. ।
वह फिर भी चुप रहा।
बोलो मित्र ऐसी क्या समस्या है कि तुम ,अपनें इस दुःख को अकेले ही सहन कर रहे हो।
इसबार उसनें मेरी ओर नजरों को उठाकर देखा।पर वह अब भी मौन था।
दोस्त क्रोध में लिए फैंसले अक्सर दोनों को ही दुःखको पहुँचाने बालें होतें हैं।
मैंने उसे समझानें की कोशिश की।
दोश्त समझ नहीं आता ,किस मुहँ से मैं अपनी व्यथा आप से कहूँ।
इसबार वह थोड़ा तल्ख़ और नर्वस होता हुआ बोला।
कहो, अगर नहीं कहोगें तो मैं उस समस्या का समाधान नहीं निकाल सकूँगा।
............................।
इसबार वह मौन होकर कुछ विचार रहा था, अतः मैं उसकी मनोंभावों को पढनें की कोशिश में लगा रहा,अतः वह पूरे पाँच मिनट तक विचरता रहा,ततपश्चात मेरी ओर देखकर बोला।
दोश्त वायदा करो, कि यह राज सिर्फ आप अपने तक सीमित रख सकोगे।
वह वेहद चिंतित और राज भरे अंदाज़ में सरसराती आबाज़ में मुझसें बोला।
लगता है आज मेरे मित्र को अपनी दोस्ती पर भी शक होनें लग गया है।
दोस्त एसी बात नहीं, पर मुझें कहतें हुए सँकोच होरहा है, कि इतनीं गिरी हुई मेरी पत्नी आकांक्षा कैसे हो सकती है।
वह छत की ओर घूरता हुआ रुक रुक कर बोला।
दोस्त , पहेली बुझाने से मेरी समझ में कुछ नहीं आएगा,जो भी कहो साफ़ साफ़ बोलो।
वस यही तो मेरी उलझन है, मैं कह भी नहीं सकता और अपनें मन में नहीं रख सकता, मेरा मस्तिष्क इन बातों को सोचकर जभी से फटा जा रहा है,जब से मैंने आकांक्षा को आपत्तिजनक स्थिति में देखा है, मैं उसका ख़ून करके ही मेरे मन को तसल्ली होगी बरना मेरा सिर फट जाएगा मैं स्वयं आत्महत्या कर लूँगा।
अमरप्रताप पुनः क्रोध में भर चुका था इस समय उसके हाथ की पकड़ बन्दूक की बट पर शख़्त हो चुकी थी और उसका चेहरा क्रोधावेश में लाल हो गया था।..............शेषांश आगे पढ़ें।
प्रिय मित्रों ऐसा क्या कारण था जिसकी वजह से अमरप्रताप अपनी पत्नी और अपनें पुत्र के ख़ून करनें को आमादा हो चुका था ?।
क्या वह आकांक्षा सिंह और अपने पुत्र को मार देगा ?
आश्रम पर होनें बाली घटनाओं का राज क्या सदा के लिए राज बना रहेगा?
क्या यज्ञ में भी कोई और भी दुर्घटनाऐं हो सकतीं हैं ?
क्या इन सभी घटनाओं का सूत्र मेरे मित्र के परिवार से हो सकता है ?
इनसभी प्रश्नों के उत्तर पानें के लिएपढतें रहें। कहांनी "पिशाचिनी का प्रतिशोध "
Written By H. K. Joshi