■ पिशाचिनी का प्रतिशोध ■ भाग 50
(पिशाचिनी सिद्धि)
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मित्र आपको मेरीं बातों पर विश्वाश क्यों नहीं हो रहा है।
अमरप्रताप लगभग रो देने बालें स्वर में बोला।
अमरप्रताप काश तुम मेरे मित्र ना होतें, .तो..मैं..तुम्हें, इस तरह भावीजी के प्रति अभद्र भाषा प्रयोग करनें की सज़ा मैं तुम्हें जरूर देता।
मुझें अमरप्रताप की भद्दी भद्दी टिप्पणियों को आकांक्षा सिंह के प्रति करनें की वजह से मुझें अमरप्रताप पर क्रोध आनें लगा था,।
अतः जब उसकी अशोभनीय टिप्पणियों को मैंने उसी की पत्नी आकांक्षा सिंह के बारे में सुना तो लगा, यह आदमी या तो अब विक्षिप्त हों गया है, या फिर जरूर यह, नशे में धुत्त होकर इस तरह का अनर्गल प्रलाप कर रहा है।
मैं अपनें मन में मौन होकर सोच ही रहा था कि अमरप्रताप मुझें पुनः झिझोड़ते हुए बोला।
अब क्या सोच रहें हो तुम दोस्त ?
मुझें उसका इस तरह डिस्टर्ब करना वेहद खला।
अमर प्रताप क्या तुमनें आज शराब पी रखी है।
मैंने अमरप्रताप को घूरते हुए कहा।
क्या कह रहे हो मित्र, मैं कभी शराब नहीं पीता।
वह मेरी ओर ध्यान से देखता हुआ बोला।
फिर आज इस तरह की अशोभनीय भावीजी के प्रति तुम्हारीं यह अशोभनीय बातें,क्या तुम्हारें मुहँ से अच्छी लग रही हैं ?
मैं उस से रूष्ट होकर बोला।
मित्र ! जिसके दिल में आग लगती है वही इसको समझ सकता है, बरना लोग अक्सर मज़ाक उड़ाया करतें हैं।
वह एक लंबी श्वा श्वांश लेता हुआ बोला।
अमरप्रताप तुम्हारीं बात अक्षरसः सत्य है, कि जिसको लगतीं है उसे ही दर्द होता है किन्तु.....मेरा मन तुम्हारीं इन बातों को इस सहजता से स्वीकार नहीं करता....और वह भी इतना बड़ा इल्ज़ाम आप भावीजी पर लगारहें हो ?
" धरती और अम्बर कभी एक नहीं हो सकतें, ठीक उसी तरह गङ्गा जल में कभी कीड़ें नहीं पड़तें, ठीक उसी तरह गङ्गा की भाँति पवित्र है तुम्हारीं पत्नी "।
उफ़्फ़ .....मैं कैसे तुम्हें विश्वास दिलाऊँ दोस्त ,जो मैनें अपनीं आँखों से स्वयं देखा है ...उसको कैसे झुठला दूँ ?
वह अपनें सिर को दोनों हाथों से पकड़कर नीचें बैठ गया।
मैंने देखा उसके चेहरे पर पूरी दुनियाँ भर की वीरानियाँ छाई हुई थीं लगता था वह सब ओर से टूट चुका था, अचानक मेरे मन में विचार आया कि मैं अमरप्रताप की बातों की सत्यता की जाँच हेतु कोई ऐसा उपाय करूँ जिस से मेरें मित्र की बातों की सत्यता की जाँच हो जाये,और एक नारी की सतीत्व की मर्यादा भी बनी रहे ?
मैंने उचटती हुई नजरों से अमरप्रताप को देखा वह काफ़ी समय से अपना सिर नींचे झुकाए बैठा था,।
मित्र अमरप्रताप ....मैंने एक निष्कर्ष निकाला है कि जब तक मैं इस संशय की तह तक नहीं पहुँचूँगा तब तक कोई भी उपाय तुम्हारें भले हेतु नहीं सोचूँगा, मैं किसी एकपक्ष की बात सुनकर कोई भी डिसीज़न नहीं ले सकता हूँ।
अमर प्रताप नें मेरी ओर नज़र उठा कर देखा।
बोलो मित्र आपकों मेरी बात मंजूर है।
मैनें अमरप्रताप से आग्रह किया।
हाँ ...हाँ... हाँ...मुझें आपका प्रस्ताव मंजूर है, बताओ मुझें क्या करना है।
वह उठकर खड़ा हो चुका था।
अतः मैंने उसके कान में मुहँ करके अपनी अगली कार्यवाही से अमरप्रताप को पूरी तरह आवगत कराते हुए उसे संतुष्ट किया।
और फिर हम लोग आश्रम की ओर पैदल पैदल चलतें हुए उसकी कोठी से निकल आए,।
आश्रम पर श्री विष्णु महा यज्ञ का आयोजन कई दिनों से चल रहा था,अतः कोई भी अप्रिय घटना ना घटित हो इसलिय वहाँ पर एक अस्थाई सुरक्षा के लिए पुलिसचौकी की भी व्यबस्था की गई थी,अतः हम दोनों सब से पहिलें चौकी इंचार्ज बी शंकरन से मिलनें पहुँचे।
गुड मॉर्निंग शंकरन साहव।
अमरप्रताप उन्हें देखकर बोला।
आइए ठाकुर साहब , मैं आपको ही याद कर रहा था।
इंस्पेक्टर बी शंकरन अदब से खड़े होतें बोलें।
शंकरन साहब सब कुशल तो हैं।
मैंने अमर प्रताप के पीछे से निकल कर चौकी इंचार्ज बी शंकरन से कहा।
ओह मास्टर साहब आप भी मौजूद हैं, अहो भाग्य हमारें हैं, जो आज स्वयं हमारीं चौकी पर दो दो दिव्य मूर्तियां उपस्थित हैं।
अजी साहब ,हमारें लिए कोई सेवाएं बताएं।
मेरा मित्र विनम्रता से बोला।
मास्टर साहब दरअसल बात यह है कि अभी तक आश्रम पर घटनें बाली घटनाओं की चार्जशीट दाखिल नहीं हो पाई है,पहली घटना हुए पूरे पचास दिन हो चुके है।
हाँ वह तो सही है, पर इंस्पेक्टर साहव हम इसमें आपकी कैसे मदद करें।
आप दोनों महानुभाव आठ नौ साल की आयु के बच्चों का सर्वे कर हमें सहयोग दें।
इंस्पेक्टर बी शंकरन नें हमदोनों से कहा।
ठीक है शंकरन साहव, आप हमारें साथ कब चलेंगें।
मैंने इंस्पेक्टर साहब से पूँछा।
कल से आप शुरुआत करें तो अच्छा है।
एज यू लाइक, और बताएं।
सब ठीक है,मगर आप कल भूलना नहीं।
ऑफ़ कोर्स।
हम दोनों इंस्पेक्टर से हाथ मिलाकर चौकी से वाहर आ चुके थे,और महाराज जी के निकट जाकर बैठ गए। महाराज जी अपनें ध्यानावस्था में थे, अतः मैं और चौहान अपनीं उस गहन समस्या पर विचार करनें लगें ,।
और फिर मैंने अपनीं योजना के अंतर्गत अमरप्रताप से कहा।
प्रिय मित्र तुम अपनें एक सेवक के माध्यम से अपनीं पत्नी को सूचना भेजों ,कहो, कि कुछ साधुओं और मेहमान आप की कोठी पर निवास करेंगें, जब तक आश्रम पर यज्ञ कार्य चलेगा, अतः उन सब की रहनें और खानें पीनें का प्रवन्ध आकांक्षा सिंह अविलम्ब करें।
अगलें पल अमरप्रताप नें एक सेवक अपनीं हबेली नुमा कोठी पर भेज दिया।
और अब हमें अपनीं योजना के अगलें चरण पर कार्य करनें से पहिलें ,आकांक्षा सिंह की प्रतिक्रिया का इंतज़ार था, और फ़िर हमें जैसी परिणाम की उम्मीद थी ठीक वही हुआ।
आकांक्षा सिंह नें अपनें सरल,श्रद्धालू स्वभाव का परिचय देतें हुए अपनें सेवक के माध्यम से हमारीं आसा के अनुकूल अविलम्ब सूचना भेजी।......शेषांश अगलें अंक में।
Written by h.k.joshi