■पिशाचिनी का प्रतिशोध ■ भाग 56
(पिशाचिनी सिद्धि)
______________________________________________________________________________________ अरे देखों ....देखो .......
ठाकुर अमर प्रताप चौहान की हवेली में आग की लपटें।
अरे यह तो आग लगाई गई सी मालूम होती है।
दौड़ों दौड़ों अरे पानी लाओ।
अरे फायरब्रिगेड को तुरन्त फोन करो।
जिधर देखों उस तरफ से लोगों का झुंड भागकर आता दिखाई दे रहा था।
ठाकुर अमरप्रताप चौहान की हवेली सबा एकड़ में बनी हुई थी, जो कि अमरप्रताप के नाना श्री जयंत प्रताप के पूर्वजों ने बनबाई थी,।
क्षत्रिय वीर शिरोमणि रत्न प्रताप चौहान की निकासी मैंनपूरी के चौहानों से थी,अतः उस समय रत्न प्रताप की धाक वहुत अधिक थी, उनके दो पुत्रियाँ छोटी फ़ूलकुँवर और दूसरी विजयाकुँवर थी,।
कहतें हैं कि विजयाकुँवर की मौत एक रहष्य मय ढंग से हो गई, जिस का किसी को भी पता नहीं चला कि विजया कुँवर कहाँ और किन परिस्थितियों में गुम हो गई थी।चूँकि बड़े लोगों का मामला था ,अतःकभी किसी की कोई हिम्मत भी नहीं हुई थी जो, कि विजया कुँवर की मौत का रहष्य से पर्दा उठाये , अतः विजया कुँवर का एकाएक हवेली से गायब होना एक अज्ञात रहष्य बन गया था,।
समय के साथ साथ लोग विजयाकुँवर को भूल चुके थे, अतः अब रत्नप्रताप सिंह के बस एक ही पुत्री फ़ूलकुँवर रह गई थी,स्वभाव से फ़ूलकुँवर वहुत ही मिलनसार,हँस मुख थी, ।
अतः जब फ़ूलकुँवर जवान हुई तो रत्न प्रताप नें अपनी प्रिय पुत्री का विवाह मैनपूरी के एक प्रतिष्ठित कुल में जन्में ज़ालिम सिंह से बहुत ही धूमधाम से सम्पन्न किया गया था,।रत्न प्रताप के कोई पुत्र नहीं हुआ, और उनकी मृत्यु के बाद यह हवेली मैन पूरी के चौहान ज़ालिम सिंह के कब्ज़े में पूरी तरह से आ गई थी।
ठाकुर ज़ालिम सिंह चौहान के तीन पुत्र और छह पुत्रियाँ थी ,जिनका विवाह ठाकर साहब ने अपनें जीते जी अच्छे और प्रतिष्ठित परिवार में सम्पन्न करदिया था, तीन पुत्रों में अमरप्रताप ठाकुर ज़ालिम सिंह का बड़ा पुत्र था,इत्तफाक से अमरप्रताप के बीस वर्षों तक उनकेकोई संतान नहीं हुई, किन्तु किसी तांत्रिक के गढ़ंत लगाने से आकांक्षा सिंह को एक पुत्र प्राप्त हुआ ,जिसकी कहानी आप पाठक पिछले अंकों में पढ़ ही चुकें हैं,मजेकी बात यह थी कि अमरप्रताप चौहान के पुत्र हुआ, इसकी सभी को जानकारी थी, पर वह पुत्र कैसा था कितना लम्बा चौड़ा,कैसे रूपरँग का था, आजतक कोई नहीं जानता था।
किन्तु अचानक हवेली में आग लगनें के और उसमें अमरप्रताप के पुत्र की मृत्यु हो जानें की जानकारी सभी ग्रामवासियों को हो चुकी थी।
जब मैं राजनगर के श्मशान भूमि से अपना कार्य सम्पन्न कर आश्रम पर आया तो मद्यान हो चुका था, अतः मुझें मेरे मित्र अमरप्रताप चौहान की हवेली में आग लगनें की ख़बर मिल चुकी थी, किन्तु मैं विना आश्रम केस्वामी जी की अनुमति के बिना नहीं जा सकता था, अतः मैं स्वयं महाराज जी से विनयपूर्वक बोला।
महाराज जी आपकी आज्ञा हो तो मैं अपनें मित्र के यहाँ कुछ पलों को घूमकर आजाऊँ।
महाराज जी ने अपना एक हाथ उठा कर मुझ से रुकने का संकेत किया। अतः मैं चुप होकर उन्हीं के समीप बैठ कर उनके अगले आदेश की प्रतीक्षा करने लगा। किन्तु इसतरह बैठे बैठे मुझें एक घण्टा और बिट गया किन्तु महाराज जी की ओर से कोई ऐसा संकेत नहीं मिला ,जिसकी मुझें चाहत थी।अतः मैं उठकर कुछ देर को टहल ने लगा, दिन का तीसरा पहर हो चुका था।
मेरे मन में विचार उठा कि "मैं अपनीं यात्रा का वृत्तांत," महाराज जी को बताऊँ। इसलिए मैं पुनः महाराज जी के निकट पहुँचा।
आओ वत्स बैठो।
महाराज जी समाधि से निकल आये, और मुझसे कहा।
वत्स तुम्हारी यात्रा सुखदायक रही, हमें प्रसन्नता हुई।
जी महाराज जी अब मेरे लिए क्या आदेश है।
मैंने महाराज जी से विनम्रतापूर्वक कहा।
हाँ वत्स अब वह समय नज़दीक आचुका है,अब तुम्हारा कार्य सिद्ध होगा।
जी महाराज।
मैं संक्षिप्त में बोला।
वत्स इस आग के लगनें के बारें में तुम्हें कुछ रहष्य पता चला।
नहीं महाराज।
यह आग उस दुष्ट पिशाचात्मा का ही कृत्य है।
महाराज जी उस अग्नि काण्ड के बारे में रहष्योद्घाटन करते हुए बोलें।
जी महाराज ।
वह पिशाचात्मा कितनी भी तांत्रिक क्रियाओं को कर ले पर उसका भी अंत अब निश्चित ही है।
जी महाराज जी, वह पिशाचात्मा तान्त्रिक क्रियाओं को भी करता है।
मैंने कौतूहलवश महाराज जी से पूँछा।
हाँ वत्स तुम नें उस पिशाचात्मा की कार्यशैली पर ग़ौर नहीं किया,वह " शिव स्वरोदय" के पूर्ण ज्ञान से परिचित है।
महाराज जी नें मुझें पुनः स्मरण कराया।
और तुम भी स्वर ज्ञान का ध्यान रखतें हुए, अपनीं क्रियायें करनीं हैं।
जी महाराज जी, अब मेरे लिए क्या आदेश है।
जाओ सूर्य स्वर का विशेष महत्व ध्यान रखना, तुम्हारे कार्य की सिद्धि इसी सूर्य स्वर में सम्पन्न होनी है।
जी महाराज जी।
वत्स एक बात और स्मरण रखना ।
महाराज मेरी ओर देखकर बोले।
जी महाराज वह क्या ?
अचानक मैंने उनसे पूँछा।
ध्यान रखना वह पिशाचात्मा एक भयंकर ,दुष्ट,आत्मा है, जिसनें अपनें साथ कुछ काली शक्तियों को भी प्राप्त कर लिया है, अतः कब कौन सी क्रियाएं करनीं हैं, वह खूब अच्छी तरह जानता है।
जी महाराज,आपका आशीर्वाद और माँ जगदम्बे की अनुकम्पा से सर्व कार्य सम्पन्न होगा।
मैंने पूर्ण आत्म विश्वाश के साथ कहा।
जाओ वत्स शुभस्य शीघ्रम।
महाराज जी की आज्ञा पा कर मैं अति शीघ्र अपनें मित्र की हवेली की ओर अपनें कदमों को स्वरवोध कर के मैं अपने कदम अब बड़ा चुका था।
मैं आश्रम से निकलकर अभी थोड़ा सा बड़ा ही था कि मेरे समक्ष एक गाय आकर खड़ी हुई, उसका बछड़ा उसके नज़दीक था, मैं मन ही मन गाय ,गंगा और गायत्री को प्रणाम कर आगे बढ़ा, आश्रम से मेरे मित्र के गाँव की दूरी मात्र दस मिनट थी अतः मैं विचार करता हुआ आगे बढ़ा, तभी एक नौ वर्षीय वालिका मेरी ओर कमल के फूलों को लिए आई ,और बोली।
देखों कितनें सुंदर फूल हैं ,मैं तुम्हें ग्यारह रुपयों में देदूँगी।
मैंने मुश्कराकर उस वालिका को उसके अनुसार पैसे दिए और उन ताजी फूलों को हाथ में लिए आगे की ओर बड़ा, मुझें लगा कि कोई मेरे पीछे पीछें अदृश्य हो कर चल रहा है।मैनें तुरन्त स्वर ज्ञान किया,इस समय मेरा सूर्य स्वर प्रवाहित हो रहा था जो मुझें कार्य सिद्धि में उचित था।
ये ठहरो, वहाँ मत जाओ।
पीछे से किसी नें मुझ से कहा।
मैंने देखा तो मेरे पीछे कोई नहीं था, अतः मैं पुनः आगे की ओर बढ़ने लगा।
रुको, तुम्हें क्या चाहिए, मैं वह सब कुछ अभी तुम्हें दे सकता हूँ।
फिर वही अज्ञात आवाज सुनाई दी।
मुझें तुझ जैसे दुष्टात्मा से कुछ नहीं चाहिए।
देखलो और विचारलों एसा मौका कम मिलता है।
वह पुनः बोला।
मैं समझ चुका था कि वह व्रह्म राक्षस मेरा समय बर्वाद करना चाहता था, अतः मैं उसके प्रलोभनों पर ध्यान ना देकर गाँव की सीमा में प्रवेश कर चुका था, अतः अब वह दुष्टात्मा कहीं अन्य चला गया था,मैं सीधा अमरप्रताप की हवेली के निकट आया, मैंने देखा उसकी हवेली पूरी तरह जलकर काली और वदसूरत लग रही थी, मेरा मित्र अमरप्रताप हवेली के सामनें अधजले तख़्त पर अपनें दोनों हाथों से सिर को पकड़े उकड़ू बैठा था।
अमर मेरे मित्र एसे ना बैठो ।
मैंने उसको दुखी देखकर बोला।
वह मेरी आवाज़ सुन अपना सिर ऊपर उठाकर बोला।
दोस्त सब कुछ खत्म होगया।
शान्ति रखो अमरप्रताप, जो कुछ हुआ है, वह तुम्हारे लिए हानिकारक है, पर यहीं से अब तुम्हारें सारे संकट कट जायेगें।
मग़र कैसे ? संकट तो अब और बढ़ चुकें हैं।
वह निराशा भरे भाव से बोला।
मित्र अतिशीघ्र उठो और एक बड़े पात्र में गङ्गा जल करनें के बाद उस पात्र को अपनें गाँव के सात कुँओं का जल मिला कर अपनीं हवेली के सम्पूर्ण भाग में छिड़को, जाओ पहिलें यह कार्य करो।
मेरा मित्र अमरप्रताप दुःखी मन से उठा और मेरे बताए अनुसार कार्य करने लगा।शेषांश..........आगे।
Written by H.K.Bharadawaj