■ पिशाचिनी का प्रतिशोध ■भाग 16
(पिशाचिनी 2 रिटर्न)
--------------------------------------------------------------------------------प्रिय मित्रों आपनें गतांक में पढ़ा कि वह लाल चुनरियाँ बाली छोटी सी बालिका मुझें पहाड़ी रास्ते से ले जाकर दूर दूसरी पहाड़ी के निकट बनी एक पर्णकुटी की ओर संकेत कर बोली।
वह जो रक्त पर्णों से आच्छादित कुटिया दिखाई दे रही है जिस के पास एक बड़ा सा यज्ञ वेदी का मण्डप है जिसपर वो देखों पीट वर्ण की जो ध्वजारोहण है वहीं से तुम्हें आगे का रास्ता मिलेगा, क्योंकि वहाँ निवास करने बालें एक उच्चस्तरीय ज्ञानी ,परम् ब्रह्मवेत्ता एवं तत्वसार के मर्मज्ञ रामानन्दी ऋषि निवास करतें हैं।उन पर राम भक्त हनुमानजी की विशेष अनुकम्पा है।
मैं उस छोटी सी बालिका द्वारा बताए आश्रम को एक भरपूर नजर डालतें हए विचारों में खोया हुआ उस बालिका से बोला।
वहाँ मुझें क्या करना होगा।
किन्तु दूसरी ओर से उस लाल चुनरिया बाली लड़की का कोई उत्तर ना पाकर उसकी ओर मेरीं दृष्टि घूम गई, ।
किन्तु वहाँ पर वह नन्हीं वालिका अचानक मेरीं नजर से एकदम अंतर्ध्यान हो चुकी थी।
अतः अब मुझें इस कुटी रूपी आश्रम में प्रवेश करना था ,और साथ ही मुझें उस कुटी में रहने बालें महात्मा जी से मिलकर अपनें गुरुदेव के स्थान पर जानें बाली राह की जानकारी लेकर आगे पहुँचना आबश्यक था , कुल बात यह थी कि अब आगे का मेरा मार्गदर्शन वहीं उस पर्णकुटी में रहनें बालें उन महात्मा जी से ही मिलनें बाली आवश्यक जानकारी पर निर्भर करना था।
अतः मैं अपने आप को ब्यवस्थित कर आगे बढ़ा ही था, कि मेरे राह में एक विशालकाय वानर किसी चट्टान की तरह उस पगडण्डी पर कहीं से आकर खड़ा हो चुका था, वह वानर बीच राह में इस तरह से वहाँ आ खड़ा हुआ था,कि उसे लांघें बिन राह के दूसरी ओर जा नहीं सकता ?, अगर उसे नजर अंदाज कर अगर मैं दूसरी तरफ होकर निकलनें का प्रयास करता तो भी वहुत बड़ा जोखिम भरा था,क्यों कि वह एक पतला सा रास्ता था जिसके दोनों ओर गहरी गहरी खाईयां थीं और जो रास्ता था वह एकदम एक तंग पहाड़ी के बीचोंबीच से होकर गुजरता था, ऊपर से यह बानर भी एक अच्छी खासी रुकावट बनकर खड़ा हो चुका था।
मैं दूर से ही खड़ा हो कर विचार करनें लगा कि इस समस्या का समाधान कैसे हो ,पर कोई भी युक्ति मेरे मस्तिष्क में तत्कालीन उस समय नहीं आई,अगर मैं ऐसे ही प्रस्तर खण्ड से बंदर को भगानें का प्रयास करूँ तो भी मैं इस कार्य में सफल नहीं हो सकता था, क्यों कि वह विशाल काय बंदर वहुत ढीट दिखाई दे रहा था, और तो और वह सिर्फ़ एक वन जीवी साखामृग ही तो था।
क्यों कि वह वनचर बंदर ही तो है ।
पता नहीं , कब मुझ वह अपनीआक्रमण कर बैठें,हाँ यह आवश्यक है कि अगर बंदर को कुछ खानें को उसे दे दिया जाए तो शायद वह क्रुद्ध ना हो और आसानी से चला जाए ,या मुझें मार्ग से निकलनें में आसानी से निकल जानें दे, पर मेरें पास भोजन के रूप में कोई भी खाद्य पदार्थ नहीं था,साथ ही मैं खुद क्षुदा से पीड़ित था,अतः मेरे पास कुछ भी खानें के लिए नहीं था। जो उस बानर को मैं प्यार से दे सकूँ।
मैंने देखा वह बंदर मेरी ओर ही देख रहा था,शायद इस आशय से कि मैं उसे कुछ खाद्य पदार्थ उसे अवश्य दूँगा।
हे भगवान मैं इस समस्या से कैसे निकलूंगा।
अकस्मात मेरे मुहँ से निकला।
और उसी समय वह बानर धीरे धीरे पहिले मेरी ओर बढ़ता रहा और जैसे ही वह मुझ से दो मीटर की दूरी पर रहा होगा कि अकस्मात वह एक मीटर पीछै हटा और उसी फुर्ती के साथ तीव्रवेग से दौड़ता हुआ मेरी तऱफ ठीक उसी समय उसनें एक भयंकर अंदाज में छलाँग लगा चुका था ,और पता नहीं कैसे मैं एकाएक नीचे की ओर अपनें स्थान पर वेहद फुर्ती से अचानक झुक कर पगडण्डी पर भय से आँखें बंद कर बैठ चुका था, । मेरीं दोनों आँखे बंद थी और मेरे मुहँ से अचानक निकला।
"हे ! माता रानी मुझें इस संकट से बचाओ। "
और कुछ देर तक मै अपनी आँखों को बन्द किए हुए उस वानर की हमलें की प्रतीक्षा करता रहा, किन्तु जब उसकी ओर से मुझपर जब हमला नहीं हुआ तो मैनें धीरें से अपनीं दोनों आँखों को डरते डरतें खोला, और अगली क्षण मैं आश्चर्य से डूबा अपनें चारों ओर देखनें लगा, मुझें वह बंदर दूर दूर तक नहीं दिखाई दिया।, वह जैसे ही आया था ठीक बैसे ही अब नौदो ग्यारह होंगया था।
अब मेरी राह विना अवरोध के स्पस्ट मुझें दिखाई दे रही थी। मैं अपनें हृदय में अपनी इष्ट का स्मरण करता हुआ अति शीघ्र मार्ग तय करनें लगा और कुछ मिनट बाद मेरे सामनें उस बताई गई पर्णकुटी का मुख्य दरवाज़ा स्पष्ट दिखने लगा था, कुटी के मुख्य द्वार पर दोनों ओर दो पहरेदार की भाँति बड़े बड़े लंबे घनें वृक्ष देवदारु के खड़ें थें और उन वृक्षों पर असँख्य कपियों के यूथ उछल कूद करते हुए दिखे, मैं कुछ पल उन वानरों को विस्मय से देखता रहा था ।
अभी मैं उन वानरों की उछल कूद उस वृक्ष पर ऊपर को मुहँ कर देखनें में व्यस्त ही था कि सहसा किसी नें मेरे अधो-वस्त्र को किसी नें पकड़ कर आहिस्ता से खींचा।
मैंने अपनी दृष्टि वृक्ष केऊपर से हटाई और नींचे देखा तो एक पल को मेरीं श्वांसगति मंद तीव्र होगई, क्योंकि मेरें सन्मुख वही वृहदाकार बंदर मेरे अधोवस्त्रों को पकड़ कर धीरें से खींचता हुआ एक ओर लेजातें हुए दिखा।
हे भगवान फिर वही आफ़त यहाँ कैसे ?
मेरे मुहँ से निकला।
वह वानर चुपचाप पुनः मेरा अधोवस्त्र पकड़ कर आगे की ओर बढ़नें का संकेत करनें लगा।
मेरा डर से बुरा हाल था अतः मैं सहमा सा उस बंदर के साथ पीछें पीछें चलनें लगा। वह आश्रम रूपी कुटी काफ़ी लम्बे चौड़े पहाड़ी पर बनी हुई थी जिसके चारों ओर घनें छायादार साथ ही फलदार पहाड़ी वृक्षों का जमावड़ा था, मैं उस विशालकाय वानर के साथ उस आश्रम की शोभा आत्ममुग्ध भाव से देखता हुआ आगे आगे उस वानर के साथ डर रहित हो कर चलनें लगा, इस समय वह कपि मेरा मार्ग दर्शक की भूमिका में था।
कुछ दूर और चलनें के बाद वह कपि मुझें मुख्य कुटी जो लगभग रक्त जैसे रंग के भोजपत्रों से निर्मित थी उस से पहिले ही मुझें कदमों की दूरी पर छोड़ कर तेजी से उस रक्तवर्ण भोजपत्रों की कुटी के द्वार पर खड़ा हो कर कुछ अपनी भाषा में बोला।
तभी कुटी के अंदर से आती आवाज मैंने स्पस्ट सुनी।
रामदूत आमंत्रित जन को यहाँ तक सकुशलता से लानें के लिए आपका धन्यवाद।
और उसी के साथ वह साधु महात्मा जो ऊपरी भाग में पीत अंगराग धारण किए हुए थे उनकें गले में वृंदा की लकड़ी का एक मोटे आकार का हीरा धारण था ,मस्तिष्क पर रामानन्दी त्रिपुण्ड, नाभि तक लटकती दाढ़ी ,एक हस्त में वृन्दा की मनकों की माला और उनका अधोवस्त्र स्वेताम्वर था, उनके चेहरे पर चमकता हुआ तेज उनकी तपस्या का प्रभाव स्पस्ट ओज रूप में मुझें दिखा,वह कुटिया के कपाट खोलकर वाहर निकल कर मेरी ओर ही आतें हुए दिखे और फिर मुझें देखते हुए वह मुश्कराकर बोलें।
इस पर्णकुटी में हे ! अमन्त्रितजन आपका हार्दिक स्वागत है।
मेरीं प्रथम दृष्टि उन पर पड़ी और मेरा मन उनके प्रति असीम श्रद्धा भाव से नत्मस्तक हो भर उठा।
अगले पल मैं उनकी ओर बढा और दस कदम की दूरी से उन्हें साष्टांङ्ग-दण्डवत प्रणाम किया।
उठो वत्स तुम्हारें दादागुरु कैसे है ?
उन्होनें अपनी प्रभाव शाली वाणी में प्रश्न किया।
जी महाराज वह स कुशल हैं,।
और मैं मौन होंगया था, साथ ही उन्होनें मुझ से और कोई प्रश्न पूँछना मुनासिब नहीं समझा, अतः उन्होंने मुझें उठाकर अपनें पीछें अनुशरण करनें का संकेत किया। कुछ क्षणों में उन्होंने मुझें एक अतिथि कक्ष में बैठाकर बोले।
वत्स सफ़र की थकान के कारण काफी थके दिखते हो अतः दो घड़ी विश्राम कर नें के बाद मिलूँगा।
और वह अतिशीघ्र उस अतिथि कक्ष से निकल कर अपनी उस पर्णकुटी में अंदर प्रविष्ट होंगए।
शेषांश अगले भाग में।Written By H.K.Joshi