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■ पिशाचिनी का प्रतिशोध ■ भाग 54 (पिशाचिनी सिद्धि)

18 जून 2022

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■ पिशाचिनी का प्रतिशोध ■भाग 54
           (पिशाचिनी सिद्धि)
_______________________________________________________________________________पिछले अंक में आप सभी पाठकों नें पढ़ा कि मैं आश्रम से सीधा राज नगर पैदल चलता हुआ आया, यूँ बैसे माता रानी नें मुझें कुछ एसी शक्तियाँ दे रखीं थीं कि मैं उनके माध्यम से अविलम्ब राजनगर पहुँच सकता था,पर गुरु जी और मातारानी के आदेशानुसार मुझें इन सिद्धियों का उपयोग अपनें कार्य हेतु कम से कम करना था, वह भी अपनें व्यक्तिगत हित साधने में नहीं।
इसलिए मैं आराम से दिनभर चलता रहा और मैं साँझ के बक्त राजनगर पहुँचा तो उस समय वहाँ पर द्वितीय लॉक डाउन होचुका था,सभी ओर गहन सन्नाटा था, अतः लोगों ने शुरुआत में पहिलें लॉक डाउन का पूरी तरह ईमानदारी से, साथ ही सरकार द्वारा शक्ति से पालन कराया गया था इस लॉक डाउन का , अतः परिणामस्वरूप लोग करोना की प्रथम लहर से सुरक्षित रहें थे।
 किन्तु जब द्वितीय लहर का समय शुरू हुआ तो सरकार तो चुस्त थी,पर(पब्लिक) लोग लापरवाह अधिक हो चुके थे, अतः परिणामस्वरूप लोग इसकी चपेट में आनें लगें, साथ ही ऑक्सीजन होनें पर भी कुछ लोगों ने लाभ कमाने के उद्देश्य से ऑक्सीजन की कमी का रोना शुरू कर दिया,अतः लोगोंने ऑक्सीजन सिलेण्डर की ब्लेक मार्केटिंग करनी शुरू कर दी,
इस तरह से  अधिक से अधिक लोग जिनमें बड़े,बूढ़ें, बच्चों तक नें अपनें प्राण  गबाए ,श्मशान मानों बच्चों,बूढों, और जवानों की डैड बॉडीज़ से पट चुका था, ।
कैसी विचित्रता थी यह ?
 कैसी मजबूरी थी यह ? 
कैसा भय था यह ?
सभी में कि अपनों की डैड बॉडी तक को हाथ लगानें से डर रहे थे, ? 
वह  सभी परिवारी जन।
जब मैं राजनगर श्मशान में पहुँचा तो चारों ओर श्मशान में लाशों ही लाशों की प्रज्वलित वाहिन्न शिखाओं का प्रकाश फैला हुआ था,जलतें हुए इंशानी माँस की दुर्गंध फ़ैली हुई थी, अतः मैं पल भर को निराश हो चुका था कि जिस उद्देश्य से मैं यहाँ पर आया था शायद उस को पूरा करनें में अब कुछ समय तक वाधा अथवा कोई ना कोई रकाबट आ सकती है, जबकि वह कार्य मुझें तीन दिनों के अंदर पूर्ण करना था, और आश्रम पर भी तीन दिन शेष बचें थें उस यज्ञ की पूर्णाहुति में, अतः कुल बात यह कि मेरे पासकेबल तीन दिन ही शेष थे, श्मशान की निकट भविष्य की स्थिति अभी और भी बद से बद्तर होनी थी,।
                अतः मैं एक एसे वृक्षो के निकट पहुँचा,जहाँ पर पाँच वृक्ष वट,पीपल,आम,गूलर,और जंबू फ़लदार वृक्षों का घना साथ था,वहाँ उन वृक्षों के झुरमुट के कारण अँधेरा और एकांत था,यहाँ पर साधारण दृष्टि से पाहिली नज़र में कोई मुझें वाहरी व्यक्ति आसानी से ढूंढ भी नहीं पा सकता था, अतः मैं सोच विचार के  नींचे अपना आसन जमाकर बैठ गया, यह सोंचकर कि जब लाशों का आना कम हो जाएगा तो मैं अपनीं क्रिया को आरम्भ यहीं करूँगा।
       लगभग  उस श्मशान में रात  के साढ़े ग्यारह वज़े तक लाशों का आना, और शव दाह का कार्य चलता रहा,मुझें याद है ,वहाँ बे लोग जब गए तो बारह बजे नें बालें थे,अतः उन लोगों के जानें के बाद मैं अपनीं साधना में संलग्न होंगया।
     मैंने एक प्रज्वलित कर दीप को यथा स्थान रखा,एक मृत्तिका के ढ़ेर से ऊँचे स्थान को चौकी का रूप देकर,मैंने  कामदा यक्षिणी के यंत्र को स्थापित पहिलें ही कर दिया था, अतः मैं वैष्णवी विधान से विधिवत पूजन कर, कुण्डालिनी शक्ति को जाग्रत करनें के प्रयास में रत होचुका था,इस क्रिया से पहिलें मैं मानसिक लांगुर वीर का आवाह्न रक्षा हेतु कर चुका था, जिसे मैंने एक रेखा के माध्यम से  चिन्हित करचुका था, अतः मैं पद्मासन की स्थिति में सीधा बैठकर मूलाधार चक्र को स्फुरित कर स्वाधिष्ठान चक्र में एकाग्र करता हुआ क्रमानुसार मणिपुर चक्र तक कुण्डालिनी शक्ति को  जाग्रत कर चुका था ,माता रानी की दयादृष्टि से मुझें अभीतक कोई भी वाहरी व्यवधान नहीं उपस्थित हुए थे,अतः अब आगे अनाहत चक्र की ओर  जैसे ही मेरी स्फुरणा अग्रसर हुई, अचानक मेरे समक्ष अनेक व्यवधानों की शुरआत होगई, मुझें लगा कोई मेरे पृष्ठ भाग में कोई चल फ़िर रहा है,अतः मेरा ध्यान भटकानें का कार्य शुरू हो गया था, किन्तु मुझें यह कार्य निर्धारित समयानुसार सिद्ध  करना था, अतः मंत्र जाप खेचरी मुद्रा के द्वारा स्वतः सृजित माँ की अनुकम्पा का एक वैशेष उदाहरण था, अतः मुझें निश्चिंत होकर त्राटक क्रिया में संलग्न ही रहना था, अतः वह जो कोई विघ्नकारक शक्ति थी, उसे अपना कार्य करना भी था,इसलिय मैंने उस ओर कोई तबज्जो देना ही नहीं था, अतः कुण्डालिनी शक्तिअब शनै शनै अनाहतचक्र की ओर आगे बढ़नें लगी, और जैसे ही यह शक्ति अनाहतचक्र में जाकर स्थिर हुई, मुझें लगा मेरे आसपास  अनेकों विषधर ,कालजयी, मणिधारी कृष्ण  भुजंग स्फ़ूटकार करते हुए ,दीपक पर, तो कुछ मेरे ऊपर चढ़कर मेरीं वाहों से लिपट कर अपनें पाश का शिकंजा किसनें का प्रयासरत थे।
मुझें ज्ञात था मैं जितनीं अपनीं मंजिल के करीब  पहुँचूँगा उतनीं ही विघ्न वाधाएँ बढ़ ती जायेंगीं, अतः मैं अपनें ध्यान को प्रज्वलित दीपक की शिखा पर लगाए मंत्र जाप में अग्रसर था,इस समय मुझें लगा कि मुझें थोड़ा विश्राम करना चाहिए,किन्तु मेरीं इष्टदेव स्वतः ज्योति में प्रकट होकर उन्होंनें मुझें भटकानें से बचालिया, अतः मैं अपनें मन में संकल्प कर पुनः उसी क्रिया में संलग्न होचुका था, जो होगा वह तो होगा ही,फिर किस लिए मन में ऐसे भावों को आने दूँ, यही संकल्प भावों का जब अंतर्मन में उदित हुआ तो निर्रथक भाव स्वतः ही तिरोहित हो चुके थे,मेरा पूरा बदन हल्का होचुका था, वह सभी वहाँ उपस्थित विषधर एक साथ अंतर्ध्यान हो चुके थे, अतः अब कुण्डालिनी शक्ति वहुत धीमें धीमें पल के वजाय घटी की गति से आगे स्रवित होरही थी,एक एक पल वर्षों जैसा व्यतीत हो रहा था , मंत्र जाप करतें करतें जल पीनें की इच्छा बलवती हो चली थी, अतः जल तो दूर दूर श्मशान में नहीं था,
अतः इसे विचारों को मैं नकारता हुआ क्रिया वद्ध था, और फिर पता नहीं कितनें समय के विलम्ब के साथ कुण्डालिनी शक्ति विशुद्धचक्र पर स्थिर हो चुकी थीं अचानक मुझें आभाष हुआ कि दो स्त्रियां जो पितांवरी थी उस दीपक के चारों ओर प्रदक्षिणा कर नें लगीं थीं उनके हाथ में पीत वर्ण के पारिजातक वृक्ष के प्रशून थें, वह गलें में पीत रङ्ग की मणियों की  सुंदर सुंदर मालाए पहिनें हुए थीं वेणी में सजे पीत पुष्प उनकी सुंदरता में चार चाँद बडारहे थें। वह  उस पञ्च वृक्षों के स्थान को अपनें शरीर की उठने बाली दिव्य सुगन्धित वायु सेवहाँ के वातावरण को महका चुकीं थी,किन्तु उनके चलनें फिरनें से मेरी त्राटक क्रिया में व्यवधान उपस्थित हो रहा था, मैं माता रानी से मानसिक प्रार्थना करनें लगा, ।
हे मातेश्वरी मुझें इस संकट से निकालें।
अचानक वह दोनों वहाँ से छम छम छम छम  की ध्वनि करतीं हुई एक ओर को चली गई , मेरा पथ अब एक दम प्रशस्त था, अत: कुण्डालिनी शक्ति स्वतः उर्ध्वगामी हो कर आज्ञाचक्र की ओर तेजी से उठानें लगी थी। शेषांश आगे।
Written By H.K.Bharadawaj
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