■ पिशाचिनी का प्रतिशोध ■ भाग 52
( पिशाचिनी सिद्धि)
______________________________________________________________________________अमरप्रताप आकांक्षा सिंह के नग्न अचेत शरीर को अपनीं वाहों में उठा कर पलँग की ओर बड़ा ही था और अगलें पल उसनें कक्ष में बिछे पलँग पर जैसे ही आकांक्षा सिंह को लिटाया ,ठीक उसी बक्त किसी काली छाया नें उसे एक जोर का जबर्दस्त धक्का दिया फलस्वरूप वह चक्कर खाता हुआ जमीन पर गिर पड़ा , और अगलें पल वह छाया आकांक्षा सिंह पर झुककर कुछ अस्फुट मंत्र बुदबुदाती रही,।
लगभग दस मिनट तक वह यूँ ही मन्त्र बुदबुदा ती रही, फलस्वरूप आकांक्षा सिंह नें अपनी दोनों आँखें खोल दी ,वह अपनें ऊपर झुकी एक काली छाया को देख जोर से चींखती हुई उठ
नें को हुई,।
ठीक उसी समय उस छाया नें आकांक्षा सिंह की ओर बढ़ते हुए घर्घ्राती हुई आबाज़ में कहा।
आओ प्रिय मेरीं आँखों में देखो।
अगलें पल आकांक्षा सिंह किसी जादुई प्रभाव से उसकी आँखों में देखती रही।
मैं कौन हूँ ?
उस छाया नें अपनीं घर्घ्राती आवाज में आकांक्षा सिंह से पूँछा।
आप ....आप... मेरे स्वामी हो।
आकांक्षा सिंह नें आँखे बंद किये ही बुदबुदाया।
तुम्हें पता है मैं तुम सेइस समय क्या चाहता हूँ ?
वह पुनः बोला।
वही जो एक पति अपनी पत्नी से पलँग पर चाहता है।
आकांक्षा सिंह आँखें बंद किए बुदबुदाती चली गई।
और फिर अगलें पल वही वासनात्मक खेल की पुनरावृत्ति होनें लगी थी, मज़े की बात यह थी कि अब आकांक्षा सिंह की ओर से कोई विरोधात्मक प्रतिक्रिया नहीं देखी गई, वह ठीक उसी अबस्था में बिस्तर पर पड़ी हुई उस छाया का लगातार सहयोग करती रही थी,।
मुझें आकांक्षा सिंह को इसतरह देखकर आश्चर्य हुआ, कि वह कोई उसका प्रतिरोध क्यों नहीं कर रही है?
उसकी श्वाशों में गजव का तूफान आया लगता था,जिसकी परणति उसके दोनों कुच साधारण अवस्थामें समानाकार से वह अब पीन पयोधर होकर कुचाग्र भाग का आकार दो,तीन गुना होचुका था,लगता था शायद यह सब वह अपनी इच्छा से कर रही थी ? इसीलिए वह प्रतिरोध नहीं करना चाहती हो,उल्टा वह उस छाया के साथ वरावर सहयोग करती ही जारही थी।
किन्तु मेरे मन में उस समय जिज्ञाशा अति प्रबल हो चुकी थी कि वह धुँधली छाया आख़िर कौन है?
मैं पहिलें की भाँति कक्ष के गवाक्ष से सेट किए कैमरें के माध्यम से लगातार उस कक्ष की एक्टिविटी पर नजर रखें था,किन्तु उस नक़ाब पोश का चेहरा देखनें के प्रयास में लगातार प्रयास रत था।
अमरप्रताप कक्ष में विछी हुई दरी पर उसी अचेतावस्था में पड़ा हुआ था,।
लगभग एक घण्टे तक वह वासनात्मक खेल चला होगा, और जब दोनों चरमसुख पर पहुँचें तो वह छाया फुर्ती से उसके ऊपर से उठखडी हुई और अगलें पल वह ठीक उसी तरह गायव भी होचुकी थी ,जैसे अमरप्रताप का वह विश्वास पात्र सेवक मेरे देखते देखते गायब हो चुका था।
मैंने देखा आकांक्षा सिंह को उस छाया के चले जाने के बाद होश आया, वह दर्द से कराहती हुई करबट बदलकर उठानें लगी, उसनें अतिशीघ्र अपनीं नाइटी पहिनी और पलँग पर शायद कुछ तलाशने लगी।
कुछ देर वाद वह बोली।
बाबूजी आप कहाँ हैं।
किन्तु कोई उत्तर ना पाकर वह स्वयं अपनें पलँग से उठी, और अमरप्रताप के निकट जाकर उसे होश में लानें का प्रयास करनें लगी।
लगातार जल के छींटे मारने से अमरप्रताप की तन्द्रा टूट गई , वह आकांक्षा सिंह को देखकर बोला।
वह कहाँ गया?
कौन ?
वही जो तुम्हारें साथ हर रात को होता है।
क्या कहरहे हैं बाबूजी?
वह आश्चर्य से उसे देखती हुई बोली।
वही जो मैं रोज देखता हूँ।
बाबूजी आपको अपनी पत्नी पर विश्वास नहीं।
ठहरों ......अमर, कोई डिसीज़न लेने से पहिले इतना समझ लो ,की मैं भी यहाँ उपस्थित हूँ।
मैं दोनों के बीच हुई लड़ाई को शांत करने के उद्देश्य से बोला।
आओ दोश्त अब तुम्हीं मेरीं समस्या का समाधान कर सकते हो।
वह मेरीं ओर देखता हुआ बोला।
प्रिय मित्र जैसा तुम सोच रहे हो ,बैसी यह समस्या नहीं है ,आओ मेरे साथ, मेरे कक्ष तक चलो।
मेरी उपस्थित देख कर आकांक्षा सिंह पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा, मैं ध्यान से उनके चेहरे को देखरहा था।
अतः मेरी बात सुनकर मेरा मित्र अमरप्रताप चौहान तेजी से उठकर मेरी ओर बड़ा, अगलें पल हम दोनों मित्र शोर्टकट रास्ते से अपनें कक्ष में पहुँचे।
अमरप्रताप ने मेरे हाथ में लगा विशेष कैमरा ले लिया और उसमें बनी विडिओ को आश्चर्यचकित हो कर देखनें लगा।
मैं समझ चुका था वह कोई शक्ति शाली व्रह्म राक्षस था जो आकांक्षा सिंह के साथ पतिपत्नी की भाँति सम्बन्ध रखता था, किन्तु वह गोपनिय रूप से जुड़ा हुआ था।
मित्र इसमें तो कुछ भी नहीं स्प्ष्ट होरहा है।
हाँ मित्र इसे समझना टेढ़ी खीर है।
पर इसमें मुझें ऐसा लगरहा है कि कोई मुझें धकेल रहा है।
जी हाँ तुम्हारा विचार एक दम सही है।
पर यह आकांक्षा को क्या हो रहा है जो बिना किसी पुरुष के संसर्ग जैसी स्थिति में उछल रही है।
मित्र यह जो रति क्रिया का दृश्य तुम देख रहे हो, वह सब आकांक्षा भावी की ओर से ही क्रियेटिड है,।
इसका मतलब साफ है, वह तुम्हें ही उस छाया को समझ रही है।
ओह ! माई गॉड, यह सब यह सब.....मेरे ही साथ क्यों होता है।
मित्र क्या तुम मुझें अपनी शादी के पहिली रात की बात स्मरण कर बता सकतें हो।
हाँ ....हाँ... अवश्य ,उस मनहूस रात को मैं भला कैसे भूल सकता हूँ, वह रात....।
बोलते बोलतें अमरप्रताप एक झुरझुरी लेता हुआ चुप होर सोचनें लगा।
याद करो मित्र, और ध्यान रहें कोई भी ऐसी घटना जो तुम्हें असहज लगी हो उसको भी यादकर बताना।
लगभग दस मिनट तक वह सोचता रहा फिर बोला।
उस रात मैं जब आकांक्षा के कक्ष में दाख़िल हुआ तो आकांक्षा का व्यबहार बदला हुआ था, उसकी आँखों से मानों आग निकल रही थी, उसनें किसी मर्द की आबाज़ में मुझें घूरते हुए कहा।
अगर अपनी भलाई चाहता है तो मेरीं महबूबा से दूर रहना, बरना जिंदगी भर पश्चतायेगा ।
मैने देखा वह अगलें पल खिलखिला कर हँसी।
अरे बाबूजी आप कब आये।
उसने मुझसेपुनः नार्मल आबाज़ में पूछा।
मैं अमरप्रताप की कहांनी ध्यान से सुन रहा था,अतः वह मेरीं ओर देखकर चुप होंगया।
मित्र तब तुमनें भावी जी के इस व्यबहार का कोई कारण पूछा।
नहीं, मैं जानता था कि वह मुझसे मज़ाक कर रही है।
फ़िर आगे का हाल बोलो।
जैसे ही आकांक्षा दूध लेकर मेरे नजदीक आई पता नहीं कोई काली छाया उसके हाथ से दूध झपटकर पी चुकी थी,अगलें पल उसनें खाली पात्र ज़मीन पर गिरा दिया।
मैं उस छाया को वस एक मात्र घूरता हुआ देखता रहा, उसनें मेरीं आखों के सामनें उस से सम्बन्ध बनाये, मैंने उसका प्रतिरोध किया किन्तु वह मुझें धक्का देकर पलँग से दूर कर देता था।
वह गहरी श्वांश खींचता हुआ बोला।
क्या यह सिलसिला कभी फिर भी हुआ।
मैंने उस से पूँछा।
मित्र यह सिलसिला अब भी जारी है।
फिर वह तुम्हारा पुत्र जो बरेली में नर्सिंग होम में पैदा हुआ था वह ?।
वह वह वह अब मैं आप को क्या बताऊँ मित्र।
अमरप्रताप लज्जा से सिर झुका कर चुप हो गया।
मेरा अनुमान लगभग सही था, वह संतान आकांक्षा सिंह और उस व्रह्म राक्षस से उतपन्न थी।
ओह माई गॉड, तो यह है असली जड़।
मैंने मन में विचार किया,।
":पहिले इसी जड़ को हटाना है।"
अतः मैं अब सोने का विचार बनाने लगा था, मैंने अमरप्रताप से कहा।
कल प्रातः काल जब आकांक्षा जब अन्य कार्यों में व्यस्त हो तो मुझें तुम्हारें कक्ष की तलाशी लेनी होगी, ध्यान रहें उस समय कोई भी व्यक्ति तुम्हारे सिवाय कोई ना हो।
मैंने अमरप्रताप को धीरे से समझाया।........शेषांश आगे।
Written By H.K.Bharadawaj