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■ पिशाचिनी का प्रतिशोध ■ भाग 51

4 जून 2022

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■ पिशाचिनी का प्रतिशोध ■ भाग 51 
           (पिशाचिनी सिद्धि)
______________________________________________________________________________अर्द्ध रात्रि का समय हो चुका था, सभी हबेली के रात्री की ड्यूटी के कर्मचारी  अपनीं अपनीं ड्यूटी पर पूरी तरह सलंग्न हो चुकें थे।,
              इस समय पूरी हबेली में एक दम सन्नाटा छाया हुआ था, बैसे भी हबेली में इस समय जो भी सदस्य थे वह अपनें अपनें शयन कक्ष में आराम से निद्रादेवी की शरण में थें, अचानक मैं जिस कमरें में शयन कर रहा था,किसी नें उस कक्ष की बाहर से कुंडी खटखटाई, अगलें पल मैं सजग होकर अपनीं जगह पर उठ खड़ा हुआ और मैंने कक्ष का द्वार खोल कर  देखा,।
 मेरे सम्मुख अमरप्रताप का वही विश्वास पात्र सेवक वहाँ पर अपनें हाथ में कुछ लिए खड़ा हुआ दिखाई दिया था।
 जब तक मैं उस से कुछ पूँछतांछ करता ,उसनें बिना कुछ बोलें अपनें हाथ में पकड़ा हुआ सामान का पैकिट मेरी ओर बढ़ाया।
मैंने जैसे ही पैकिट हाथ में लिया और उस से अगलें पल कुछ पूँछनें को हुआ कि वह वहाँ से पल भर में गायव हो चुका था।
हे, भगवान ! यह कहाँ और कैसे पल भर में अंतर्ध्यान हो गया।
मैं अपनें चारों ओर उसे खोजी नज़रों से देखता हुआ आश्चर्य से बोला।
किन्तु उसका वहाँ कहीं भी कोई उसके वहाँ पर मौजूद होनें का कोई चिन्ह अथवा  उसकी गतिविधि का कोई सूत्र भी मुझें नहीं मिला।
अतः मैं पुनः अपनें कक्ष की ओर वापिस मुड़ा ही था कि अचानक किसी नें मेरे हाथ को पीछे से पकड़ा।
अगलें पल मैं चिहुँक पड़ा।
अरे यार तुम आदमी हो अथवा भूत।
मेरे मुहँ से उसे अनायास देखकर निकला, किन्तु वह मेरे बोलतें ही उसनें मुझें संकेत के माध्यम से चुप रहनें का इशारा कर अपनें पीछें पीछे आने का संकेत  दिया,और अगलें पल मैं अपनें मित्र के सेवक के साथ  सजग होकर साथ साथ चलनें लगा, लगभग पाँच मिनट हम एक तहख़ाने के रास्ते  बिना पदचाप किया आगे बढ़ते हुए हम आकांक्षा सिंह के कक्ष  के नज़दीक खुलनें बाली गैलरी नुमा हॉल में पहुँचे,और इसी के साथ उस सेवक नें मुझें इशारे से बताया कि यही कमरा बड़ी मालकिन का है,अतः वह अब आपके साथ नहीं जा सकता है,अब आपकों स्वयं आगे बढ़ना है।
      अतः मैं कुछ मिनट  अपनीं बनाई स्कीम के बारे में विचार करता रहा,ततपश्चात मैं अपनीं रिस्टवाच पर एक उचट ती दृष्टि डालता हुआ कक्ष के दक्षिणी गवाक्ष की ओर बड़ा, जैसा कि मेरें मित्र अमरप्रताप चौहान नें मुझें बताया था, अगलें पल में शांत, बिना आवाज किए ,उस गवाक्ष की ओर बड़ा ,और एक पल अंदर से आनें बाली आहट को सुनने के प्रयास में संलग्न रहा,।
 अभी तक मुझें कोई भी किसी प्रकार की आहट आकांक्षा सिंह के कमरे के अंदर से,साधारण अथवा संदिग्ध गतिविधियों का आभास तक नहीं हुआ, मैंने अगलें पल हाथ डालकर गवाक्ष के अंदर लगी चिटकनी को हल्के से पुश किया,और हिलाया, अगलें पल वह चिटकनी स्वतः ही नींचे हल्की खट की आवाज के साथ गिर चुकी थी।
             अब मैं पूरी तरह सतर्क और चौकन्ना था, साथ ही अपनी योजना के अंतर्गत कार्य करनें लगा, अभी मैं गवाक्ष  के नज़दीक श्वांश रोकें कुछ पल यूँ ही खड़ा रहा। मेरीं पैनी नज़र नें पल भर में कमरे के अंदर सर्बे कर लिया था।
         इस समय आकांक्षा सिंह अपनें पलंग पर एक हल्की फुल्की पारदर्शी नाइटी पहिनें हुई दिखाई दे रही थी, उस नाइटी में उसके खूवसुरत पुष्ट और सुडौल अंगों की नुमाईश होरही थी। उसकी आँखों में अभी तक निन्द्रा पूरी तरह आच्छादित  नहीं हो पाई थी अतः पति अमरप्रताप की अभी तक ना आनें के कारण उसकी दोनों आँखें नींद से बोझिल हो चुकीं थी।
मैंने एक उचटती सी दृष्टि अपनीं रिस्टवाच पर डाली, और वायदे के मुताबिक मैं खिड़की के नज़दीक खड़ा अगली प्रतीक्षा अपनें मित्र की कर रहा था, ताकि मैं उसकी बातों की सत्यता की जांच कर सकूँ।
अचानक हबेली के अंदर एक बजने की घण्टें की आवाज़ मुझें सुनाई दी, और अब मेरीं पूर्णतया नजरें  आकांक्षा सिंह के ऊपर टिकीं थी,ठीक एक बजकर तीन मिनट  पर मेरा मित्र अपनी पत्नी के शयन कक्ष में  झूमता हुआ दाख़िल हुआ।
वाबूजी आज आप शराब पीकर,मेरें कक्ष में दाखिल हुए हैं।
आकांक्षा सिंह नें अमरप्रताप को देखतें ही टोका।
सॉरी यार मैं  क्या करूँ, मैं तुम्हारीं वेवफ़ाई बर्दाश्त नहीं करसकता।
वह सीरियस आवाज में बोला।
वाबूजी मैं सिर्फ़ आपकी हूँ, हमेशा आपकी रहूँगी।
आकांक्षा सिंह पलँग से नीचे उतरती बोली।
यह बात आकांक्षा अब तुम्हारें मुहँ से अच्छी नहीं लगती।
अमरप्रताप चौहान नें आकांक्षा को अपनें नज़दीक से परें धकेला।
वह डिसबैलेंस होनें पर  कमरें में नींचे बिछी कालीन पर गिरी,किन्तु अमरप्रताप नें उसकी ओर कोई तबज्जो नहीं की।
वाबूजी आप मेरा दोष बताए बिना ही मुझें सजा दे रहें हैं।
मैं तुम्हारीं इस कमनीय काया के मोह पास में नहीं आऊँगा।
अमरप्रताप नें घृणा से उसकी ओर से मुहँ फेर लिया था।
वाबूजी मेरे पिता नें जिस दिन से  मेरे जीवन की डोर आपके संग बाँध दी, वस उसी दिन से मैं आपकी सेवामें हूँ, फिर आप से मैंने कैसे वेवफ़ाई की।
आकांक्षा लगभग अमरप्रताप के पैरों से लगी रोनें लगी थी,
ठीक है,क्या तुम अपनी वफ़ा का सवूत पेश करोगी।
जी आप जो बोलोगें मैँ करूँगी।
ठीक है,आओ मेरे साथ,।
अमरप्रताप आकांक्षा सिंह का हाथ थाम कर बोला।
आकांक्षा किसी वेल की तरह अमरप्रताप से लिपट चुकी थी,और अगलें पल अमरप्रताप उसे अपनीं पलँग की जीनत बना चुका था,वह उसके कपोलों, ,चिवक,और लंबी सुराइदार गर्दन पर चुम्वनों की बौछार करता हुआ, अपनीं योजना की ओर अग्रसर था, आकांक्षा भी उसके फोरप्ले से एकदम समर्पित हो चुकी थी, अतः अगलें पल वह आकांक्षा सिंह को निर्वस्त्र कर चुका था, मेरें द्वारा लगाए उस शक्तिशाली कैमरे में अब तक की सभी गतविधियाँ पूरी तरह कैद हो चुकीं थीं, अतः मेरीं नजरें अब इस से आगे नहीं देखना चाहतीं थीं, इसलिए मैं अब अपनीं नज़र उसकमरे के सीन से
अलग कर चुका था कि अचानक मेरे कानों में पलँग से  किसी केनीचे गिरने की आवाज़ सुनाई दी।
मैंने देखा आकांक्षा पलँग पर नग्न अवस्था में बेहोश पड़ी थी, उसका पति अमरप्रताप चौहान ज़मीन पर गिरा हुआ था, और एक पन्द्रह सोलह वर्ष का युवक आकांक्षा के ऊपर छाया हुआ था,।
ठहर जा दुष्ट,।
मैंने उस छाया को ललकारा।
अगलें पल वह छाया अचानक मेरे देखते देखते ही गायव हो चुकी थी।
अमरप्रताप हरिअप, जल्दी से भावीजी के बस्त्रों को ठीक कर उन्हें देखो.......शेषांश आगे।
Written by h.k.bharadawaj
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