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पृशा

16 सितम्बर 2021

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हर रोज की ही तरह उस दिन भी वह पार्क में लगी एक बेंच पर अकेली बैठी थी। सूर्यास्त होने को था और आसमान लाल रंग की झीनी चादर ओढ़े बहुत ही खूबसूरत दिख रहा था। गंगा के किनारे बना यह पार्क इस वक्त गंगा आरती की दिव्य ध्वनियों और अपने-अपने घोसलों की ओर जाते पक्षियों के कर्णप्रिय कलरव से गुंजायमान हो उठा था। बच्चे अब भी अपनी ही मस्ती में खेल-कूद रहे थे। शहर के बीचों-बीच बना यह पार्क, बच्चे, बूढ़े और युवा, सभी के लिए इस भागते से शहर में प्रकृति का सामिप्य प्राप्त करने का बेहतरीन उपाय था। पार्क के पास ही गोविंद देव जी का एक सुंदर मंदिर भी था। संध्या समय में मंदिर में बजते घंटों और गंगा आरती के मधुर स्वर से पूरा वातावरण एक दिव्य ऊर्जा से भर उठता था।

वह एकटक ढलते सूरज को देख रही थी। उसकी गहरी आंखों में एक सूनापन सा झलकता था। ऐसा लगता था मानो उनमें कोई बहुत गहरी वेदना समाहित हो। इतनी कम उम्र में ऐसा कौन सा दर्द था जो वह अपने अंदर छिपाए बैठी थी। मुस्कुराता हुआ सूरज अब अपनी लाल आभा समेटे ढल चुका था। उसने अपना छोटा सा स्लिंग बैग उठाया और अभी जाने के लिए मुड़ी ही थी कि पीछे से किसी ने आवाज़ लगाई।

"पृशा!"

वह चौंक उठी। इस शहर में उसे इस नाम से भला कौन जानता है!? उसने पलटकर देखा तो उसकी ही उम्र का एक लड़का बैसाखियों के सहारे उसकी ओर बढ़ रहा था। उसके चेहरे पर आए अपनत्व के भाव उसके पृशा के बहुत करीबी होने की चुगली कर रहे थे।

करीबी ही तो था वह। बरसों पुरानी पहचान थी उसकी पृशा से। शायद तब से जब से पृशा ने खुद को जाना था। वही सुनहरे बाल, वही मासूम सी कत्थई आंखें जो उसके निष्पाप होने की गवाही देती थी, गोरा रंग, पतले गुलाबी होठ, हष्ट पुष्ट शरीर, सब कुछ वैसा ही तो था। हां, सुबोध ही तो था वह। उसका सुबोध....उसका सबसे अच्छा दोस्त, सुबोध।

"सु...सुबोध!...तुम यहां!!"

वह अब तक करीब आ चुका था। खुशी से उसकी आंखें इस तरह चमक रही थी मानो उसे कोई बरसों पुराना खोया हुआ खजाना वापिस मिल गया हो। उसने उसे गले लगा लिया और फिर खुद से थोड़ा अलग करते हुए उसे देखकर हंसने लगा और फिर पुनः गले लगाकर फूट-फुटकर रोने लगा। वह बहुत कुछ कहना चाहता था पर खुशी के मारे उसके मुंह से शब्द नहीं फूट रहे थे। होंठ हिल रहे थे पर बोल आंखें रही थी।

"कैसे हो?", पृशा ने उसे खुद से अलग करते हुए पूछा। उसके प्रश्न में आश्चर्य मिश्रित था।

"ठीक हूं और तुम?" बहुत देर तक चुपचाप उसके चेहरे के भावों को पढ़ते रहने के बाद उसने खुद को थोड़ा संयत करते हुए पूछा।

"मैं भी। तुम यहां कैसे?"

"हां वो मैं....अब मेरे पैर नहीं रहे ना तो आश्रम वालों ने मुझे यहां आशादीप आश्रम में भेज दिया है, जो मेरे जैसे अनाथ दिव्यांगों के लिए ही बना है। और देखो अच्छा ही हुआ। मुझे यहां आए अभी दो दिन भी नहीं हुए और तुम मिल गई मुझे।", उसने चहकते हुए कहा।

"ओह!...तुमने मेरे कारण बेवजह ही अपना नुकसान कर लिया।"

"ऐसा कहकर मेरी दोस्ती को छोटा ना करो पृशा। मैने तुममें और मुझमें कभी कोई फ़र्क समझा ही नहीं है।"

उनकी पनीली आंखों से एक-दूसरे के लिए दर्द आंसू बनकर लुढ़क पड़े थे।

"तुम यहां पार्क में अकेले आए हो?"

"नहीं आश्रम के दूसरे बच्चों और वार्डन के साथ। वो रहे वे लोग।" उसने उंगली से बच्चों के एक झुंड की तरफ इशारा करते हुए कहा।

"अच्छा।"

"तुम्हे पता है, मुझे बहुत गुस्सा आया था उसके बारे में जानकर कि वह अब और भी ज़्यादा शक्तिशाली हो गया है।" उसने धीरे से पृशा के कान में फुसफुसाते हुए कहा।

"मुझे भी। लेकिन तुम चिंता मत करो आज उसका दिन है। कल हमारा भी आएगा। सही वक्त का इंतजार करो, जैसे मैं कर रही हूं पिछले पांच सालों से। जिस दिन भी मौका मिला, मैं उसे नहीं छोडूंगी।", उसने  अपने कंधे पर झूल रहे स्लिंग बैग की चेन खोलकर आहिस्ता से उसे इशारा कर कुछ दिखाते हुए कहा।

"वाह! तुमने तो पूरी तैयारी कर रखी है।", उसने धीरे से बैग के अंदर झांकते हुए कहा। उसकी आंखें आश्चर्य से फटी की फटी रह गई थी।

"ठीक है फिर, अब मैं भी तुम्हारे साथ हूं।" उसने पृशा के कंधे पर हाथ रख उसे आश्वस्त करते हुए कहा।

दोनों की आंखों में एक शैतानी चमक थी। ऐसा मालूम होता था मानो किसी भयानक घटना को अंजाम देने की योजना बना रहे हों।

"अच्छा अब मुझे जाना होगा। बाद में मिलती हूं तुम से।"

"हां ठीक है। हम यहीं पार्क में हर रोज मिला करेंगे। तुम आओगी ना?"

"हां, मैं यहां रोज आती हूं। उस ढलते हुए सूरज को देखने। उसमें मुझे वह दिखाई देता है। मुझे विश्वास है, एक वक्त आएगा जब उसे भी इस तरह अस्त होना होगा।"

"हां ज़रूर आएगा।" उसने मुस्कुराते हुए कहा।

"बाय।"

"बाय। अपना ध्यान रखना। मैं कल तुम्हारा इंतजार करूंगा।"

"हम्म।", उसने सर हिला दिया।

वह जा रही थी और सुबोध वहीं खड़ा उसे तब तक देखता रहा जब तक कि वह उसकी आखों से ओझल ना हो गई।

******************

"तुम दोनों कब से काम कर रहे हो वहां?"

"मैडम जी... बस साल भर हुए हैं।", राजू ने कहा।

"अच्छा, तो तुम्हारे पहले कौन काम करता था वहां, कुछ पता है तुम दोनों को।"

"ज..जी....जी मैडम जी, वो....."

"चुप कर तू...तुझे समझाया था ना कि अपना मुंह बंद रखना। अ..आ..कुछ नहीं मैडम जी ये औरत तो पागल है। इसकी बातों पर ध्यान मत दीजिए आप। ह...हम...हम नहीं जानते कि पहले कौन काम करता था।", उसने रत्ना के वाक्य को बीच में ही काटते हुए कहा।

"तुम दोनों ज़्यादा होशियार बनने की कोशिश मत करो। सब सच-सच बताओ वरना अभी दो डंडे पड़ेंगे ना तो सब सच बाहर आ जाएगा।", सब इंस्पेक्टर शिवानी ने उन्हें धमकाते हुए कहा।

"न..नहीं...नहीं मैडम जी। हमारा विश्वास कीजिए, हमने कुछ नहीं किया है। इसको तो ऐसे ही बड़बड़ाते रहने की आदत है। हमने आपसे कहा ना इस जाहिल औरत की बातों पर ध्यान मत दीजिए।", उसने मिमियाते हुए कहा।

"अच्छा, तो अभी भी होशियारी दिखानी है। लगता है तुम ऐसे नहीं मानोगे। बलबीर, बंद कर दो इन दोनों को लॉकअप में।"

"अरे न...नहीं मैडम जी, ऐसा मत करिए। हम बताते हैं आपको।", रत्ना ने हाथ जोड़ते हुए कहा।

"हम्म....तुमसे ज़्यादा समझदार तो तुम्हारी जोरू है। तुम इसे जाहिल कह रहे थे! हां तो बताओ रत्ना, क्या कह रही थी तुम?" सब इंस्पेक्टर शिवानी ने राजू की ओर देखते हुए कहा।

"जी दरअसल हमसे पहले वो मनोहर और उसकी  जोरू वहां काम करते थे। उन दोनों का मेमसाहब के साथ कुछ झगड़ा हुआ था। तो मेमसाहब ने उनको निकाल दिया और एक महीने की पगार भी काट ली। इसी से वो दोनों मेमसाहब के खून के प्यासे हो गए थे।", रत्ना ने अंतिम वाक्य फुसफुसाते हुए कहा।

"मतलब?"

"अरे हां मैडम जी, उन दोनों ने जाते-जाते जान से मारने की धमकी दी थी मेमसाहब को। अब औरत के लिए तो उसका पति ही सब कुछ होता है ना तो मेमसाहब से बदला लेने के लिए मार दिया होगा साहब को।"

राजू अब भी रत्ना को गुस्से से आंखे तरेरकर देख रहा था। रत्ना इससे बेखबर तोते की तरह बोले जा रही थी।

"हम्म...इसके अलावा तुम दोनों को और किसी पर शक है?"

"एक बात और है मैडम जी, ये साहब का बाहर किसी के साथ तो चक्कर था। हम एक बार साहब को फ़ोन पर बतियाते हुए सुने थे। मेमसाहब का भी तो इसी बात को लेकर झगड़ा होता था साहब से।", उसने एक बार फिर फुसफुसाते हुए कहा।

"अच्छा! किसके साथ चक्कर था, कुछ पता है? तुमने देखा है उसे?"

"नहीं मैडम जी, हम कहां से देखेंगे।"

"हम्म...ठीक है अब तुम दोनों जा सकते हो जब जरूरत होगी, फिर बुला लेंगे। और हां तुम! ज्यादा चालाकी दिखाने की कोशिश की या घर जाकर अपनी जोरू को कोई उल्टी-सीधी पट्टी पढ़ाने की कोशिश की तो बुरी तरह फंसोगे दोनों। तुम्हारी भलाई इसी में है की जो पूछा जाए उसका ठीक-ठीक ज़वाब दो।"

"ज...जी मैडम जी।", राजू ने हाथ जोड़ते हुए कहा।

"पता नहीं जब भगवान बुद्धि बांट रहे थे तो ये औरत सबसे पीछे खड़ी थी क्या। कितनी बार समझाया पुलिस वालों की ना दोस्ती अच्छी और ना दुश्मनी। हम  वहां जाकर कुछ नहीं कहेंगे। हमें नहीं पड़ना ये सब कोर्ट कचहरी के मामलों में। पर इसकी तो अक्ल घुटने में है ना। हमारे ही कर्म खोटे थे जो इसको ब्याहकर ले आए।"

राजू ने रत्ना का हाथ पकड़ा और गुस्से में धीरे-धीरे बड़बड़ाते हुए वहां से निकल गया।

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"शरीर को आंतरिक या बाह्य रूप से कोई चोट नहीं पहुंचाई गई है।", डॉक्टर प्रिया ने कहा।

"ये कैसे हो सकता है डॉक्टर प्रिया!? तो फिर इसकी मौत कैसे हुई?", इंस्पेक्टर अभिमन्यु ने पूछा।

"मौत का कारण सांस का रुकना है। ऐसा हो सकता है कि किसी ने तकिये से मुंह दबाकर हत्या की हो। लेकिन इस बात की पुष्टि भी तभी संभव है अगर हत्यारे के फिंगरप्रिंट्स के साथ वो तकिया मिल जाए।"

"तो क्या किसी के फिंगरप्रिंट्स मिले हैं?" अर्जुन ने पूछा।

"नहीं, यही तो मुश्किल है कि लाश के पास से जिन समानों के सैंपल मिले हैं उनमें केवल मृतक की ही उंगलियों के निशान हैं।"

"मतलब इस केस में अब तक भी कोई सुराग नहीं मिल पाया है।", अर्जुन ने निराश होते हुए कहा।

"अफसोस, पर अभी तक तो यही लग रहा है। ये हत्या है या ख़ुदखुशी ये फ़र्क करना भी मुश्किल मालूम होता है।", डॉक्टर प्रिया ने कहा।

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रात के ग्यारह बज रहे थे। उसने अपनी जेब से चाभी निकाली और दरवाजा खोलकर इस तरह दबे पांव घर में घुसा जैसे कोई चोर घुसा हो। धीरे से जूते उतारे और सीधा पीहू के कमरे की तरफ गया। पीहू हाथ में उपन्यास लिए गहरी नींद में सोई थी। उसने वहीं सिरहाने बैठकर उसके माथे को चूमा और फिर धीरे से किताब निकालकर बेड के पास लगी टेबल पर रख दी। कमरे में एसी चल रहा था, और वह अपने हाथ-पैर मोड़कर इस तरह सिकुड़कर सो रही थी जैसे उसे ठंड लग रही हो। अर्जुन ने उसके पैरों के पास पड़ा कंबल उसे ओढ़ा दिया और एसी का तापमान भी बढ़ा दिया।

फिर कुछ देर वहीं सिरहाने बैठा प्यार से उसे देखता रहा। थोड़ी देर बाद उसने कमरे की लाइट बंद की, धीरे से दरवाज़ा लगाया और बाहर हॉल में आ गया। दिन भर की थकान उतारने के लिए कपड़े बदलकर वह किचन की तरफ गया और थोड़ी ही देर में व्हिस्की की बोतल, बर्फ और कांच के ग्लास के साथ पुनः हॉल में आ गया।

दो पेग लगाने के बाद वह किसी तस्वीर के सामने जा खड़ा हुआ और काफी देर तक वहीं खड़ा ना जाने तस्वीर से क्या-क्या बातें करता रहा।

कासनी रंग की साड़ी में तस्वीर में वह औरत बला की खूबसूरत लग रही थी। गेहुंआ रंग, बड़ी-बड़ी काली आंखें, कमर तक लहराते लंबे बालों में वह औरत साक्षात अप्सरा लग रही थी।

अर्जुन उस औरत की तस्वीर से बातें करता हुआ कब वहीं लगे सोफे पर लुढ़क गया उसे पता ही नहीं चला।

क्रमश:


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रचनाएँ
धर्मो रक्षति रक्षितः
5.0
यह कहानी है एक धर्मयुद्ध की।

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