पुराणों में अमेरिका, आस्ट्रेलिया
१. पौराणिक भूगोल-इसमें विश्व के मुख्यतः २ प्रकार के खण्ड हैं-(१) ७ द्वीप और ७ सागर, (२) देव लोक तथा ७ तल। उत्पादक यज्ञ रूप में पृथ्वी को गौ कहा गया है। गौ पशु, पृथ्वी या गोलोक उत्पादक यज्ञ हैं जिनके ३ खण्ड हैं-निर्माण स्थान, निर्माण क्रिया या गति, स्रोत। गोलोक या वेद वर्णित कूर्म (शतपथ ब्राह्मण, ७/५/१/५, ताण्ड्य महाब्राह्मण, ११०/१०/११-१२) में ब्रह्माण्ड रूपी विराट् बालक का जन्म हुआ है (ब्रह्मवैवर्त पुराण, प्रकृति खण्ड, ३/१-१६)। पृथ्वी रूपी गौ मनुष्य के लिये सभी अन्न, खनिज, जल, वायु का स्रोत है। गौ के ४ स्तनों की तरह इसके ४ समुद्र हैं-स्थलमण्डल (जिनसे खनिज का दोहन होता है-राजा पृथु के समय विकास, कूर्म अवतार में समुद्र मन्थन), जलमण्डल (समुद्र, वर्षा, पेय जल), जीवमण्डल-गौ आदि पशु, ओषधि-वनस्पति जिनसे अन्न मिलता है), वायुमण्डल (श्वास, वर्षा, वृक्ष तथा पशु का जीवन)।-
पयोधरीभूत चतुः समुद्रां जुगोप गोरूपधरामिवोर्वीम् (रघुवंश, २/३)
इमे लोका गौः। (शतपथ ब्राह्मण ६/५/२/१७, ६/१/२/३४)
धेनुरिव वाऽइयं (पृथिवी) मनुष्येभ्यः सर्वान् कामान् दुहे माता धेनुर्मातेव वाऽइयं (पृथिवी) मनुष्यान् बिभर्त्ति। (शतपथ ब्राह्मण २/२/१/२१)
(१) द्वीप-सागर भाग-७ द्वीप हैं-जम्बू द्वीप (एशिया), प्लक्ष द्वीप (यूरोप), कुश द्वीप (विषुव के उत्तर का अफ्रीका), शाल्मलि द्वीप (विषुव के दक्षिण का अफ्रीका), शक द्वीप (शक या स्तम्भ आकार के ३०० प्रकार के युकलिप्टस वृक्ष, भारत के अग्नि कोण में होने से अग्नि या अंग द्वीप, या सुवर्ण द्वीप-वायु पुराण, ४८/१४-१६), क्रौञ्च द्वीप (उत्तर अमेरिका, उड़ते क्रौञ्च पक्षी जैसा नक्शा), पुष्कर द्वीप (दक्षिण अमेरिका)। समतल कागज पर नक्शा बनाने में गोल सतह का २ वृत्त रूप में नक्शा बनता है, अतः जैन ज्योतिष में २ सूर्य, २ चन्द्र आदि का बाद में भ्रम हो गया। इसके अतिरिक्त विषुव से दूर होने पर नक्शा बड़ा होने लगता है, ध्रुव विन्दु तक अनन्त आकार हो जायेगा। उत्तरी ध्रुव जल भाग है (आर्यभटीय, ४/१२, लल्ल का शिष्यधीवृद्धिद तन्त्र, १७/४) अतः वहां कोई समस्या नहीं है। किन्तु दक्षिण ध्रुव स्थल भाग है, वहां का नक्शा अनन्त आकार का हो जायेगा, अतः उसे अनन्त द्वीप कहते हैं। इसका नक्शा अलग से बनाना पड़ता है। सबसे दक्षिण होने से इसे पृथ्वी का आधार कहा गया है, क्योंकि नक्शा में दक्षिण को नीचा दिखाते हैं (विष्णु पुराण, २/५/१३)।
सप्त सागर हैं-क्षार समुद्र (भारत महासागर), इक्षु समुद्र (भूमध्य सागर), सुरा समुद्र (उत्तर अटलाण्टिक), घृत समुद्र (आर्कटिक सागर), क्षीर समुद्र (प्रशान्त महासागर), स्वादूदक समुद्र (दक्षिणी अटलाण्टिक), दधि समुद्र (अनन्त द्वीप के चारों तरख, हिमखण्ड युक्त)। ये पुराण वर्णनों के अनुसार अनुमानित हैं (विष्णु पुराण, अध्याय, २/४-५)।
(२) लोक तथा तल-उत्तर गोल को ४ समकोण भागों में बांटा गया है जिनको भूपद्म का ४ दल कहते हैं-भारत वर्ष (विषुव से ध्रुव तक, उज्जैन से पूर्व और पश्चिम ४५-४५ अंश तक, भद्राश्व (भारत के पूर्व), केतुमाल वर्ष (भारत के पश्चिम), कुरु वर्ष (भारत के विपरीत)। इसी प्रकार दक्षिण गोल में भी ४ खण्ड हैं।
भद्राश्वं पूर्वतो मेरोः केतुमालं च पश्चिमे।
वर्षे द्वे तु मुनिश्रेष्ठ तयोर्मध्यमिलावृतः॥२४॥
भारताः केतुमालाश्च भद्राश्वाः कुरवस्तथा।
पत्राणि लोकपद्मस्य मर्यादाशैलबाह्यतः॥४०॥ (विष्णु पुराण २/२)
भारत दल में आकाश के ७ लोकों की तरह ७ लोक हैं। अन्य ७ खण्ड (३ उत्तर, ४ दक्षिण) ७ तल हैं।
लोकाख्यानि तु यानि स्युर्येषां तिष्ठन्ति मानवाः॥८॥ भूरादयस्तु सत्यान्ताः सप्तलोकाः कृतास्त्विह॥९॥
पृथिवीचान्तरिक्षं च दिव्यं यच्च महत् स्मृतम्।
स्थानान्येतानि चत्वारि स्मृतान्यावर्णकानि च॥११॥
जनस्तपश्च सत्यं च स्थान्यान्येतानि त्रीणि तु।
एकान्तिकानि तानि स्युस्तिष्ठंतीहाप्रसंयमात्॥१३॥
भूर्लोकः प्रथमस्तेषां द्वितीयस्तु भुवः स्मृतः।१४॥
स्वस्तृतीयस्तु विज्ञेयश्चतुर्थो वै महः स्मृतः।
जनस्तु पञ्चमो लोकस्तपः षष्ठो विभाव्यते॥१५॥
सत्यस्तु सप्तमो लोको निरालोकस्ततः परम्॥१६॥
महेति व्याहृतेनैव महर्लोकस्ततोऽभवत्॥२१॥
यामादयो गणाः सर्वे महर्लोक निवासिनः॥५१॥ (ब्रह्माण्ड पुराण, ३/४/२)
भारत दल के ७ लोक-(१) विषुव से विन्ध्य २१ अंश तक-भू लोक, (२) विन्ध्य से हिमालय (३३ अंश) भुवः, (३) त्रिविष्टप (तिब्बत)-स्वर्ग लोक, पश्चिम में विष्णु विटप से सिन्धु नद, मध्य के शिव विटप से गंगा, पूर्व के ब्रह्म विटप से से ब्रह्मपुत्र, (४) महः लोक चीन (ब्रह्मा के अनुसार महान् या हान जाति), (५) जनः लोक (मंगोलिया, अरबी में मुकुल = मुक्त, आत्मा की आकाश में अन्तिम गति), (६) तपः लोक (साइबेरिया, तपस् = स्टेपीज), (७) सत्य लोक (आर्कटिक ध्रुव वृत्त)।
सप्त तल-इनके नाम पुराणों में थोड़ा अलग हैं-
विष्णु-अतल, वितल, नितल, गभस्तिमत्, महातल, सुतल, पाताल।
ब्रह्माण्ड-तत्वल, सुतल, तलातल, अतल, तल. रसातल, पाताल।
भागवत-अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, पाताल।
ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/२०) के अनुसार ७ तल-
(१) तल = कृष्ण भूमि, इन्द्र तथा नमुचि का निवास, इसे गभस्तिमान् या कुमारिका समुद्र भी कहते हैं। दक्षिणी गोलार्ध में ३०अंश ४३’ पूर्व (प्रायः ३१ अंश पूर्व) से १२०अंश ४३’ पूर्व तक। शकद्वीप आस्ट्रेलिया का भी एक देश गभस्तिमान् या सुकृत (सु = उत्तर में) कहा गया है (मत्स्य पुराण, १२२/६-३४) यह आस्ट्रेलिया के निकट होने के कारण उसका अंग भी मान सकते हैं या जम्बूद्वीप की तरह वहां भी गभस्तिमान् होगा।
(२) सुतल (भारत के पूर्व का तल, सु = उत्तर भाग, जैसे सुमेरु) = पाण्डु भूमि-महाजम्भ, विप्र, दैत्य, शंख, कद्रु, तक्षक आदि का निवास। उत्तर गोलार्ध में १२०अंश ४३’ पूर्व से १४९अंश १७’ पश्चिम तक। शंख जापान = पञ्चजन से, पाञ्चजन्य।
(३) तलातल (अतल के तल या नीचे दक्षिण में) = नीलभूमि-प्रह्लाद (मिस्र में तिल्-अत्-तल अमर्ना, नील नदी का मुख), तारक असुर तथा उसका त्रिपुर (लिबिया का त्रिपोली)। दक्षिणी गोलार्ध में ५९अंश १७’ पश्चिम से ३०अंश ४३’ पूर्व तक।
(४) अतल (अपर या भारत के पश्चिम का तल) = पीत भूमि-गरुड, कालनेमि (डैन्यूब के निकट के दानव, डच या ड्यूट्श के दैत्य)। अतल = इटली। उसके परे (पश्चिम में) अतलान्तक (एटलाण्टिक) समुद्र जहां प्राचीन एटलाण्टिस था। उत्तर गोल में ५९अंश १७’ पश्चिम से ३०अंश ४३’ पूर्व तक।
(५) वितल या महातल (सुतल के दक्षिण) = शर्करा भूमि-विरोचन, हिरण्याक्ष, माली, विद्युत् जिह्व, का निवास। जेन्द अवेस्ता के अनुसार हिरण्याक्ष आमेजन नदी क्षेत्र में था। पश्चिम अफ्रीका के माली की योद्धा स्त्रियों को भी आमेजन कहते थे। दक्षिण एटलाण्टिक-दक्षिण गोल में १२०अंश ४३’ पूर्व से १४९अंश १७’ पश्चिम तक।
(६) रसातल = शिला भूमि-वासुकि, दैत्य केसरी, पुलोमा, १०० सिर का सुरमा-पुत्र निवास करते हैं। दक्षिण गोल में १४९अंश १७’ पश्चिम से ५९अंश १७’ पश्चिम तक।
(७) पाताल-यह रसातल के विपरीत उत्तर गोल में १४९अंश १७’ पश्चिम से ५९अंश १७’ पश्चिम तक है।
२. शक द्वीप-
आस्ट्रेलिया, भारत के दक्षिण पूर्व में (महाभारत १२/१४/२१-२५, रामायण)। इसमें कुश आकार के वृक्ष (युकलिपटस) बहुत हैं। विष्णु की अग्नि रूप में पूजा होती है (अग्नि कोण में है)। अग्नि कोण में होने से इसे अग्निद्वीप भी कहा गया है (वायु पुराण अ. ४०)। या, केन्द्र का मरुभूमि भाग गर्म होने से अग्नि द्वीप नाम सम्भव है तथा भारत से इसकी दिशा अग्नि कोण है। यहां चक्रगिरि (पूर्व तट का अर्ध वृत्ताकार पर्वत) तथा स्वर्ण खानें हैं।
शक द्वीप के वर्ष-जलद, कुमार, सुकुमार, मरीचक, कुसुमोद, मौदकि, महाद्रुम।
शक द्वीप के वर्ष पर्वत-उदयाचल, जलाधार, रैवतक, श्याम, अस्ताचल, आम्बिकेय, केसरी।
शक द्वीप की मुख्य नदी-सुकुमारी, कुमारी, नलिनी, धेनुका, इक्षु, वेणुका, गभस्ति
(विष्णु पुराण, २/४/६०-६६) मत्स्य पुराण (१२२/६-३४) के अनुसार-
शक द्वीप के पर्वत-पूर्व में मेरु या उदयगिरि, उसके बाद जलधार या चन्द्र से इन्द्र को जल मिलता है। उससे पश्चिम नारद या दुर्गशैल। उसके बाद श्याम पर्वत पर काले रंग के निवासी हैं। उससे पश्चिम दुन्दुभि भी काले रंग का पर्वत है। उसके बाद रजतमय अस्ताचल या सोमक पर्वत है। यहां गरुड़ ने माता के लिये अमृत का हरण किया था। उसके बाद आम्बिकेय या सुमना पर्वत है जहां वराह ने हिरण्याक्ष का वध किया था। इसके बाद स्फटिक या विभ्राज पर्वत है जिसे केशव भी कहते हैं जहां से उवायु की गति आरम्भ होती है (समुद्र तट पर)।
उदय पर्वत के वर्ष हैं, उदय या गतभय तथा जलधार। जलधार पर्वत का वर्ष सुकुमार या शैशिर है। नारद पर्वत का वर्ष कौमार या सुखोदय है। श्याम पर्वत का वर्ष अनीचक्र या आनन्दक है। सोमक पर्वत का वर्ष कुसुमोत्कर या असित है। आम्बिकेय पर्वत का वर्ष मैनाक या क्षेमक है। केसर पर्वत का वर्ष विभ्राज या ध्रुव।यहां गंगा नाम की ७ नदियां हैं-अनुतप्ता या सुकुमारी, तपःसिद्धा सुकुमारी या सती, नन्दा या पावनी, शिबिका या द्विविधा, इक्षु या कुहू, वेणुका या अमृता, सुकृता या गभस्ति।
वाल्मीकि रामायण, किष्किन्धा काण्ड, अध्याय ४०-
शैलशृङ्गेषु लम्बन्ते नानारूपा भयावहा॥४१॥ अभितप्ताश्च सूर्येण लम्बन्ते स्म पुनः पुनः॥४२॥
ततः पाण्डुरमेघाभं क्षीरोदं नाम सागरम्। गता द्रक्ष्यथ दुर्धर्षा मुक्ताहारमिवोर्मिभिः॥४३॥
लम्बक द्वीप (इण्डोनेसिया) के बाद क्षीरोद सागर है जिसका पूर्व तट मोती के हार की तरह है (आस्ट्रेलिया का पूर्व तट)। यह रावण के अधिकार में था, अतः सीता को यहां खोजने के लिए सुग्रीव ने कहा था। लंका राज्य की स्वर्ण भूमि यही थी।
स्वादूदस्योत्तरे देशे योजनानि त्रयोदश।
जातरूपशिलो नाम महान् कनक पर्वतः॥५०॥
त्रिशिरा काञ्चनः केतुस्तालस्तस्य महात्मनः।
स्थापितः पर्वतस्याग्रे विराजति सवेदिकः॥५३॥
पूर्वस्यां दिशि निर्माणं कृतं त्रिदशेश्वरैः।
ततः परं हेममयः श्रीमान् उदय पर्वतः॥५४॥
(रामायण, किष्किन्धा काण्ड, अध्याय ४०)
अर्थात् पूर्व के उदय पर्वत के पास समुद्र तट से १३ योजन दूर त्रिशिरा (पिरामिड, त्रिकोण सतह से घिरा) वेदी सहित है, जो स्वर्ण युक्त है। यह क्वींसलैण्ड में जिम्पी नगर से उत्तर पूर्व का जिम्पी पिरामिड है जहां सोने की खान थी।
विष्णुपुराण, अध्याय (२/४)-पूर्वस्तत्त्रोदयगिरिर्जलाधारस्तथापरः।
= पूर्व का उदय गिरि पर्वत के बाद जलाधार पर्वत है, यह जल युक्त क्षेत्र है।
शाकस्तत्र महावृक्षः सिद्धगन्धर्वसेवितः॥६३॥
वहां शाक (स्तम्भ आकार के युकलिप्टस) के महावृक्ष हैं।
शाकद्वीपस्तु मैत्रेय क्षीरोदेन समावृतः॥७२॥
= शाकद्वीप क्षीरोद से घिरा है।
३. क्रौञ्च द्वीप-
महाभारत (१२/१४/२१-२५, १६/२५) में इसे मेरु के पश्चिम कहा है। बृहत् संहिता तथा रामायण इसे उत्तर बताते हैं। यह उत्तर अमेरिका है जिसमें क्रौञ्च पर्वत (राकी पर्वत) तथा द्वीप दोनों उड़ते पक्षी के आकार के हैं।
क्रौञ्चद्वीपे गिरिः क्रौञ्चस्तस्य नाम्ना निगद्यते (मत्स्य पुराण, १२३/३७)
क्रौञ्च द्वीप के वर्ष-कुशल, मन्दग, उष्ण, पीवर, अन्धकारक, मुनि, दुन्दुभि।
वर्ष पर्वत-क्रौञ्च, वामन, अन्धकारक, स्वाहिनी (घोड़े के मुख जैसा), दिवावृत्, पुण्डरीकवान्, दुन्दुभि।
मुख्य नदी-गौरी, कुमुद्वती, सन्ध्या, रात्रि, मनोजवा, क्षान्ति, पुण्डरीका।
(विष्णु पुराण, २/४/४८-५५)
मत्स्य पुराण (१२२/७९-८८) के अनुसार इस के ७ पर्वत हैं-देवन, गोविन्द, क्रौञ्च, पावनक, अन्धकारक, देवावृत्, पुण्डरीक। इनके वर्ष हैं-क्रौञ्च पर्वत का कुशल, वामन पर्वत का मनोऽनुग। उदके बाद उष्ण, पावनक, अन्धकारक, मुनिदेश, दुन्दुभिस्वन हैं। यहां ७ प्रकार की गङ्गा नदी हैं-गौरी कुमुद्वती, सन्ध्या, रात्रि, मनोजवा, ख्याति, पुण्डरीका।
४. पुष्कर द्वीप-
यह दक्षिण अमेरिका है जो पुष्कर (उज्जैन से १२अंश पश्चिम ३४अंश उत्तर अक्षांश में बुखारा) के विपरीत दिशा में है। न्यग्रोधः पुष्करद्वीपे पद्मवत् तेन स स्मृतः (मत्स्य पुराण, १२३/३९) इसको उत्तर-दक्षिण दिशा में एण्डीज पर्वत २ भागों में विभाजित करता है। पश्चिमी भाग सूखा है (संसार का सबसे शुष्क क्षेत्र चिली की अकटामा मरुभूमि) तथा पूर्वी भाग में सबसे बड़ा जल भण्डार आमेजन घाटी में है, अतः यह रसातल है। एण्डीज की उत्तरी शाखा अर्ध-वृत्त है जिसे मानस पर्वत कहा है, उसका पुत्र (शाखा) महाविट है। पूर्व उत्तर भाग अर्ध वृत्ताकार पर्वत माला से घिरा आमेजन नदी का सबसे बड़ा जल भण्डार है।
पुष्कर द्वीप के वर्ष-पुष्कर द्वीप में २ ही वर्ष हैं-महावीर खण्ड, धातकि खण्ड। धातकि खण्ड वलयाकार पर्वत के भीतर है-ब्राजील, अर्जेण्टाइना का समतल। बाहर की तरफ महावीर खण्ड उत्तर तथा पश्चिम का वलयाकार भाग है जो दक्षिण में चिली तक है।
वर्ष पर्वत-एक ही मुख्य पर्वत है-मानसोत्तर। यह मध्य में वलयाकार है (उत्तर पश्चिमी भाग)
(विष्णु पुराण, २/४/७४-९०)
५. ऐतिहासिक उल्लेख-
(१) कार्त्तिकेय- कार्त्तिकेय का काल प्रायः १५,८०० ईपू है जब उत्तर ध्रुव अभिजित् से दूर हटा था तथा धनिष्ठा से वर्षा आरम्भ होती थी (महाभारत, वन पर्व, २३०/८-१०)। कार्त्तिकेय ने क्रौञ्च द्वीप पर शक्ति (मिसाइल, अणु बम शक्ति) जिससे क्रौञ्च पर्वत का एक भाग टूट गया था। यह राकी पर्वत पर कोई जलाशय है जो उल्का पात से बनी कही जाती है।
ततः प्रीतो महासेनो जघान भगवान् प्रभुः।
दैत्येन्द्रं तारकं नाम महाबलपराक्रमम्॥७३॥
महिषं चाष्टभिः पद्मैर्वृतं संख्ये निजघ्निवान्॥७४॥
बाणो नामाथ दैतेयो बलेः पुत्रो महाबलः।
क्रौञ्चं पर्वतमाश्रित्य देवसंघानबाधत॥८२॥
तमभ्ययान् महासेनः सुरशत्रुमुदारधीः।
स कार्तिकेयस्य भयात् क्रौञ्चं शरणमीयिवान्॥८३॥
ततः क्रौञ्चं महामन्युः क्रौञ्चनादनिनादितम्।
शक्त्या बिभेद भगवान् कार्तिकेयोऽग्निदत्तया॥८४॥
(महाभारत, शल्य पर्व, अध्याय ४६)
इससे पूर्व बलि ने देवभाग पर अधिकार कर लिया था। देव भाग ३ पद भूमि थी-भारत दल के पश्चिम विन्दु से पूर्व विन्दु तक ९० अंश का १ पद, वहां से द्वितीय पद मेरु (सुमेरु या उत्तर ध्रुव) तथा वापस बलि के स्थान या उनके सिर पर पश्चिम विन्दु तक तृतीय पद।
तत्र पूर्वपदं कृत्वापुरा विष्णुस्त्रिविक्रमे।
द्वितीयं शिखरे मेरोश्चकार पुरुषोत्तमः॥ (वाल्मीकि रामायण, किष्किन्धा काण्ड, ४०/५८)
कार्त्तिकेय के वाहन को मयूर कहते हैं। मनुष्य मयूर पर चढ़ कर उड़ नहीं सकता है। क्रौञ्च द्वीप पर आक्रमण के लिये नौसेना की आवश्यकता है जो प्रशान्त महासागर को पार कर सके। मयूर जल स्थल, वायु में भी चल सकता है। अतः कार्त्तिकेय की नौसेना को मयूर कहा गया तथा उसके सैनिक मयूरी। इसमें प्रशान्त महासागर द्वीपों के भी लोग आवश्यक थे, अतः उनके लिए अन्तर्राष्ट्रीय भाषा रूप में ब्राह्मी की लघु-लिपि तमिल बनायी, जिसमें स्पर्श वर्णों में प्रति वर्ग के प्रथम ४ अक्षरों के एक ही चिह्न हैं। मयूरी लोग प्रशान्त महासागर द्वीपों में बस गये जिनको आज कल माओरी कहते हैं। आजतक हवाई द्वीप से ले कर न्यूजीलैण्ड तक एक ही माओरी भाषा है यद्यपि उनके बीच १२,००० किलोमीटर समुद्र है। इसकी कोई अन्य व्याख्या सम्भव नहीं है।
(२) बलि और नाग-वायु, ब्रह्माण्ड, मत्स्य आदि पुराणों के अनुसार कश्यप (१७,५०२ ईपू, जब अदिति के पुनर्वसु नक्षत्र से वर्ष आरम्भ था) के बाद १० युगों अर्थात् ३६० x१० = ३६०० वर्ष असुर प्रभुत्व था, जिसके बाद १३,९०२ ईपू. में वैवस्वत मनु काल था। इनमें ७वें युग में बलि हुए थे।
युगाख्या दश सम्पूर्णा देवापाक्रम्यमूर्धनि।
तावन्तमेव कालं वै ब्रह्मा राज्यमभाषत ॥५१॥
बलिसंस्थेषु लोकेषु त्रेतायां सप्तमे युगे।
दैत्यैस्त्रैलोक्य आक्रान्ते तृतीयो वामनोऽभवत्॥७४॥
(वायु पुराण, अध्याय ९८)
अर्थात् बलि का काल १५३४२-१४९८२ ईपू में था
शरणं काञ्चनं दिव्यं नानारत्न विभूषितम्।
तत्र भोगवती नाम सर्पाणामालयः पुरी॥३७॥
सर्पराज्ञो महाप्राज्ञो यस्यां वसति वासुकिः।
निर्याय मार्गितव्या च सा च भोगवती पुरी॥३९॥
(रामायण, किष्किन्धा काण्ड, अध्याय ४१)
भोगवती पाताल लोक में गंगा का नाम (भागवत पुराण, १०/७०/४४)। बलि राज्य का कुछ भाग सुतल (भागवत, ५/२४, देवी भागवत, ८/१९/१३), कुछ पाताल (महाभारत, सभा पर्व, ३८/२२) में था। वासुकि राज्य रसातल में था (ब्रह्माण्ड पुराण, १/२/२०)। बलि की राजधानी भोगवती पुरी तथा भोगवती नदी रसातल के उत्तर या पाताल के दक्षिण भाग में कोलम्बिया की बोगोटा नदी तथा बोगोटा राजधानी है।
बोगोटा के उत्तर में माक्षिकः (चान्दी की खानों का क्षेत्र) या मेक्सिको है। वहां आस्तीक नाग रहते थे जिनको एज्टेक कहते हैं (महाभारत, आदि पर्व, ४८/२१ के अनुसार नागराज वासुकि के घर में इनका पालन हुआ था)। नहुष भी सर्प हो कर गये थे, जिनके वंशज नहुआ जाति के हैं (महाभारत, उद्योग पर्व, १०/१४-१८, शान्ति पर्व, ३४२/४४-५२)। अहि भाग के राजा को राम काल में अहिरावण कहते थे। सम्मान सूचक राव का तमिल रूप रावण है जिसका अर्थ राजा है। राम काल के पूर्व एक रावण का सहस्रार्जुन से युद्ध हुआ था। अहिरावण को हनुमान ने पराजित कर अपने पुत्र मकरध्वज को राजा बनाया था। मकरध्वज की वानर रूप प्रतिमायें वहां आज भी हैं।
पाताल लोक के उत्तर भाग में सबसे शक्तिशाली महिष (बाइसन) थे, अतः राजा को सम्मान के लिए महिषासुर कहते थे। इनको पाताल लौटने की चेतावनी दी गयी थी (चण्डी पाठ, ८/२६)।
(३) पुष्कर ब्रह्मा-इनका स्थान पुष्कर द्वीप या दक्षिण अमेरिका कहा है (मत्स्य पुराण, १२३/३९, विष्णु पुराण, २/८/८/५, ऋक्, ६/१६/१३)। इसे मिला कर ३ पुष्कर का उल्लेख है (पद्म पुराण, १/१५/१५१, १/१९-२०, अग्नि पुराण, २११/८, स्कन्द पुराण, ६/४५, १७९)-उज्जैन से १२ अंश पश्चिम का पुष्कर (विष्णु पुराण, २/८/२८), इन्द्रप्रस्थ पुष्कर (अजमेर, आबू पर्वत, पद्म पुराण, १/२० आदि)। इनके स्थान से ४ दिशाओं में ४ राजपथ जाते थे। यह पेरु का कुजको या उसके निकट का स्थान हो सकता है। यह इंका (इनः = सूर्य) साम्राज्य की राजधानी थी और यहां से पूरे अमेरिका में ४ दिशाओं में मार्ग थे।
त्वामग्ने पुष्करादध्यथर्वा निरमन्थत। मूर्ध्नो विश्वस्य वाधतः॥१३॥
तमुत्वा दध्यङ्गृषिः पुत्र ईधे अथर्वणः। वृत्रहणं पुरन्दरम्॥१४॥ (ऋक्, ६/१६)
न्यग्रोधः पुष्करद्वीपे ब्रह्मणः स्थानमुत्तमम्।
तस्मिन्निवसति ब्रह्मा पूज्यमानः सुरासुरैः॥
(विष्णु पुराण, २/२/८५, ब्रह्माण्ड पुराण, ८/८/७)
न्यग्रोधः पुष्करद्वीपे पद्मवत् तेन स स्मृतः (मत्स्य पुराण, १२३/३९)
एवं पुष्करमध्येन यदा याति दिवाकरः।
त्रिंशद् भागन्तु मेदिन्यास्तदा मौहूर्त्तिकी गतिः॥ (विष्णु पुराण, २/८/२६)
पृथूदके गयाशीर्षे नैमिषे पुष्करत्रये॥ (स्कन्द पुराण, ६/४/३७)
स्कन्द पुराण, अध्याय (६/१७९/५४) के अनुसार ३ पुष्कर हैं-
ज्येष्ठ-पुष्कर द्वीप में न्यग्रोध नामक स्थान के निकट।
मध्य-उज्जैन के १२ अंश पश्चिम उजबेकिस्तान का बुखारा।
कनीयक-अजयमेरु (अजमेर) का पुष्कर जहां सरस्वती धारा बहती थी।
६. कालक्षेत्र-प्राचीन विश्व में उज्जैन से ६-६ अंश के अन्तर पर ६० समय क्षेत्र थे। आज कल ग्रीनविच, लण्डन से ७.५ अंश अन्तर पर ४८ समय क्षेत्र हैं। अमेरिका में इनप्राचीन क्षेत्रों के ये अवशेष बचे हैं-
उज्जैन से २३ क्षेत्र पश्चिम चुरुन मेरु, वेनेजुएला, ५अंश ५७’ उ, ६२अं३०’ पश्चिम
उज्जैन से २३ दण्ड पश्चिम मेक्सिको का चोलुला पिरामिड १९अं३’२७" उत्तर, ९८अं१८’७’ पश्चिम।
उज्जैन से २६ क्षेत्र पश्चिम कुजको (पेरु) के निकट पिरामिड। कुजको (पेरु) पिरामिड ६अं३०’५७" द, ७९अं५०’३९" पश्चिम
उज्जैन से १६२ अंश पश्चिम २ पिरामिड हैं-
सन्त (मौंक पर्वत) पिरामिड (मैडिसन, इलिनोइस, उत्तर अमेरिका), ३८अं३९’३८.४" उत्तर, ९०अं३’४३.३६" पश्चिम
मेक्सिको के युकाटन में कालकमूल (Calakmul, Kalakmul) पिरामिड १८अं६’१९.४१" उत्तर ८९अं४८’३८.९८" पश्चिम
उज्जैन से २९ दण्ड पश्चिम सूर्य पिरामिड (टेउटिहुआकन, मेक्सिको) १९अं४१’३३" उ, ९६अं५०’३८" पश्चिम
उज्जैन से ठीक १८० अंश पश्चिम मेक्सिको की प्राचीन राजधानी गुआडलजरा के निकट टेओटचिट्लान है जिसका अर्थ है प्रथम देवता (ब्रह्मा) का स्थान। यहीं पर ब्रह्मा ने पूर्व दिशा के अन्त का चिह्न देने के लिये द्वार बनाया था। पिरामिड का स्थान गुआचिमन्तन है जिसका स्थान २०अं४१’४१’६८" उत्तर, १०३अं५०’९.९३" पश्चिम है।
https://en.wikipedia.org/wiki/Guachimontones
https://mexiconewsdaily.com/mexicolife/western-mexicos-circular-pyramids/
ब्रह्मा देवानां प्रथमं सम्बभूव विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता।
स ब्रह्म विद्यां सर्व विद्या प्रतिष्ठा मथर्वाय ज्येष्ठ पुत्राय प्राह। (मुण्डकोपनिषद्,१/१/१)
पूर्वमेतत् कृतं द्वारं पृथिव्या भुवनस्य च।
सूर्यस्योदयनं चैव पूर्वा ह्येषा दिगुच्यते॥
(रामायण, किष्किन्धा काण्ड, ४०/६४
लेखक : अरुण कुमार उपाध्याय