मानव कौल की इस में यात्रा में कश्मीर और कश्मीर बिताए हुए कुछ यादें हैं। ख्वाजाबाग में बसे घर की नीली दीवार, जो कभी संजीदा और आँगन में खुशियां झूमा करती थी, आज जीर्ण-शीर्ण हो चुकी हैं और गायब होने की परिस्थिति में हैं। मगर आज भी ऐसा लगता है कि एक अनोखा नाता है उससे, जो भूलाए नहीं भूलेगा।
कश्मीर से पंडितों को भगाए जाने के बाद जब पिता ने हमें माँ के साथ होशंगाबाद भेज दिया था, तब उन्हे मिलिटेन्ट ने कब्जे में ले लिया। जब ये बात माँ को पता चली तो माँ ने राज्य सरकार के गवर्नर से मिली, जो की एक कश्मीरी मुसलमान थे। उन्होंने माँ की मदद की और शांत होने को कहा। उनके द्वारा की लिखी गई चिट्ठी जब कश्मीरी जवान के अधिकारी को मिली तो उन्होंने अपनी मेहनत से पिता को मिलिटेन्ट के कब्जे से छुड़ा कर होशंगाबाद भेज दिया।
कश्मीर के पिता और होशंगाबाद में रह रहे पिता में बहुत अंतर था। यहाँ वह हमेशा सचेत रहते। उन्हे ठगे जाने का खतरा बना रहता। जो भी हमारे मोहल्ले से गुजरता, वह उसे खिड़की से जाता हुआ देर तक देखते रहते। अगर कोई एक दिन में दो से ज़्यादा बार हमारे घर के सामने से निकलता तो वह भीतर से एक डरावनी आवाज निकालते, ताकि उसे पता चले कि कोई उसे देख रहा है। हमें बहुत हंसीं आती इस नए पिता पर, पर हम इतने छोटे थे कि कभी उन हरकतों की गहराई में नहीं जा पाए। उन्होंने कश्मीर छोड़ने के पहले क्या-क्या देखा होगा, उसका जिक्र वह कभी भी नहीं करते थे।
सन् 1988 के बाद से जो भी घटा था इस कश्मीर वादी में, और वादी से निकल गए सारे परिवारों ने जो सहा था, उन सब लोगों की कहानियों को अगर हम सुनना शुरू करेंगे तो हमें अपनी इंसानियत पर शर्म आने लगेगी। जिस तरह बाहर रह रहे कश्मीरी पंडितों को छूते ही वे फुट पड़ते हैं, ठीक वैसे ही यहाँ रह रहे कश्मीरी मुस्लिम भी पुरानी घटनाओं पर फट पड़ते हैं। लेकिन इन सबमें पंडितों का कश्मीरी मुस्लिम और कश्मीरी मुस्लिम का पंडितों के प्रति स्नेह भाव खत्म नहीं हुआ है। यहाँ घूमते हुए जब भी किसी को पता चलता है कि मैं(मानव कौल) पंडित हूँ, ठीक उसी वक्त से हमारी बातचित में एक अपनापन आ चुका होता है।
‘इसे सब पता है’ वाला भाव दोनों के संवादों में रहता है। अब जो पंडितों की नई पीढ़ी है, उसे घटनाओं की सुनी हुई जानकारी है, जिन्होंने उन घटनाओं को जिया था वे या तो बहुत बूढ़े हो चुके हैं या वे अब नहीं रहें। कश्मीरी मुस्लिम बच्चे जो उस वक्त बड़े हो रहे थे, या जो पंडितों के बच्चे यहाँ से नहीं गए थे, उनके बचपन के जिए हुए की छाप उनके चेहरे पर साफ दिखती है। ‘तुम लोग तो चले गए थे’, मैं इस वाक्य के पीछे का मर्म समझ सकता हूँ।
मानव कौल एक तरह जहां सन् 1988 में हुए कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचारों की झलक दिखाते हैं तो वही कश्मीरी पंडित और कश्मीरी मुस्लिमों के स्नेह को भी बड़े ही उदारतापूर्वक अपने रचना पटल पर उतारते हैं। मानव कौल बताते हैं कि ऐसा नहीं हुआ कि कश्मीरी पंडितों के चले जाने पर वहाँ शांति छा गई, बल्कि उन्हे भी तिल-तिल कर हर रोज मरना होता था। बॉर्डर उस पार से कुछ लड़ाके आते थे, जो हमारे लड़कों को जोंर-जबर्जस्ती कर के उन्हे उस पार ले जाते थे और ट्रेनिंग देकर तैयार करते थे।
जो भी उनके बातों को नकार देता फिर उसके परिवार वालों को उनके बंदूक की गोलियों से छलनी कर दिया जाता था। फिर उनसे लड़ने के लिए कुछ कश्मीरियों ने यहाँ की फौज से मिलकर अपनी आर्मी खड़ी की, जो उन्हे रोक सके और फिर आए दिन हम अपने में ही लड़ते और मरते थे। कुछ पाकिस्तान के लिए लड़ते थे। कुछ भारत के लिए लड़ते तो वहीं कुछ कश्मीर की आज़ादी के लिए। और होता कुछ नहीं सिवाय वादी के नालियों में गंदा पानी के जगह हमारे कश्मीरियों का खून बहता था।
जब पंडित कश्मीर से निकले तो उन्हे ऐसा लगा था कि हिंदुस्तान उनका दोनों हाथों से स्वागत करेगा और मुसलमानों को लगा कि वे जब सारे पंडितों को निकालकर आज़ादी की बात करेंगे तो पाकिस्तान उन्हे खुले दिल से गले लगा लेगा… पर क्या हुआ- न उन्हे पूछा गया, न इन्हे। कश्मीरी, चाहे वो मुसलमान हो या हिन्दू फुटबाल बन गए थे और जो देश अच्छा खेलता, उस देश के लोग वाह-वाह करते, पर लाते तो फुलबाल को पड़ रही थी।
इन सबके बीच एक दिन मानव जब न्यू यार्क के एक बार बैठे थे, तब उनकी मुलाकात एक रूह नाम की लड़की से हुई। जो कश्मीर के बारे में जानने के लिए हमेशा उत्सुक रहती है। जिसके जुबान पर कश्मीर के चर्चे होते हैं। रूह देखते ही पहचान जाती है कि मानव कश्मीर से संबंध रखते हैं। मानव को भी ये जानकर खुशी होती हैं कि उनके अंदर कश्मीरियत अभी भी जिंदा है। लेकिन उस समय अपने को मायूस पाते हैं जब उनका सामना एक असल के कश्मीरी से होता है, जो वहाँ अभी है।
दोनों कश्मीर के बारे में गपशप करने के बाद रूह कश्मीर जाने का प्रस्ताव रखती है। जिसे मानव भी अपने को रोक नहीं पाते और दोनों कश्मीर को पहुचते हैं। मानव के पिता के पुराने दोस्त गुल मोहम्मद उन्हे एक कमरे का प्रबंध करते हैं जहां दोनों एक साथ रहते हैं। और अगले दिन रूह के साथ अपने पुराने घर और कुछ पुराने जान-पहचान वालों से मिलते हैं, जिसे देख कर उनका दिल खिल उठता है। सब उन्हे ढेर सारा प्यार देते हैं।
मानव को ये लगता ही नहीं कि ये वहीं कश्मीरी मुसलमान हैं, जिनसे डर कर मेरे पिता को अपने परिवार सहित भागना पड़ा। एक दिन मानव के मोबाइल फोन पर बेबी आंटी का कॉल आता है। जो एक कश्मीरी पंडित हैं। और कभी मानव की पड़ोसी हुआ करती थी। जिससे मानव बहुत प्यार किया करते थे। बेबी आंटी से फोन पर ही बात करने के दौरान मानव वात्सल्य से इतना गीला हो जाते हैं कि अपने को रोक नहीं पाते और एक बार आंटी के कहने पर उनसे मिलने के लिए रूह के साथ चल पड़ते हैं।
बेबी आंटी और मानव का जब सामना होता है तो दोनों एक-दूसरे को देख कर अपनी उम्र का पड़ाव भूल कर रोने लगते हैं और दोनों एक-दूसरे को जितना हो सके उतना तेजी से जकड़ लेते हैं। मानव को उनके गोद में बिताए समय याद आने लगते हैं। जो मानव को बेबी आंटी के प्रति करुणा से गीला होना पड़ता है।
कश्मीर से जाने पहले मानव एक लेखक के रूप में रुही के साथ उस्मान से मिलते हैं, जो बचपन में कभी मानव का दोस्त हुआ करता था। उस्मान 1993 के ब्लास्ट के बाद, टाइगर मेमन से मिल चुका है और वो भी पाकिस्तान में! एक अप्वाइमेंट लेने के बाद मानव, रुह के साथ जब उसके ऑफिस को पहुचते हैं तो उनका बहुत स्वागत किया जाता है।, बहुत सारे लोग वहाँ गोला बनाए बैठे रहते हैं। उन्हे चाय दिया जाता है।
तब तक उस्मान फोन पर बातें करते हुए उनके सामने आता है। मानव उस्मान से डरते हुए किसी तरह मीडिया नहीं एक लेखक् के तौर पर उनसे उनके दोस्तों के बारे में, पाकिस्तान में उनकी ट्रेनिंग के बारे में कुछ सवाल पूछता है, जिसका जवाब उस्मान के द्वारा बड़े सहजता से दिया जाता है। एलकीं जवाब में राजनीतिक झलक दिखती है। उस्मान बड़े ही खुशी के साथ ये भी कहता है कि उस पर दो वेबसिरीज़ और एक फिल्म बन रही है।
मानव के सवाल जितने गंभीर होते गए, उस्मान के जवाब में उतनी ज़्यादा राजनीतिक सूझ-बुझ आती गई। इस भरी-भरकम इंटरव्यू के बाद जब मानव वहाँ से निकलने को होते हैं तो ये कहते गए कि आप सीएम बन सकते हैं। ये वाक्य उस्मान के चहरे पर मुस्कान लाने के लिए काफी था। मानव अपनी कश्मीर यात्रा को यही समाप्त कर मुंबई को निकल पड़ते हैं।