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"इंद्रधनुषी त्यौहार... होली"

17 मार्च 2022

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मेरे प्रिय पाठकों नमस्कार प्रणाम 

कल  रंगों का त्यौहार अर्थात होली है
होली प्रतीक  है  जीवन में आने जाने वाले कई सारे रंगों  के  और आप सबकी ज़िन्दगी में इन रंगों की कभी भी कोई कमी न हो ,आप सभी की ज़िंदगी हमेशा ऐसी ही रंगीनियत से सराबोर रहे ।


मैं अपने बचपन की एक कहानी बताता हूँ ,  सरस्वती पूजा  के बाद से ही सब का ध्यान फगुआ पर आकृष्ट हो जाता था ,मेरे  घर मे काली माता के मंदिर में यूं तो वर्षों से कीर्तन भजन होता आ रहा था,लेकिन फगुआ के दिनों में बस फगुआ ही गाया जाता ।

भजन गाने वालों में सलखु मड़ल ,सिपुजन महतो,निर्मल साधु,  रामप्रसाद, हरि प्रसाद, भुअरा मड़ल ,चिल्हर पहलवान आदि प्रधान थे। 

मुझे याद है जब संध्या आरती के समय सभी आते तो आरती के बाद मैं और बाकी के बच्चे मंदिर में दरी बिछाते थे ताकि "कीर्तन मंडली" बैठ सकें ।

मैं चिल्हर पहलवान को बहुत ही उत्सुकता से देखता 'ढोल' को कसते हुए  वे हर बार ढोल को कसते और ठोंक बजा कर देखते की- " आवाज़ दुरुस्त हुई या नहीं?"
पता नही उन्हें क्या समझ आती,मुझे तो ढोल की आवाज़ में रत्ती भर भी फर्क महसूस नही होता ।

और जब ढोल को दुरुस्त करने  के बाद चिल्हर पहलवान ढोल की थाप में मधुर तान छेड़ते तब पूरा माहौल फगुआमय हो जाता ।

सलखु मड़ल  सबसे पहले शुरुआत करते  "अवध में होरी आइल मनाव हो   तु धूमधाम से!" उसके बाद  तो बस एक के बाद एक  फगुआ गीतों का रेला लग जाता था। 
बीच बीच मे रसोई घर से गोलमिर्च (काली मिर्च) मंगवाया जाता गला ठीक करने के लिए...सभी गायक एक से बढ़ कर एक ग्वईय्या थे ।
ये सिलसिला वसंत ऋतु के आगमन से लेकर होली के दिन तक चलता रहता ।

होलिका दहन के दिन की हमे बेसब्री से प्रतीक्षा रहती थी ,क्यों इसी दिन हम सभी बच्चे भुजाल घोष के छप्पर  को ही उठा कर ले आते ,बाँसलोई के तट पर ,होलिका दहन में स्वाहा करने के लिए ।

भुजाल घोष की कहानी भी बड़ी अजीब थी ,वे न अपने घर मे नही रहते थे ,उनकी जिंदगी 'बथान' पर ही गुज़र गई ।
अपनी गइयों भैंसों के साथ वे अपने 'बथान' में ही पड़े रहते थे और  क्या मजाल जो किसी भी साल 'होलिका दहन'  के लिए 'चंदा' दिया हो !

वे चाहते तो 11 रुपये के चंदा को देकर अपने बथान के छप्पर को बचा सकते थे ,पर नही उन्हें ये मंजूर न था। 

हर साल होलीमें उनके बथान के छप्पर को हम होलिका के साथ फूंक देते या फिर ये भी कह सकते हैं हर साल होली के बाद उनके बथान में एक नया छप्पर लगता ।

भुजाल घोष जब बीमार पड़े और मृत्यु ने उन्हें अपने ग्रास में धीरे धीरे लेना शुरू किया तब तक हम बच्चे बड़े हो चुके थे,तब उन्होंने एक बात बताई थी ।

फागुन ने छप्पर छवाने के बाद चइत बइशाख का रोद (धूप)   सावन भादो का मूसलाधार बारिश  सहते सहते पूरी तरह से जर्जर हो जाता था ,और मेरी बुढ़िया कहती "छपरिया बदलवात काहे नइखीं  अगहन पूस के शीतलहरी में कइसे कटाई कइसे सुते सकब?"
(छप्पर बदलवा क्यों नही लेते  अगहन पूस का शीतलहरी  कैसे कटेगा कैसे सोइएगा?")

तब भुजाल घोष कहते  "अभी अगर छपरिया बदलवाईब त जन मजदूर के पइसा लागी ,होरी में गांव के छौंड़न अपने छप्पर उजाड़ दिहसन फेर छवा लेब!"
(अभी छप्पर बदलवाने में लेबर मजदूर लगाना पड़ेगा और उनको पैसे देने पड़ेंगे ,होली आने दो गांव के लड़के अपने फ्री में छपरी उतार देंगे फिर छवा लेंगे)

भुजाल घोष वाकई बहुत चतुर थे,पर अंत तक हम यही सोचते रहे कि भुजाल घोष जैसा बेवकूफ और कौन होगा ।

आज भी होलिका दहन है और आज भी होलिका दहन करते समय हम सभी जिन्होंने भुजाल घोष को देखा है, याद करेंगे और होलिका दहन के साथ ही उनको भी श्रद्धांजलि देंगे,ये हर वर्ष का नियम है।

पहले की होली में सिर्फ होली नही होती थी ,दूध में भांग होता था ,आपस मे प्रेम होता था और एक दूसरे के प्रति सम्मान तो कूट कूट कर भरी होती थी ।

सुबह रंग लेकर घर से निकलने के बाद शाम तक  अगर घर ना भी पहुंचे तो पेट पूजन की कोई चिंता न होती थी ,गांव के हर घर मे चेहरे रंगों से पुते होने के बावजूद भी घुटने भर खातिरदारी  मिलती और हर घर से मालपुए खाने को मिलता। 

होली गाने वाले दल बना कर निकलते थे,जिसमे गांव के किसन जादब जिन्हें सभी प्यार से बायलॉजी मास्टर कहते हैं, साड़ी पहन कर औरत का वेश धरते और सभी मनचले उनमे अपनी अपनी प्रेयसी का अक्स ढूंढ कर "जोगी जी धीरे धीरे-नदी के तीरे तीरे गाते"

पर अब सब कुछ बदल चुका है अपनापन तो कहीं विलुप्त हो गया का और फगुआ गीतों की जगह फूहड़ता ने अपने पंख पसार दिए हैं ।

होली हमारे सुनहरे संस्कृति का एक बेजोड़ उदाहरण है,इसे इस प्रकार से यूँ विलुप्त होते देखना वाकई बहुत दुखदाई है ।



होलिका दहन की बात की जाए तो इसके पीछे कई सारी पौराणिक कथाएं हैं जिनमे से सबसे प्रधान है दानव हिरण्यकश्यप के पुत्र और भगवान विष्णु के परम भक्त प्रह्लाद की कथा।

पुराणों के अनुसार दानवराज हिरण्यकश्यप ने जब देखा कि उसका पुत्र प्रह्लाद सिवाय विष्णु भगवान के किसी अन्य को नहीं भजता, तो वह क्रुद्ध हो उठा और अंततः उसने अपनी बहन होलिका को आदेश दिया की वह प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठ जाए, क्योंकि होलिका को वरदान प्राप्त था कि उसे अग्नि नुक़सान नहीं पहुंचा सकती ।
किन्तु हुआ इसके ठीक विपरीत, होलिका जलकर भस्म हो गई और भक्त प्रह्लाद को कुछ भी नहीं हुआ,इसी घटना की याद में इस दिन होलिका दहन करने का विधान है।, होली का पर्व संदेश देता है कि इसी प्रकार ईश्वर अपने अनन्य भक्तों की रक्षा के लिए सदा उपस्थित रहते हैं...

इसी प्रसंग को ध्यान में रख कर मैंने एक कविता लिखा है जो आप सभी के लिए यहां प्रस्तुत है


हिरण्यकश्यप दुराचारी की
दुराचारिणी ही एक बहना थी
ऋषि कश्यप-दिति की थी सुता
पर कलुषित बुद्धि ही उसकी गहना थी
नारायण के प्रिय भक्त को भष्म करने की उसकी मंशा थी
अग्नि से भी जो ना जले ऐसी वो विध्वंसा थी
श्री हरि पालन कर्ता के मन मे था इनसे क्षोभ बड़ा
हिरण्यकश्यप के ह्रदय में भी विश्व विजय का था लोभ बड़ा
प्रह्लाद को गोद मे लेकर बुआ ने देनी चाही थी सौगात बड़ी
श्रद्धा और भक्ति के उपासक के जीवन की थी वो रात बड़ी
वरदान के मद में होलिका थी अग्नि के समक्ष अड़ी
जीता सत्य  हुई पराजय पापन की जो करती थी सब बात बड़ी
पाप के नाश की स्मृति में ही हम ये पर्व मनाते हैं
अधर्म के रूप की होलिका को तभी से हर वर्ष जलाते हैं
होली के पर्व की पावन बेला में सिर्फ सौहाद्र का ही विकल्प धरे 
इंद्रधनुषी हो जीवन सब का  आओ ये संकल्प करें।।

मेरे सभी पाठक बंधुओ को रंगोत्सव की ढेर सारी बधाइयां....खुश रहें स्वस्थ रहें और अपने परिवार के साथ प्रेमपूर्वक रहें।

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