निशा उस तस्वीर को अपलक देखे जा रही थी,तस्वीर या यूँ कहे एक पुराना सा पोस्टर जो उसके कमरे की दीवार पर चिपका हुआ था उस पोस्टर में गुलाबी रंगत की एक गोरी-सी,बहुत ही प्यारी और मासूम सी दिखने वाली एक लड़की गुलाबी रंग की ड्रेस पहने हुए, जिसके बाल खुले थे और होंठो पर फूलों सी खिली हुई मुस्कान थी,हाथ में एक अनानास पकड़े हुए बहुत से फलों के बीच में बड़ी ही शान से बैठी थी जैसे वो इन सब फलों की रानी हो।
उस सुन्दर सी लड़की को देखते हुए निशा उस तस्वीर पर हाथ फेरने लगी,उसके बालों पर उसके चेहरे पर हाथ लगाते हुए निशा सोचने लगी काश ये लड़की उसकी दोस्त होती और इस तस्वीर से बाहर निकल आती फिर वो इस लड़की के साथ खूब खेलती,बातें करती । सोचते-सोचते निशा के हाथ उस लड़की के हाथ पर चले गए और ये क्या ? निशा अचानक से डर गई, उसने उसका हाथ अपनें हाथ में ले लिया था।
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निशा एक आठ-नो साल की भोली सी लड़की जिसकी खूबसूरती को उसके धूमिल बालों ने बेजान सा कर दिया था,लेकिन चेहरे पर मासूमियत बरकरार थी, वक्त ने उसकी मुस्कान को फीकी जरूर कर दिया था पर उस मुस्कान में बनावटीपन बिल्कुल नहीं था। अपने माता पिता को उसने कभी देखा ही नहीं था,उनके बारे में वो कुछ जानती भी नहीं थी, जिनके साथ वो इस वक्त रह रही थी उन्हें चाचा-चाची कहती थी लेकिन वो भी उसके सगे चाचा-चाची नहीं थे। इस बेरहम दुनिया में वो थोड़े रहम वाले थे जिन्होंने निशा को अपनें साथ रखा हुआ था,और उसकी जरूरी जरूरतों को पूरा करते थे ,हाँ बदले में घर के काम करवाकर उससे कीमत वसूल लेते थे। पास के ही सरकारी स्कूल में पढ़ने भी भेजते थे। कॉपी पेंसिल साल में एक ही बार दिलाई जाती थी इसलिए निशा पेंसिल को बहुत ही किफायत से रखती थी। वो पेंसिल के उन छोटे से टुकड़ो को समेट लेती थी जो उसके चाचा के बच्चे फेंक देते थे।उनकी पुरानी कॉपियों के बचे हुए पन्नो को फाड़ कर अलग कर लेती और फिर उन सब पन्नो को मिलाकर एक नई कॉपी तैयार कर लेती। चाचा उसे कभी कुछ नहीं कहते थे,चाची भी ज्यादा कुछ नहीं कहती थी काम बता दिया करती थी,हाँ कभी कभी घर-गृहस्थी की परेशानी से परेशान होती तो गुस्सा निशा पर ही निकलता था।
चाचा -चाची के दो बच्चें थे एक बेटा और एक बेटी,बेटे का नाम दीपक था जो की निशा का ही हमउम्र था ,बेटी का नाम सुमन, दीपक से दो साल छोटी लेकिन बदमाशियों में दीपक की अम्मा।
दीपक और सुमन प्राइवेट स्कूल में पढ़ने जाते थे ,दीपक का एक दोस्त रचित कभी कभी घर भी आता था तब वो और दीपक खूब खेलते।रचित निशा को भी साथ खेलने को कहता पर निशा काम खत्म होने पर खेलूँगी ऐसा कहती लेकिन ये सिर्फ दिलासा ही होता था क्योंकि जब तक निशा सारे काम खत्म करती तब तक रचित अपनें घर चला जाता।एक दिन रचित ने दीपक से कहा,"चलो हम निशा की मदद करते हैं फिर निशा भी हमारे साथ खेलेगी।"
"लेकिन हमें क्या जरूरत हैं हम दोनों ही खेलते हैं न और अगर जरूरत हैं तो सुमन को अपनी पार्टी में मिला लेते हैं,"दीपक ने कहा
"अरे सुमन तो होगी ही निशा भी होगी तो हम ज्यादा लोग हो जाएंगे और फिर खेलने में भी मजा ज्यादा आयेगा," रचित ने अपनी बात रखी।
दीपक तैयार हो गया दोनो ने मिलकर निशा की मदद की ,काम खत्म हुआ और सब मिलकर खेलने लगे। जब भी रचित वहाँ आता निशा को भी खेलने का मौका मिल जाता ।
रचित टॉफी चॉकलेट भी लाता था जिसे वो सब मिलकर खाते।निशा ने तो पहली बार टॉफी और चॉकलेट का स्वाद चखा था इससे पहले टॉफी -चॉकलेट उसके लिए चांद तारों की चमक जैसी थी।
आज रचित नहीं आया निशा सोचती ही रह गई ,रचित आता तो उसे काम से छुटकारा जल्दी मिल जाता रचित ही हैं जो दीपक और सुमन के साथ मिलकर निशा के काम जल्दी करवा देता हैं।जिस दिन रचित नहीं आता उस दिन दीपक और सुमन अपने ही खेल में व्यस्त रहते और निशा काम पर ही लगी रहती न वो खेल पाती और न ही उस दिन उसे टॉफी-चॉकलेट खाने को मिलती।
रात को खाना खाने के बाद निशा अपने कमरें में गई जो की स्टोर रूम था। उस कमरे में एक कोने में निशा ने अपनी दुनिया बसा रखी थी एक पुराने से बेड के पास सिरहाने की तरफ वो पोस्टर था जिसमे फलों के बीच में वो सुन्दर सी लड़की बैठी थी। जब भी वो अकेलापन महसूस करती इस पोस्टर को देखती और सोचती काश ये लड़की मेरी दोस्त होती एकदम पक्की वाली दोस्त ,आज भी ऐसा ही ख्याल उसके दिल में आया और निशा उस तस्वीर पर हाथ फेरने लगी और ये क्या निशा अचानक से डर गई। तस्वीर वाली लड़की का हाथ निशा के हाथ में था और निशा का हाथ पकड़े हुए वो लड़की उस तस्वीर से बाहर आ गई। निशा बस उसे देखती रही।