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राजा भोज का गौरवशाली इतिहास

19 मार्च 2023

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राजा भोज, परमार वंश के नवे राजा थे परमार वंशीय राजाओं ने मालवा की राजधानी धारा नगरी (वर्तमान धार) पर आठवी शताब्दी से लेकर चौदहवी शताब्दी के पूर्वार्ध तक शासन किया। भोज परमार, जिनसे बड़ा राजपूत क्षत्रिय राजा पिछले एक हजार वर्षो में नही हुआ था।

भोज का जन्म 965 ईस्वी में मालवा प्रदेश की एतिहासिक नगरी उज्जयिनी (वर्तमान उज्जैन) में परमार वंश के राजा मुञ्ज के अनुज सिन्धुराज के घर हुआ था। एक दिन मुञ्ज की सभा में एक विद्वान ज्योतिष उपस्थित हुआ। मुञ्ज ने उसे भोज की जन्मपत्रिका देकर उसका भविष्य पूछा। ज्योतिष ने ग्रह गणना कर कहा– “राजन्! मै तो एक साधारण ब्राह्मण हूँ। भोज के सौभाग्य का तो स्वयं विधाता भी वर्णन नही कर सकते। यह बालक परम प्रतापी और यशस्वी होंगा। 55 वर्ष 7 माह और 3 दिन गौड़ देश सहित सारे दक्षिण देश पर राज्य करेंगा।” मुञ्ज को यह सुनकर तत्काल बड़ा हर्ष हुआ उसने ज्योतिषी को संतुष्ट कर विदा किया।अब भोज के विद्याध्ययन का समय आया उज्जयिनी नगरी में 5 वर्ष की आयु में भोज का विद्याध्ययन आरम्भ हुआ। भोज बड़े मेधावी थे। अपनी प्रखर बुद्धि के कारण उन्होंने महज 8 वर्ष की आयु में सम्पूर्ण वेद-पुराण, समस्त विद्या-कला और आयुर्विज्ञान का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। भोज की तेजस्विता देख मुञ्ज का ह्रदय काँप उठा उनकी विद्वत्ता और वीरता देखकर उसे हर्ष के बदले परिताप होने लगा। भोज अब कुछ ही दिनों में राज्य ले लेगा यह जानकर वह चिंतित हो उठे। उनके मन में राज्य लोभ समा गया। अंत में राजा मुञ्ज ने भोज को मरवा डालने का निश्चय किया और अपने विश्वासपात्र मंत्री वत्सराज को आज्ञा दी कि अर्धरात्रि के समय भोज को किसी निर्जन वन में ले जाकर मार डाले। राजा की आज्ञा अनुसार मंत्री भोज को एकांत वन में ले गया। वहाँ उसने भोज को मुञ्ज की आज्ञा सुनाई। भोज की अवस्था तो उस समय अधिक न थी परन्तु वे समझदार अवश्य थे। मुञ्ज की आज्ञा सुनकर वे विचलित नही हुए उन्होंने एक श्लोक लिखा और मंत्री वत्सराज को देते हुए कहा कि “राजा की आज्ञा पालन करने के बाद जब आप नगर लौटे तब यह पत्र राजा मुञ्ज को दे देना। आप परवश है, अतः खेद न करे। जो देव की इच्छा होती है वही होता है। मै मरने के लिये तैयार हूँ आप अपना कर्तव्य पालन करिये।”उनके शरीर की सुकुमारता को देखकर मंत्री वत्सराज का ह्रदय पसीज उठा और वह विचार में पड़ गया। वत्सराज निरा ह्रदयहीन न था उसे भोज पर दया आ गयी। उनके निर्भीक शब्दों ने उसके ह्रदय में प्रेम उत्पन्न कर दिया। उनका निर्दोष मुख देखकर उसका ह्रदय द्रवित हो उठा। उसके हाथ से तलवार छुट गई और भोज को उसने एक गुप्त स्थान पर छिपा दिया। इसके बाद जब वे नगर को लौटे तब उन्होंने भोज का दिया वह पत्र मुञ्ज को दे दिया उसमे लिखा था।
“मान्धाता स महीपतिः कृतयुगालंकारभूतो गतः। 
सेतुर्येन महोदधौ विरचितः क्वासौ दशास्यान्तकः।।
अन्येचापि युधिष्ठिरप्रभृतियो याता दिवं भूपते।
नैकेनापि समं गता वसुमती मुंजत्वया यास्यति।।”
अर्थात- “सतयुग में परम प्रतापी मान्धाता पृथ्वीपति थे परन्तु वे न रहे। त्रेतायुग में समुद्र पर सेतु बाँधकर रावण को मारने वाले राम भी न रहे। द्वापरयुग में युधिष्ठिर आदि भी स्वर्गगामी हो गये। हे मुञ्ज! बड़े-बड़े राजा चले गये परन्तु पृथ्वी किसी के साथ नही गई। सम्भव है कलियुग में अब तुम्हारे साथ चली जाय।”
इस श्लोक को पड़कर राजा को बड़ा दुःख हुआ। वे पुत्रघात की ग्लानी में आत्मघात करने को आतुर हो गए। मंत्री वत्सराज ने उन्हें आश्वासन दे, आत्मघात करने से रोका और भोज को छिपा रखने का सारा हाल राजा मुञ्ज से कह सुनाया। यह सुन मुञ्ज बड़े प्रसन्न हुए और भोज को बुलवाकर युवराज घोषित कर दिया।

भोज जब 15 वर्ष के थे तब उन्हें मालवा का राजा बनाया गया। भोज सिंहासनारूढ़ हो न्याय-नीति पूर्वक प्रजा का पालन करने लगे। वे विद्वान्, शूरवीर और उदार थे।

भोज जब सिंहासन पर बैठे तब उन्होंने पुरे देश का मानचित्र देखा और यह भी देखा की देश 57 भागों में बंटा हुआ था। उस समय भोज ने अंखड भारत को एक करने का बिड़ा उठाया। भोज ने भारतवर्ष के सभी राजाओं को संदेश भेजा कि सभी देशवासियों को एक होकर देश को बचाना होगा। कई राजाओं ने भोज का विरोध किया तब भोज ने देश-धर्म की रक्षा के लिए तलवार उठाई और जन्म हुआ इतिहास के सबसे बडे योद्धा महाराजा भोज का।

महाराजा भोज ने अपने जीवन में हिंदुत्व की रक्षा के लिए अनगिनत युध्द किए और अपनी प्रतिष्ठा स्थापित की। जिससे सिद्ध होता है की उनमे असाधारण योग्यता थी आज तक किसी ने इतने युद्ध नहीं लड़े। यद्यपि उनके जीवन का अधिकांश भाग युद्धक्षेत्र में बीता तथापि उन्होंने अपने राज्य की उन्नति में किसी प्रकार की बाधा नही उत्पन्न होने दी। भोज बहुत बड़े वीर, प्रतापी, पंडित और गुणग्राही थे। इन्होंने कई विषयों के अनेक ग्रंथों का निर्माण किया था। ये बहुत अच्छे कवि, दार्शनिक और ज्योतिषी थे। सरस्वतीकंठाभरण, श्रंगारमंजरी, चंपूरामायण, चारुचर्या, तत्वप्रकाश, व्यवहारसमुच्चय आदि अनेक ग्रंथ इनके लिखे हुए बतलाए जाते हैं। इनकी सभा सदा बड़े-बड़े पंडितों से सुशोभित रहती थी। इनकी पत्नी का नाम लीलावती था जो बहुत बड़ी विदुषी थी।

जब भोज जीवित थे तो कहा जाता था–
“अद्य धारा सदाधारा सदालम्बा सरस्वती।
पण्डिता मण्डिताः सर्वे भोजराजे भुवि स्थिते॥”
अर्थात- “आज जब भोजराज धरती पर स्थित हैं, तो धारा नगरी सदाधारा (अच्छे आधार वाली) है, सरस्वती को सदा आलम्ब मिला हुआ है सभी पंडित आदृत हैं।”
जब उनका देहान्त हुआ तो कहा गया–
“अद्य धारा निराधारा निरालंबा सरस्वती।
पण्डिताः खण्डिताः सर्वे भोजराजे दिवंगते॥”
अर्थात- “आज भोजराज के दिवंगत हो जाने से धारा नगरी निराधार हो गयी है, सरस्वती बिना आलम्ब की हो गयी हैं और सभी पंडित खंडित हैं।”

वे स्वयं विद्वान थे और विद्वानों को आश्रय भी देते थे। उनकी राज सभा में जो आता उसकी मनोकामना अवश्य पूर्ण होती। वे कवि और पंडितो को मुक्त हस्त से धन प्रदान करते थे। एक-एक श्लोक पर लाख लाख रूपये दे देते थे। लक्ष्मी और सरस्वती का एक्य उन्ही के समय में देखा गया। उनके संसर्ग में आकर अनेक विद्वान धन और कीर्ति उपार्जन करने लगे। साधारण मनुष्य भी उनकी संगती में पड़ कर कवि बन जाता था। ज्यो-ज्यो समय बीतता गया त्यों-त्यों भोजदेव की कीर्ति वृद्धिगत होती गई। उनकी उदारता और काव्यप्रियता का हाल सुनकर दूर-दूर के कवि राजसभा में उपस्थित होने लगे। राजा भोज आदर सत्कार कर उनकी इच्छा पूर्ण करते कोई खाली हाथ या निराश होकर नही लौटता। कुछ ही दिनों में उनके इन गुणों के कारण, सर्वत्र उनका गुणगान होने लगा। विद्वानों को आश्रय देकर जो कीर्ति महाराजा भोज ने प्राप्त की है वह और किसी को भी नसीब नहीं हुई।

कहते है धारा नगरी में उस समय एक भी मनुष्य मुर्ख नही था। भोज प्रबंध में अनेक कवि और पण्डितो के नाम दृष्टि गोचर होते है। उसमे उनकी कविता और उस पर दिये पुरस्कार अंकित है। उसके उल्लेखानुसार भोज की राजसभा में कालिदास (द्वितीय), भवभूति, बल्लाल मिश्र, माघ मल्लिनाथ, वररुचि, सुबन्धु, बाणभट्ट, मयूर, रामदेव, हरिवंश, शंकर, दण्डी, कपूर, विनायक, मदन, विद्याविनोद, कोकिल, तारिन्द, प्रभृति, कविशेखर, रामेश्वर, शुकदेव, भास्कर, शांडिल्य, प्रभृति 1400 विख्यात पण्डित और कवि थे। बुद्धिसागर नामक एक पुराने मंत्री को मुंज ने निकाल दिया था। वह अनुभवी और विद्वान् था, अतः भोज ने पुनः उसे उस के पद पर नियुक्त किया। फणीन्द्रनाथ नामक उनके गुरु ने उन्हें राजनीती का उपदेश दिया था।

अपने शासन के तीसरे या चौथे वर्ष, एक दिन भोज ने निम्नलिखित आज्ञा पत्र प्रकाशित किया। 
1) कल एक महती सभा होगी। उसमे समस्त पदाधिकारी उपस्थित हो।
2) प्रत्येक अधिकारी से शास्त्रानुसार कई प्रश्न किये जायेंगे यदि वह उनका संतोषप्रद उत्तर न दे सकेगा, यदि यह सिद्ध हो जायेगा कि उसे अपने कर्तव्यों का ज्ञान नही है, तो वह अयोग्य समझा जायेगा। और पदच्युत कर दिया जायेगा।
3) राज्य में जितने पण्डित हो वे उपस्थित होने की कृपा करे, उन्हें योग्यतानुसार स्थान दिये जायेंगे।
4) मेरे नगर में जो मुर्ख हो, वे सब काम छोड़कर पड़ना-लिखना सीख ले। उन्हें एक वर्ष का समय दिया जाता है। इतने समय में यदि वे ऐसा न करेंगे तो नगर से निकाल दिये जायेंगे और बाहर से आये हुए विद्वान उनके घरो में बसाये जायेंगे।भोज की इन आज्ञाओ का बहुत प्रभाव पड़ा। जिनमे कार्य करने की योग्यता थी, वे ही पदाधिकारी रह सके और जो मुर्ख थे सब निष्कासन के भय से पड़-लिख कर विद्वान हो गये।

भोज नियमानुसार नित्यकर्म से छुट्टी पाकर प्रातःकाल ही सभामण्डप में आ जाते और वहाँ पर आये हुए याचको को इच्छानुरूप दान देकर संतुष्ट करते थे। उनकी दानवीरता देखकर मंत्री को बड़ी चिंता होती। मंत्री ने सोचा कि यदि यही सिलसिला कुछ दिन और जारी रहा तो राज्य का सारा खजाना अवश्य खाली हो जाएगा इसलिए जहाँ तक हो इसे शीघ्र रोकना चाहिए। परन्तु राजा को प्रत्यक्षरूप से समझाने में उनके नाराज होने का डर था। इन सब बातो को सोचकर एक दिन उस मंत्री ने सभामण्डप की दीवार पर, खड़िया से, यह वाक्य लिख दिया–
“आपदर्थे धनं रक्षेत्।”
अर्थात- “आपत्ति काल के लिये धन की रक्षा करनी चाहिये।”

दुसरे दिन प्रातःकाल भोज की नजर उस पर पड़ी और पूछने पर भी किसी ने लिखने वाले का पता नही बताया, तब भोज ने उसी के आगे यह वाक्य जोड़ दिया–
“भाग्यभाजः कचापदः।”
अर्थात- “भाग्यशाली पुरुष के आपदा कहाँ होती है ?”

दुसरे दिन भोज ने आकर देखा तो, वहाँ लिखा था–
“देवं हि कुप्यते कापि।”
अर्थात- “शायद कभी भाग्य पलट जाय ?”

इसे पड़कर भोज ने उसके आगे यह वाक्य जोड़ दिया–
“संचितोपि विनश्यति।”
अर्थात- “भाग्य पलट जायगा तो इकट्ठा किया हुआ भी नष्ट हो जाएगा।”

मंत्री को उत्तर पड़ कर भोज के मन्तव्यो का पता लग गया और उसे इस कार्य के लिये उनसे माफ़ी मांगनी पड़ी उसने फिर कभी बाधा देने का विचार नही किया। उसे ज्ञात हो गया कि भोज जो करते है, वह सोच-समझकर कर ही करते है।

विश्ववंदनीय राजा भोज माँ सरस्वती के वरदपुत्र थे। उनकी तपोभूमि धारा नगरी में उनकी तपस्या और साधना से प्रसन्न होकर माँ सरस्वती ने स्वयं प्रकट हो कर दर्शन दिए। माँ से साक्षात्कार के पश्चात उसी दिव्य स्वरूप को माँ वाग्देवी की प्रतिमा के रूप में अवतरित कर भोजशाला में स्थापित करवाया। भोज ने धार, माण्डव तथा उज्जैन में सरस्वतीकण्ठाभरण नामक भवन बनवाये थे। भोज के समय ही वाग्देवी की प्रतिमा संवत् 1091 (ईस्वी सन् 1034) में बनवाई गई थी। गुलामी के दिनों में इस मूर्ति को अंग्रेज शासक लंदन ले गए। यह आज भी वहां के संग्रहालय में बंदी है। जिसे वापस लाने के प्रयत्न आज भी जारी है।

माँ सरस्वती की कृपा से महाराजा भोज ने चौसठ प्रकार की सिद्धिया प्राप्त की तथा अपने यूग के सभी ज्ञात विषयो पर 84 ग्रन्थ लिखे जिसमे धर्म, ज्योतिष, आयर्वेद, व्याकरण, वास्तुशिल्प, विज्ञान, कला, नाट्यशास्त्र, संगीत, योगशास्त्र, दर्शन, राजनीतीशास्त्र आदि प्रमुख है। समरांगण सूत्रधार, सरस्वती कंठाभरण, सिद्वान्त संग्रह, राजकार्तड, योग्यसूत्रवृत्ति, विद्या विनोद, युक्ति कल्पतरु, चारु चर्चा, आदित्य प्रताप सिद्धान्त, आयुर्वेद सर्वस्व श्रृंगार प्रकाश, प्राकृत व्याकरण, कूर्मशतक, श्रृंगार मंजरी, भोजचम्पू, कृत्यकल्पतरु, तत्वप्रकाश, शब्दानुशासन, राज्मृडाड आदि। 
‘भोज प्रबंधनम्’ उनकी आत्मकथा है।

भोज ने हनुमान जी द्वारा रचित राम कथा के शिलालेख समुद्र से निकलवा कर धारा नगरी में उनकी पुनर्रचना करवाई जो हनुमान्नाटक के रूप में विश्वविख्यात है। तत्पश्चात उन्होंने मात्र एक रात में गद्य-पद्य सहित चम्पू रामायण की रचना की जो अपने गद्यकाव्य के लिए विख्यात है। चम्पू रामायण महर्षि वाल्मीकि के द्वारा रचित रामायण के बाद सबसे तथ्य परख महाग्रंथ है। महाराजा भोज वास्तु शास्त्र के जनक माने जाते है। समरांगण सुत्रधार ग्रन्थ वास्तु शास्त्र का सबसे प्रथम ज्ञात ग्रन्थ है। वे अत्यंत ज्ञानी, भाषाविद्, कवि और कला पारखी भी थे। उनके समय में कवियों को राज्य से आश्रय मिला था। सरस्वतीकंठाभरण उनकी प्रसिद्ध रचना है। इसके अलावा अनेक संस्कृत ग्रंथों, नाटकों, काव्यों और लोक कथाओं में राजा भोज का अमिट स्थान है।

मालवमण्डन, मालवाधीश, मालवचक्रवर्ती, सार्वभौम, अवन्तिनायक, धारेश्वर, त्रिभुवन नारायण, रणरंगमल्ल, लोकनारायण, विदर्भराज, अहिरराज या अहीन्द्र, अभिनवार्जुन, कृष्ण आदि कितने विरूदों से भोज विभूषित थे।

आइने-ए-अकबरी में प्राप्त उल्लेखों के अनुसार भोज की राजसभा में पांच सौ विद्वान थे। इन विद्वानों में नौ (नौ रत्न) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
महाराजा भोज ने अपने ग्रंथो में विमान बनाने की विधि का विस्तृत वर्णन किया है। चित्रो के माध्यम से उन्होंने पूरी विधि बताई है। इसी तरह उन्होंने नाव एवं बड़े जहाज बनाने की विधि विस्तारपूर्वक बताई है। किस तरह खिलो को जंगरोधी किया जाये जिससे नाव को पानी में सुरक्षित रखा जा सके। इसके अतिरिक्त उन्होंने रोबोटिक्स पर भी काम किया था। उन्होंने धारा नगरी के तालाबो में यन्त्र चलित पुतलियो का निर्माण करवाया था जो तालाब में नृत्य करती थी। विश्व के अनेक महाविद्यालयो में भोज के किये गए कार्यो पर शोध कार्य हो रहा है उनके लिए यह आश्चर्य का विषय है कि उस समय उन्होंने किस तरह विमान, रोबोटिक्स और वास्तुशास्त्र जैसे जटिल विषयों पर महारत हासिल की थी। वैज्ञानिक आश्चर्य चकित है, जो रोबोटिक्स आज भी अपने प्रारम्भिक दौर में है उस समय कैसे उस विषय पर उन्होंने अपने प्रयोग किये और सफल रहे। भोज से संबंधित 1010 से 1055 ईस्वी तक के कई ताम्रपत्र, शिलालेख और मूर्तिलेख प्राप्त होते हैं। इन सबमें भोज के सांस्कृतिक चेतना का प्रमाण मिलता है।

भोज के समय मालवा क्षेत्र में निर्माण क्रांति आ गई थी। अनेक प्रसाद, मंदिर, तालाब और प्रतिमाएं निर्मित हुई। मंदसौर में हिंगलाज गढ़ तो तत्कालीन अप्रतिम प्रतिमाओं का अद्वितीय नमूना है। भोज ने शारदा सदन या सरस्वतीकंठाभरण बनवाये। भोज के नाम पर भोपाल के निकट भोजपुर बसा है। यहां का विशाल किन्तु खंडित शिवमंदिर आज भी भोज की रचनाधर्मिता और इस्लामिक जेहाद और विध्वंस के उदाहरण के रूप में खड़ा है। यहीं बेतवा नदी पर एक अनोखा बांध बनवाया गया था। इसका जलक्षेत्र २५० वर्गमील है। इस बांध को भी होशंगशाह नामक आक्रांता ने तोड़ कर झील खाली करवा दी थी। यह मानवनिर्मित सबसे बड़ी झील थी जो सिंचाई के काम आती थी।महाराजा भोज ने जहाँ अधर्म और अन्याय से जमकर लोहा लिया और अनाचारी क्रूर आतताईयों का मानमर्दन किया, वहीं अपनी प्रजा वात्सल्य और साहित्य-कला अनुराग से वे पूरी मानवता के आभूषण बन गये। मध्यप्रदेश के सांस्कृतिक गौरव के जो स्मारक हमारे पास हैं, उनमें से अधिकांश राजा भोज की देन हैं। चाहे विश्वप्रसिद्ध भोजपुर मंदिर हो या विश्वभर के शिव भक्तों के श्रद्धा के केन्द्र उज्जैन स्थित महाकालेश्वर मंदिर, धार की भोजशाला हो या भोपाल का विशाल तालाब। ये सभी राजा भोज के सृजनशील व्यक्तित्व की देन है। उन्होंने जहाँ भोज नगरी (वर्तमान भोपाल) की स्थापना की वहीं धार, उज्जैन और विदिशा जैसी प्रसिद्ध नगरियों को नया स्वरूप दिया। उन्होंने केदारनाथ, रामेश्वरम, सोमनाथ, मुण्डीर आदि मंदिर भी बनवाए जो हमारी समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर है। इन सभी मंदिरों तथा स्मारकों की स्थापत्य कला बेजोड़ है। इसे देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि एक हजार साल पहले हम इस क्षेत्र में कितने समुन्नत थे।

राजा भोज ने अपने जीवन काल में जितने अधिक विषयों पर कार्य किया है वो अत्यंत ही चकित करने वाला है। इन सभी को कार्यो को देख कर लगता है कि वो कोई देव पुरुष थे। ये सारे काम एक जीवन में करना एक सामान्य मनुष्य के बस की बात नहीं है।

*(भोज के कुछ प्रसिद्ध युद्ध)*
★. भोज चरित्र के अनुसार राजा भोज ने चालूक्य राज्य के कल्याणी राजा को युद्ध में मारा क्योंकि वो देश को एक करने के भोज के अभियान का विरोधी था ।
★. धुआरा प्रसति के अनुसार राजा भोज ने कलचूरी राजा गांगेय देव को हराया।
★. उदयपुर प्रसति के अनुसार महाराजा भोज ने उड़ीसा के राजा इंद्रदत्त को हराया जो कि उड़ीसा के सबसे ताकतवर राजा थे।
★. धुआरा प्रसति के अनुसार राजा भोज ने लता नगर के कीर्ती राजा को हराया था।
★. भोज ने महाराष्ट्र के कोकंण मुंबई सहित अनेक राजाओं को हराया।
★. कन्नौज शहर से प्राप्त हुए दस्तावेजों के अनुसार राजा भोज ने संपूर्ण उत्तर भारत बिहार सभी राज्य को हराया था।
★. ग्वालियर में स्थित सांस बहू लिपि के अनुसार ग्वालियर के राजा कीर्तीराज को हराया था।
★. भोज से राजपूताना के चौहान राजा ने भी युद्ध लड़ा पर वो भोज से हार गये इसी तरह राजा भोज ने पुरे राजपूताने पर राज्य किया।
★. राजा भोज ने चित्रकूट के किले को जीता और चित्रकूट की रक्षा की।
★. भोज ने महमूद गजनवी की सेना से युद्ध लड़ा और भारत के कई राजाओं को सहायता प्रदान की गजनवी से लड़ते हुए।
★. राजा भोज ने थानेश्वर, हांसीनगर , कोटा को मुस्लिम राजाओं की गुलामी से छुड़ाया और हिन्दू शासन की स्थापना की।
★. राजा भोज ने सय्यद सलार मसूद गाजी के विरुद्ध हांसी दिल्ली के तोमर राजपूतों और अयोध्या के बैस गहरवार राजपूतों सुहेलदेव बैस की मदद की जिससे उस आक्रमणकारी को उसकी सेना सहित नष्ट कर दिया गया।
★. सन् 1008 ई. में जब महमूद गज़नवी ने पंजाब में जंजुआ राजपूत शाही जयपाल के राज्य पर आक्रमण किया, भोज ने भारत के अन्य राज्यों के साथ अपनी सेना भी आक्रमणकारी का विरोध करने तथा शाही आनंदपाल की सहायता करने हेतु भेजी। सन् 1043 ई. में भोज ने अपने भृतिभोगी सिपाहियों को पंजाब के मुसलमानों के विरुद्ध लड़ने के लिए दिल्ली के राजा के पास भेजा। उस समय पंजाब गज़नी साम्राज्य का ही एक भाग था और महमूद के वंशज ही वहाँ राज्य कर रहे थे। दिल्ली के तोमर राजा को भारत के अन्य भागों की सहायता मिली और उसने पंजाब की ओर कूच करके मुसलमानों को हराया और कुछ दिनों तक उस देश के कुछ भाग पर अधिकार रखा।

राजा भोज के राज्य मालवा में उनके होते हुए कोई भी विदेशी आक्रांता कदम नही रख पाया वहीं राजा भोज ने सम्राट बनने के बाद पुरे देश को सुरक्षित कर महान राज्य की स्थापना की।  भोज द्वारा बसाए गये एतिहासिक शहर 'भोपाल' जो पहले 'भोजपाल' था। धार, भोजपुर सहित 84 नगरों की स्थापना राजा भोज ने की। राजा भोज द्वारा निर्मित देश का सबसे बडा तालाब भोजताल जो मध्य प्रदेश के भोपाल में स्थित है। इस तालाब के पानी से ही भोपाल आज भी अपनी प्यास बुझाता है।
       राजा भोज द्वारा निर्मित विश्व का सर्वश्रेष्ठ मंदिर माँ सरस्वती मंदिर (भोजशाला) जहाँ की सरस्वती माँ की प्रतिमा लंदन म्यूजियम में कैद है, वही सोमनाथ मंदिर, उज्जैन महाकाल मंदिर, विश्व का सबसे बडा ज्योतिरलिंग भोजेश्वर मंदिर, केदारनाथ मंदिर सहित रामेश्वरम्, सोमनाथ, मुण्डीर आदि मंदिर भी भोज ने बनवाए, जो हमारी समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर हैं। राजा भोज ने शिव मंदिरों के साथ ही मां सरस्वती के मंदिरों का भी निर्माण कराया।
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"शिवाजी गुरु समर्थ रामदास स्वामी"

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जिस समय देव दुर्लभ परम पवित्र भारत-भूमि में विदेशी शासको की धार्मिक कट्टरता अपनी पराकाष्टा पर थी, कुराज्य का बोल-बाला था, भारतीय संस्कृति का गौरवमय भविष्य अन्धकार के सिकंजो में तड़प रहा था, उस समय महार

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आचार्य श्रीरामानन्द

20 फरवरी 2023
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आचार्य श्रीरामानन्द जी एक उच्चकोटि के आध्यात्मिकमहापुरुष थे। आचार्य रामानन्दजी का जन्म कान्यकुब्जब्राह्मणकुल मे माघ-कृष्ण सप्तमी, शुक्रवार, संवत् १३२४ को प्रयाग में त्रिवेणी तट पर हुआ था। पिता का नाम

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संत नामदेव

17 मार्च 2023
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संत नामदेव का समय संवत् १३२७ वि० से संवत् १४०७ वि० है, इस पवित्र अवधि में उन्होंने दक्षिण और उत्तर भारत में संतमय की जिस प्रगाढ़ भगवद्भक्ति से परिपुष्टि की उसकी मौलिकता और अपूर्वता में तनिक भी संदेह नह

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उज्जयिनी (उज्जैन) नरेश चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य

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विक्रमादित्य का जन्म भगवान् शिव के वरदान से हुआ था। शिव ने उनका नामकरण जन्म से पहले ही कर दिया था, ऐसी मान्यता है। संभवतया इसी कारण विक्रम ने आजीवन अन्याय का पक्ष नहीं लिया। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम

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