राष्ट्र-ऋषि नानाजी यह गाथा वैदिक युग में अस्थिदान करने वाले दधीचि की नहीं है, बल्कि उस दधीचि की है, जिसे हमने अपनी आँखों देखा, अपने कानों सुना, जिसकी सुदीर्घ राष्ट्र-साधना के हम साक्षी हैं, जिसकी ऊष्मा का हमें स्पर्श मिला। इस दधीचि ने अपने जीवन का तिल-तिल, क्षण-क्षण राष्ट्रीय नवोन्मेष के लिए होम किया, जगह-जगह सर्वांगीण विकास के दीपस्तंभ खड़े किए और अंत में अपनी तपोपूत देह को शोध के लिए दान कर दिया। इस देहदानी दधीचि की पहचान है—नाना देशमुख। सच कहें तो केवल नाना। भले ही उनके माता-पिता ने उन्हें चंडिकादास नाम दिया हो, पर हजारों-हजार परिवार उन्हें स्नेही नाना के रूप में ही देखते-जानते हैं, सचमुच के जगत् नाना। नानाजी ने ग्रामीण अंचलों को पूर्णत: स्वावलंबी बनाने की एक अनुपम कार्यप्रणाली विकसित की। इसके द्वारा उन्होंने न केवल 100 ग्रामों के आर्थिक विकास और गरीबी उन्मूलन पर ध्यान केंद्रित किया अपितु सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का सफल निदान ढूँढ़ने में सफलता पाई। ग्रामीण जीवन की एक जटिल समस्या मुकदमेबाजी से ग्रामीणों की पूर्णत: मुक्ति के साथ, विशेषकर महिलाओं के सशक्तीकरण के साथ-साथ जन-जन के जीवन में भी मूल्य-आधारित बदलाव आया है। हमें विश्वास है, उस महान् आत्मा की पवित्र स्मृति को जीवंत रखते हुए यह पुस्तक देश की युवा पीढ़ी को प्रेरणा एवं मार्गदर्शन प्रदान करती रहेगी।. Read more