रेत सा समय हाथो से छूटता ही जा रहा
रेला जैसे पानी का बहता ही जा रहा
ना समझे ना समझ आया
कोई सपना बुना ओर बिखरता ही जा रहा
क्या गलत क्या सही
बस काम ही काम है
ओर ये काम भी जैसे बस होता ही जा रहा
रूठे तो रूठे किस से
अपना कोई ना नजर दूर तक आ रहा
रेत सा समय हाथो से छूटता ही जा रहा
रेला जैसे पानी का बहता ही जा रहा
कहा जो भी जिसने सब भला हमने किया
पर एक अंदर का आदमी जैसे की
मरता मरता ही जा रहा
पैसा नाम काम सब तो है
पर चाहता हूँ जो आराम
जैसे कही वो आराम दर ब दर हो गया
रेत सा समय हाथो से छूटता ही जा रहा
रेला जैसे पानी का बहता ही जा रहा
कौन है जो दे रहा अंदर से आवाज मुझे
कौन है जिसकी मैं सुनता ही नहीं
सुशील मिश्रा ‘‘क्षितिज राज‘‘