तिथि के लिए आकाश-दर्शन तथा वेधशाला का प्रयोग
(वैदिक पञ्चाङ्गपद्धति में वेधशाला तथा दृक् गणना की उपयाेगिता)
------------
हरितालिका तृतीया (तीजा) पर्व सेप्टेम्बर १ तारिख (भाद्र १५ आदित्यवार) को अथवा २ तारिख (भाद्र १६ सोमवार) को मनाना चाहिए इस विषय में विज्ञों के बीच विवाद चल रहा है । इस प्रसङ्ग में वैदिक अहोरात्रात्मक तिथि-प्रणाली में कुछ स्पष्टीकरण करना उचित हाेगा । इससे वैदिक आधार पर एक मत का पर्व दिन निर्णय करने का "वेदानुप्राणित-नवीन-पर्वनिर्णय-सिद्धान्त" तथा उसके अनुसार सार्वदेशिक- पञ्चाङ्गोपयुक्त परिपाटी स्थापित करने में सहायता होगी जिस से वैदिक सनातन धर्म तथा सनातन के अनुयायी सभी का हित हाेगा ।
इसके लिए विशिष्ट वैदिक, धर्मशास्त्री तथा ज्योतिषज्ञों का सभी देश तथा क्षेत्रों से आमन्त्रित विद्वानों की एक बृहत् विज्ञ-सभा की व्यवस्था होना उचित है ।
तिथि का १२ अंशों अन्तर से नियन्त्रित गणना का प्रचलन पश्चात् काल में (आज से लगभग १५०० वर्ष पहले) आरम्भ हुआ। उससे पहले वेदमन्त्र, ब्राह्मणग्रन्थ, श्राैतसूत्र, गृह्यसूत्र, धर्मसूत्र, वेदाङ्गज्योतिष, मनुस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति इत्यादि वेद, वेदाङ्ग, स्मृति शास्त्रों के अनुसार सभी देशों में तिथि अहोरात्र भर एक ही मानी जाती थी।
अमावास्या के ज्ञान में वेधशाला का तथा दृग्-गणित का प्रयोग---
-----------
केवल अमावास्या तिथि में ही तिथि का समाप्ति-काल (पर्वान्त-काल) का ज्ञान आवश्यक माना जाता था । इसके लिए चन्द्रमा तथा नक्षत्र को देखना आवश्यक माना गया है । वेद में नक्षत्रदर्श व्यक्ति का उल्लेख प्राप्त होता है जो चन्द्रमा तथा नक्षत्र को नियमित रूप से देखता है -- "प्रज्ञानाय नक्षत्रदर्शम्" (मा. शुक्लयजुर्वेद-संहिता ३०।१०) चन्द्रमा को देख कर उपवास करने का निर्देश भी यजुर्वेद में है-- "तद्धैके दृष्ट्वोपवसन्ति श्वो नोदेतेति" (माध्यन्दिनीय-शतपथब्राह्मण ११।१४।१।४) । आज भी वेधशाला का उपयोग अमावास्या तिथि की समाप्ति-काल को यथार्थ रूप में जानने के लिए करना चाहिए। इस प्रकार वेधशाला से अमावास्या किस दिन पडती है और चन्द्र-दर्शन किस दिन में होता है इस बात काे पता करने में सहायता लेनी चाहिए।
इसी प्रकार उत्तरायण के आरम्भ का दिन (सब से लम्बी रात सब से छाेटा दिन) तथा दक्षिणायन के आरम्भ का दिन (सबसे छाेटी रात सबे लम्बा दिन) काैन-से हैं यह जानने में भी वेधशाला की सहायता लेनी चाहिए।
गत शताब्दी के बडे ज्योतिषी वेङ्कटेश बापू जी केतकर ने ज्योतिषीय गणना के संशोधन में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया जिन्हाेंने "ज्योतिर्गणितम्", "नक्षत्रविज्ञान", "केतकीग्रहगणितम्" जैसे अनेक ज्याेतिष-ग्रन्थाें की रचना की और दृक्सिद्ध पञ्चाङ्ग-गणना की आधारशिला रखी।
आज बहूत-से पञ्चाङ्ग दृग्गणना के आधार पर ही बनते हैं। उस दृग्गणित का उपयोग भी इन आवश्यक विषयों में होना चाहिए । सूर्यग्रहण तथा चन्द्रग्रहण की गणना ताे सभी पञ्चाङ्गकार दृक् गणित सिद्धान्त से ही करते आ रहे हैं, करते ही हैं ।
अन्य तिथियों में गणना की अनावश्यकता
---------
अमावास्या के दूसरे दिन प्रतिपदा तीसरे दिन द्वितीया चाैथे दिन तृतीया पाँचवे दिन चतुर्थी इस प्रकार अन्य तिथियाँ क्रमशः आती हैं । मूल वैदिक वाङ्मय में तिथि शब्द का प्रयोग दुर्लभ है । जहाँ तिथि शब्द का प्रयोग उचित दिखाई देता है वहाँ पर अहः शब्द का अथवा अहोरात्र शब्द का प्रयोग मिलता है । जैसे “अहोरात्रेभ्यः स्वाहाऽर्धमासेभ्यः स्वाहा मासेभ्यः स्वाहा” (मा.वा.शुक्ल-यजुर्वेद २२।२८,मा.शतपथ. १०।२।६।७, तैत्तिरीय-संहिता ५।७।६।६, ७।१।१५, तैत्तिरीयब्राह्मण ३।१।४) इत्यादि स्थलों में अहोरात्र शब्द अर्धमास से सम्बद्ध दिखाई देने से तिथि का बोधक है यह स्पष्ट है । ऐसे प्रयोग अनेक हैं । वेद के अनेक प्रयोगों में अहोरात्र शब्द ही तिथि का बाेधक है । श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र, स्मृति, महाभारत इत्यादि ग्रन्थों में तिथि के अर्थ में अहः शब्द प्रयुक्त हुआ है। उक्त स्थलों में तिथि शब्द के स्थान में अहोरात्र शब्द, अहश्शब्द, दिवस शब्द, दिन शब्द इत्यादि का प्रयोग पाए जाने से वैदिक परम्परा में सामान्यतया तिथि अहोरात्रात्मक माने जाने की बात स्पष्ट होती है।
महाभारत के “नक्षत्रेऽहनि च ध्रुवे” (महाभारत १५।६३।१८) इस वचन में तिथि काे ही अहः (दिन) बताया गया है।
अहः शब्द का अर्थ तिथि हाेने की बात याज्ञवल्क्यस्मृति की व्यख्या में मिताक्षराव्याख्याकार विज्ञानेश्वर ने भी “अहस् तिथिः प्रतिपदादिः” ऐसा कहकर स्पष्ट की है (याज्ञवल्क्यस्मृति २।८५) ।
आथर्वणज्योतिष में करणों के अर्थात् तिथि के आधे काे बताने के समयं दिनभर एक करण रहने की और रातभर दूसरा करण रहने की बात पाई जाती है । इससे दो करणों से बननेवाली एक तिथि दिनभर और रातभर ही रहने की बात भी स्पष्ट होती है । इससे एक तिथि कहना और एक अहोरात्र कहना एक ही बात ज्ञात होती है ।
वैयाकरण–सिद्धान्त–कौमुदी के अव्ययप्रकरण की व्याख्या में तत्त्वबोधिनीकार ज्ञानेन्द्र सरस्वती से उल्लिखित शुक्लपक्ष के दिनों को बतानेवाला सुदि (शुदि) यह अव्यय और कृष्णपक्ष के (बलक्षपक्ष के) दिनों को बतानेवाला वदि (बदि) यह अव्यय भी तिथियाँ दिन के रूप में हैं इस बात काे (अहोरात्रात्मकता को ) बताता है।
यह सुदि और वदि लोकव्यवहार में कायस्थों से लिखे जानेवाले राजकीयादि पत्रों में निकट भूतकाल तक व्यवहारपरम्परा में प्रयुक्त होता आ रहा ही था। इससे लोकव्यवहार में भी वैदिक शास्त्रों के अनुकूल रूप में तिथियों को अहोरात्रात्मक ही मानने की परम्परा रही हुई अवगत होती है ।
वेदाङ्ज्योतिष में लगधमुनि से भी शुक्लपक्षतिथियों को और कृष्णपक्ष-तिथियों को अहोरात्रात्मक रूप में ही लिया गया ज्ञात होता है (याजुष वेदाङ्गज्याेतिष, श्लोक ९, ११)। इस लिए लगधमुनि से खण्डतिथि की कोई चर्चा नहीं की गई है । पर्वकृत्य के निर्णय के लिए ही पर्वसमप्ति का काल विशेष रूप में वेदाङ्गज्योतिष में विवेचित हुआ है । अत एव अन्य प्रतिपदा द्वितीया इत्यादि तिथियों में तिथि-समाप्ति-काल की गणना आवश्यक नहीं होती है । तिथि को एक दिन का अथवा अहोरात्र भर एक तिथि ही मान कर वैदिक लोग कर्म करते हैं । इसी लिए किसी परिशिष्टकार ने अहोरात्र भर एक तिथि मानने की व्यवस्था
दी है—
या तिथिस् तदहोरात्रं यस्मादभ्युदितो रविः ।
तया कर्माणि कुर्वीत ह्रास-वृद्धी न कारणम् ।।
इस व्यवस्था से यह बात ज्ञात होती है कि एक ही तिथि एक अहोरात्रभर रहती है, सूर्य का उदय ही इस में हेतु है, तिथि का ह्रास अथवा वृद्धि कर्म करने में कारण नहीं ।
उक्त सब विवरणों से मूल वैदिक परम्परा में तिथिवृद्धि नहीं मानी जाती है, यह बात अवगत होती है । कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को छोडकर अन्यत्र तिथिक्षय नहीं माना जाता है ।
स्फुट (स्पष्ट) तिथि तथा दृक् तिथि का अनुष्ठानाें में अनावश्यकता
--------------------
उक्त प्रकार की शास्त्रीय स्थिति में ब्रह्मगुप्तादि से प्रतिपादित स्फुट (स्पष्ट) तिथि का सिद्धान्त क्यों और कैसे वैदिक परम्परा के ज्योतिषियों से और धर्मशास्त्रियों से अपनाया गया यह एक बहुत ही बडा ज्वलन्त प्रश्न है ।
वैदिक अनुष्ठानाें के लिए अन्य तिथियाें की गणना आवश्यक नहीं हाेती है ।
दृक्-गणित तथा दृक्सिद्ध तिथियाें की भी काेइ आवश्यकता नहीं हाेती है । प्रत्युत स्फुट अथवा स्पष्ट तिथि के अनुसरण से अनुष्ठानाें में दाेष आता है । जैसे--
तिथि के क्षय हाेने के समय दाे दिनाें के अलग अलग कर्तव्य अनुष्ठान एक ही दिन में करना (जैसे अभी तृतीया की तीजा और चतुर्थी का गणेशाेत्सव एक ही दिन करने की बात आ रही है) और जाे अनुष्ठान दाे-तीन दिन अथवा नवरात्र (नाै दिन) तक लगातार करना आवश्यक हाेता है उस अखण्ड अनुष्ठान में तिथिवृद्धि के कारण बीच में एक दिन खाली रह कर खण्डित होना (और नवरात्र काे दशरात्र कर देना अथवा तिथिक्षय मानकर अष्टरात्र कर देना) -- यह भी स्फुट तिथि तथा दृक् तिथि के कारण हाेता रहता है, जाे धार्मिक अनुष्ठानों के लिए दाेष अथवा गडबडी ही है ।
वैदिक अहोरात्रात्मक तिथि-पद्धति में सितम्बर २ तारिख सोमवार तृतीया का कृत्य, ३ तारिख चतुर्थी का कृत्य तथा ४ तारिख पञ्चमी तिथि का कृत्य उचित तथा शास्त्रसम्मत होते हैं । वैदिकतिथिपत्रम् में भी एेसा ही माना गया है ।
इस प्रकार की अहोरात्रात्मक तिथि-प्रणाली को नाना-देशस्थ वेदविज्ञ ज्योतिषविज्ञ तथा धर्मशास्त्रविज्ञों की सम्मति से सभी प्रकारके पञ्चाङ्गों में नवीन स्तम्भ में समावेश करने का काम प्रारम्भ करना चाहिए । इससे वैदिक आधार पर एक मत का पर्वदिन निर्णय करने की परिपाटी स्थापित करने में सहायता होगी । अस्तु ।