क्यूं यू ही चुपचाप तुम हर जुल्म को सहते हो??
कहते हो खुद को सूरज तुम पर फिर भी अँधेरे में रहते हो....!!
छीनो हक़ को हक़ से तुम जो ये हक़ तुम्हारा है....
कहते हो खुद को नदिया तुम तो क्यूं भला नहीं बहते हो??
तुम पर्वत से भी ऊँचे हो तुम सागर से भी गहरे हो...
कहते हो खुद को वक़्त अगर तो क्यूं भला फिर ठहरे हो??
ये माना दूर है मंजिल अभी और कांटे भी है राहों में....
तपती धूप है सड़को पर और छाले भी है पाओं में....
तुम बादल हो तुम बिजली हो तुम बारिश की बूँदे हो...
खुद को दोषी मान कर फिर आंख भला क्यूं मूंदे हो??
तुममें तुम जो रहता है वो तुमसे ही कुछ कहता है...
के तुम भी तुम अब बन जाओ तुम भी तुम अब कहलाव....
ये माना धुंद है राहों पर और बेड़ियां भी है पाओं पर...
मरहम लिए है कोई नहीं सब नमक लिए हैं घाव पर....
अगर बिखर गए तो रेत हो तुम ...
अगर लहराए तो खेत हो तुम ...
अगर बुझ गए तो राख हो तुम...
और अगर दहक उठे तो आग हो तुम...
बहुत हो सोये अब जागो तुम...
आज कुछ ऐसा कर डालो...
अब तक बदला वक़्त ने तुम्हे....
अब तुम वक़्त बदल डालो...
संतोष शर्मा