दोस्तों जीवन की सच्चाई पर आधारित मेरी एक और नई रचना आप सबके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ... जिसे पढ़ कर आप सबको भी लगेगा की कहीं ना कहीं ये आप सबके जीवन में भी है... तो इसको पढ़िए और आप सबको कैसी लगी प्लीज हमें कमैंट्स में जरूर बताएगा...
**वो कौन सी हैं उलझने जिनको सुलझा रहे हैं???*
*वो कौन सी हैं उलझने जिनको सुलझा रहे हैं???**
दुनिया की इस भीड़ में बस चले जा रहे हैं...
ना मंजिल का पता हैं ना रास्तों की खबर है...
बेचैन हर मन है दिल देखता जिधऱ है....
सहमा हुआ हर इंसान है
सहमी हुई आशाएं हैं
बस यूँ ही घुट घुट कर हम जिए जा रहे हैं
*वो कौन सी हैं उलझने जिनको सुलझा रहे हैं???*
क्या हैं हम..
और हैं क्या हम....
दोनों में बड़ा फर्क है....
समझ सको तो समझ लो
मेरा जो ये तर्क है....
दुनिया की इस झूटी शान में
हम खुद को भुला रहे हैं....
*वो कौन सी हैं उलझने जिनको सुलझा रहे हैं???*
छूट गए वो बचपन के खेल
छूट गए हैं यार वो अब
डूब गई वो कागज की कस्ती
डूब गई पतवार वो अब...
खो चुके हैं क्या
और क्या हम पा रहे हैं.???
*वो कौन सी हैं उलझने जिनको सुलझा रहे हैं????*
*संतोष शर्मा*