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सत्य की प्यास का प्रवचन - 06

15 अक्टूबर 2021

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अभय

मेरे प्रिय आत्मन्!

सत्य की खोज में पिछले तीन दिनों से कौन सी भूमिकाएं आवश्यक हैं, कौन सी शर्त पूरी करनी होगी, स्वतंत्रता, सरलता और शून्यता की तीन सीढ़ियों पर मैंने आपसे बात की। इस संबंध में बहुत से प्रश्न उठे हैं, कुछ प्रश्नों पर भी मैंने अपना विचार आपको कहा। अभी भी बहुत से प्रश्न बाकी हैं, उनमें से कुछ पर अभी आपसे चर्चा करूंगा।

मनुष्य का चित्त स्वतंत्र न हो, तो सत्य को कभी भी नहीं जान सकता है। इस संबंध में ही बहुत से प्रश्न आए हैं।

हमारी सोचने की जो गुलाम पद्धति है, सोचने का जो परतंत्र रास्ता है, हर चीज के लिए दूसरे की तरफ देखने की जो आदत है, उसके कारण ही ये सारे प्रश्न उठते हैं। मनुष्य साधारणतः उधार विचारों पर जीता है। बारोड, दूसरों से लिए हुए विचारों पर जीता है। उसके अपने कोई विचार नहीं होते, उसकी अपनी कोई मौलिक चिंतना नहीं होती।

यदि मैं आपसे कहूं कि कभी अपने विचारों पर ध्यान करें और देखें कि कोई एकाध विचार भी आपने अपने जीवन में जाना है और जीआ है? कोई एकाध विचार भी आपका अपना है? शायद आपको पता चले कि एक भी विचार मेरा अपना नहीं। और जिसके सब विचार उधार हों, अगर उसकी आत्मा दरिद्र रह जाए, तो इसमें कसूर किसका है? अगर उसका जीवन आंतरिक रूप से खोखला, थोथा और खाली-खाली हो, तो जिम्मेवारी किसकी है? एक भी विचार अपना न हो, यह ऐसे ही है जैसे कोई किसी दूसरे की संपत्ति को गिनता रहे। गिनती तो अपनी हो और संपत्ति दूसरे की हो। तो वैसी गिनती से कोई समृद्ध बनेगा? कोई समृद्धि आएगी?

विचार के जगत में भी हम दूसरों के विचारों की गिनती करते रहते हैं। गीता में क्या है, और कुरान में, और बाइबिल में। और कौन महापुरुष ने क्या कहा है इसको तो स्मरण कर लेते हैं, लेकिन कभी क्या इस बात को सोचा कि जो विचार मेरा नहीं है वह जीवंत नहीं हो सकता, लिविंग नहीं हो सकता, वह मुर्दा और जड़ होगा। और यदि मस्तिष्क में सब मुर्दा विचार इकट्ठे हो जाएं, तो आदमी जीते जी जीवन को खो दे तो इसमें आश्चर्य क्या है! हम सारे लोग करीब-करीब मुर्दों को भांति जीते हैं। क्योंकि जीवन की को चिनगारी, कोई स्वतंत्र चिंतन का जन्म हमारे भीतर नहीं होता। हम देखने को जीवित मालूम होते हैं, लेकिन हमारा चित्त बिल्कुल मुर्दा है। चित्त मुर्दा है इसलिए, यह जो माइंड है हमारा यह डेड, यह मुर्दा है इसलिए कि हम केवल उधार विचारों को संगृहीत किए हुए हैं।

उधार विचार से ज्ञान नहीं आता। उधार विचार से केवल स्मृति भर जाती है, मेमोरी भर जाती है। मेमोरी और नालेज में, ज्ञान और स्मृति में बहुत फर्क है। स्मृति तो एक यांत्रिक व्यवस्था है। हम कुछ भी सीख कर स्मृति में इकट्ठा करते चले जाते हैं। यह इकट्ठा हुआ, न तो ज्ञान है और न जीवित है।

एक छोटी सी कहानी कहूं।

जीसस क्राइस्ट एक झील के पास से निकलते थे। उस झील में सुबह-सुबह मछुए मछलियां मार रहे थे। एक जवान मछुए के कंधे पर जीसस क्राइस्ट ने हाथ रखा और कहा, मेरे मित्र, कब तक मछलियां ही मारते रहोगे? जिंदगी में कुछ और भी करने जैसा नहीं दिखाई पड़ता? कहा कि कब तक मछलियों पर ही जाल फेंकते रहोगे? मेरे साथ आओ, मैं तुम्हें उस सागर में जाल फेंकना सिखा दूंगा जहां परमात्मा भी फंस जाता है। वह मछुआ भी अजीब हिम्मत का आदमी रहा होगा। इतनी हिम्मत के लोग बहुत कम होते हैं। और जिन लोगों में इतनी हिम्मत नहीं होती, उनके जीवन में कभी धर्म का अवतरण भी नहीं होता। वह बड़ी हिम्मत का और साहस का आदमी रहा होगा। उसने जाल जो पानी में फेंका था उसे पानी में ही छोड़ दिया, क्राइस्ट के पीछे हो लिया। वे गांव के बाहर भी नहीं पहुंच पाए थे। गांव से कोई आदमी दौड़ता हुआ आया और उसने उस मछुए को कहाः तू कहां जा रहा है? तेरा पिता जो बीमार था, अभी-अभी उसकी श्वासें टूट गईं, वह समाप्त हो गया, मर गया, घर वापस चलो।

उस मछुए ने क्राइस्ट से कहाः मुझे दो-चार दिन की छुट्टी दे दें, मैं अपने पिता का अंतिम संस्कार कर आऊं और फिर वापस लौट आऊंगा।

क्राइस्ट ने कहाः जाना हो तो जाओ। वैसे मैं कोई जरूरत नहीं देखता हूं। क्योंकि गांव में बहुत मुर्दे हैं वे उस मुर्दे को दफना लेंगे, तुम बहुत परेशान मत होओ। लेट दि डेड वरि दि डेड। क्राइस्ट ने कहाः मुर्दे हैं उनको दफना लेने तो मुर्दे को, तुम परेशान मत होओ।

वह बहुत हैरान हुआ। उसने कहाः गांव में मुर्दे! क्या आप सारे लोगों को मुर्दा समझते हैं?

क्राइस्ट समझते होंगे सारे लोगों को मुर्दा। क्यों समझते होंगे मुर्दा? जिनके चित्त उधार हैं वे जीवित नहीं हो सकते।

एक सुबह बुद्ध के पास एक अस्सी वर्ष का बूढ़ा भिक्षु आया। बुद्ध ने पूछाः तेरी उम्र क्या है?

उस भिक्षु ने कहाः पांच वर्ष!

बुद्ध हैरान हुए। और भी भिक्षु थे वे हैरान हुए। अस्सी वर्ष का बूढ़ा था। उसने कहाः पांच वर्ष!

बुद्ध ने पूछाः में समझ नहीं पाया, दुबारा कहो।

उस बूढ़े आदमी ने कहाः पांच वर्ष!

बुद्ध ने कहाः किस हिसाब से गिनती करते हो।

उस बूढ़े आदमी ने कहाः इधर पांच वर्षों से मैं जीवित हुआ हूं, इसके पहले पचहत्तर वर्ष मैंने उधारी में बिताए, उनको मैं जिंदगी में नहीं गिनता हूं।


बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से कहाः याद रख लो इस घटना को। और आज से मेरे भिक्षुओं की उम्र उसी दिन से गिनी जाए जिस दिन से उनके जीवन में विचार का जन्म हो, उसके पहले कि उम्र गिनने की कोई भी आवश्यकता नहीं है।


तो मैं आपसे निवेदन करता हूं, वह चित्त जो उधार और दूसरों के विचारों से भरा है, मुर्दा है। और उस मुर्दा चित्त को लेकर, उस डेड माइंड को लेकर हम जीवन में चलेंगे, तो निश्चित ही जीवन में सब उलझन हो जाएगी, सब समस्या हो जाएगी, समाधान कोई भी नहीं हो सकता। हमारी जिंदगी पूरी की पूरी समस्याओं से भरी है। और समाधान एक भी नहीं। क्या बात है? बात इतनी सी है, हमारे पास वह जीवित चित्त नहीं जो समस्याओं को हल कर ले और समाधान दे दे। मुर्दा चित्त है, उससे कुछ समस्या समाधान होती नहीं, उससे तो और समस्याएं पैदा होती चली जाती हैं। मुर्दा चित्त सिखा हुआ चित्त होता है।


जापान के एक गांव में दो मंदिर थे। एक उत्तर का मंदिर कहलाता था और दूसरा दक्षिण का। एक-दूसरे के विरोध में थे। जैसे कि सभी मंदिर एक-दूसरे के विरोध में होते हैं। इतना ज्यादा विरोध था कि मंदिर के पुजारी आपस में अनेक वर्षों से कभी मिले नहीं थे। वह विरोध अनेक वर्षों का नहीं था, सैकड़ों वर्षों का था। पीढ़ी दर पीढ़ी दुश्मनी चली थी। सभी धार्मिक लोगों की दुश्मनी पीढ़ी दर पीढ़ी चलती है।


आपके पड़ोस में कोई मुसलमान रहता है, मुसलमान के पड़ोस में कोई हिंदू रहता है, हिंदू के पड़ोस में कोई ईसाई रहता है, इनकी क्या दुश्मनी है? लेकिन पीढ़ी दर पीढ़ी मूर्खताएं चलती हैं। ईसाई होने से वह हिंदू का दुश्मन हो जाता है, मुसलमान होने से ईसाई का दुश्मन हो जाता है। दुश्मन हमारी सीधी नहीं होती, पीढ़ी दर पीढ़ियों से चलती है। उन दोनों मंदिरों के पुजारियों में भी सैकड़ों वर्षों से दुश्मनी चल रही थी। पुजारी बदल गए, मंदिर बदल गए, लेकिन दुश्मनी कायम थी। दुश्मनी यहां तक थी कि दोनों मंदिरों के पुजारियों के पास, दो छोटे-छोटे लड़के थे छोटे-मोटे काम करने के लिए। अब लड़के तो लड़के हैं, बूढ़े उनको बिगाड़ने की कोशिश तो करते हैं लेकिन फिर भी वक्त लगता है। एकदम से बूढ़े बच्चों को बिगाड़ नहीं पाते। वे दोनों बूढ़े पुजारी भी उन बच्चों को कहते थे कि दूसरे मंदिर में कभी मत जाना। लेकिन बच्चे तो बच्चे हैं, कभी झांक कर देख लेते हैं। बल्कि जहां निषेध किया जाता है, बच्चों का जानने का आकर्षण सहज ही बढ़ जाता है। शायद उनसे किसी ने न कहा होता कि दूसरे मंदिर में मत झांकना, तो शायद वे न भी झांकते। लेकिन बच्चे तो बच्चे हैं। उनको जब कहा गया कि दूसरे मंदिर में मत झांकना, तो वे चोरी से कभी-कभी झांक कर देख भी आते थे कि बात क्या है दूसरे मंदिर में? उनके पुजारियों ने कहा था कि दूसरे मंदिर के लड़के से बातचीत भी मत करना। हमारे मंदिर बोलचाल पर नहीं हैं बहुत दिनों से। दुनिया के कोई मंदिर दूसरे मंदिरों से बोलचाल पर नहीं है। बोलचाल बंद है। ये जितने परमात्मा की बातें करने वाले लोग हैं, और परमात्मा के नाप पर मंदिर बनाए हुए हैं, इनके मंदिर एक-दूसरे से बोलचाल नहीं करते हैं, बोलचाल बंद है। हां, शास्त्रार्थ करते हैं, अगर उसको कोई बोलचाल कहता हो। लड़ाई-झगड़ा कहते हैं, अगर उसको कोई बोलचाल कहता हो। लेकिन बोलचाल पर नहीं। वे दोनों मंदिर भी नहीं थे।


एक दिन सुबह-सुबह दोनों मंदिरों के दोनों लड़के बाजार सब्जी लेने जाते थे। रास्ते पर दोनों का मिलना हो गया। उत्तर के मंदिर के लड़के ने दक्षिण के मंदिर के लड़के से कहाः कहां जा रहे हो? व्हेयर आर यू गोइंग?


पुजारी और पुरोहितों के पास रहते-रहते बच्चे भी ऊंची-ऊंची बातें करना सीख गए थे। बीमारियां संक्रामक होती हैं। ऊंची बातें भी संक्रामक होती हैं।


उस दक्षिण के मंदिर के लड़के ने कहाः पूछा उत्तर के मंदिर के लड़के ने, कहां जा रहे हो? दक्षिण के मंदिर के लड़के ने कहाः जहां पैर ले जाएं।


बड़ा दार्शनिक उत्तर दिया, बड़ा फिलासफिकल। उत्तर का मंदिर का लड़का रह गया कि अब और बात आगे क्या चलाएं। वापस लौट गया। उसने अपने पुजारी को जाकर कहा कि आज मैंने पूछा था उस मंदिर के लड़के से कहां जा रहे हो? उसने बड़ी ऊंची बात कह दी, उसने कह दिया, जहां पैर ले जाएं। फिर मुझे कुछ भी नहीं सूझा, मैं वापस लौट आया।


उस पुजारी ने कहाः तूने बहुत बड़ी गलती की। हम कभी उस मंदिर से हारे नहीं हैं। और यह तो हार हो गई। कल तू फिर पूछना कहां जा रहे हो? और जब वह कहे जहां पैर ले जाएं, तो तू कहना कि अगर पैर तेरे होते ही न तो फिर भी कहीं जाता की नहीं? यह तू कह देना।


लड़का तैयार उत्तर लेकर गया। दूसरे दिन फिर उसी जगह खड़ा हो गया। वह दक्षिण का मंदिर का लड़का निकला, उसने पूछा, कहां जा रहे हो? उत्तर तैयार था। वह अगर कहता कि जहां पैर ले जाएं, तो वह पूछता कि अगर पैर होते ही नहीं तो कहां जाते? फिर जाते या नहीं जाते? फिर जिंदगी में जाना होता कि नहीं होता? लेकिन वह लड़का बहुत गड़बड़ था। वह दक्षिण के मंदिर के लड़के ने कहाः जहां हवाएं ले जाएं। उसने कहाः जहां हवाएं ले जाएं।


अब बड़ी मुश्किल हो गई। बंधा हुआ उत्तर अटका रह गया, अब क्या कहें? वह लड़का वापस लौटा, उसने अपने गुरु को आकर कहाः आज फिर हार गया हूं, वह लड़का तो बहुत बेईमान है। उसने तो उत्तर ही बदल लिया। उसके गुरु ने कहाः यह तो बहुत बुरी बात है। उस मंदिर से हम कभी हारे नहीं। कल तू फिर पूछना। पूछना कि कहां जा रहे हो? और जब वह कहे जहां हवाएं ले जाएं, तो उससे कहना कि अगर हवाएं बंद हों तो फिर कहीं जाओगे कि नहीं? जाओ।


दूसरे दिन वह लड़का फिर गया। तैयार उत्तर साथ में लेकर। उसी जगह खड़ा हो गया। प्रतीक्षा करने लगा। वह मंदिर का लड़का निकला, दूसरे मंदिर का। उसने पूछा कहां जा रहे हो? उस लड़के ने कहाः साग-सब्जी खरीदने। फिर बात वहीं अटक गई। वह उत्तर बेकार हो गया।


सीखे हुए उत्तर हमेशा बेकार हो जाते हैं। जिंदगी रोज बदल जाती है। सीखे हुए उत्तर मुर्दा होते हैं। जिंदगी जीवित है, रोज बदल जाती है। वह लड़का बेईमान नहीं था, जीवित लड़का था। वह उत्तर बदल नहीं रहा था, जिंदगी रोज बदल जाती है, इसमें कोई करेगा क्या। जिंदगी है गतिवान, डाइनैमिक, सब बदल जाता है। और हमारे उत्तर बदलते नहीं। और जब हम जिंदगी के सामने अपने बंध-बंधाए उत्तर लेकर खड़े होते हैं, जिंदगी बदल जाती है, उत्तर ओछे पड़ जाते हैं, उत्तर बेकार हो जाते हैं, जिंदगी उलझ जाती है, समस्याएं खड़ी हो जाती हैं।


मनुष्य का जीवन उलझा हुआ है, इसलिए नहीं कि उसके पास समाधान नहीं है, बल्कि इसलिए कि उसके सब समाधान पुराने, उधार, बासे और झूठे हैं, दूसरों से लिए हुए हैं। उसका कोई समाधान उसके चित्त से पैदा नहीं होता। अगर हम जिंदगी का सीधा साक्षात कर सकें, फेस टु फेस एनकाउंटर हो सके, जिंदगी को सामने से देख सकें, और बीच में उधार और बासे उत्तरों को न लें, तो हमारे चित्त में इतनी क्षमता है कि वह जीवित, सचेतन चित्त जो समाधान देगा, वह जीवन की सारी समस्याओं को परिवर्तित कर देता है, बदल देता है। ऐसा चित्त चाहिए जो उधार विचारों से दबा हुआ न हो, जो किसी के सीखे हुए उत्तर लेकर जिंदगी को हल करने न चला गया हो। ऐसा चित्त चाहिए यंग और फ्रेश, जवान और ताजा कि जिंदगी को सीधा ले सके, जिंदगी के सामने खुद को खड़ा कर सके, जिंदगी के सामने चित्त को दर्पण की भांति ला सके बिना किसी धुल के, तो उस दर्पण में जो जिंदगी की छवि बनती है उससे समस्याएं नहीं उठतीं जीवन को समाधान उपलब्ध होते हैं।


लेकिन हमारा चित्त है धुल से भरे हुए दर्पण की भांति। और उस धुल को हम ज्ञान समझते हैं। और उस धुल को हम समझते हैं कि यह ज्ञान है, परम ज्ञान है शास्त्रों का, सिद्धांतों का, गुरुओं का। मैं आपसे निवेदन करूं, ज्ञान तो केवल वही होता है जो स्वयं उपलब्ध होता है, बाकी कोई भी ज्ञान ज्ञान नहीं होता। इससे यह मतलब न लें।


 


पूछा है किसी ने कि क्या हम इससे यह समझ लें कि सब शास्त्र झूठे हैं?


 


यह किसने कहा आपसे? सब शास्त्र झूठे नहीं हैं। लेकिन जो भी उधार लिया जाता है वह झूठा होता है। जिसने कहा होगा, जिसने गीता कही होगी, उसके लिए गीता सत्य होगी, लेकिन आपके लिए सत्य नहीं है। जिसने कुरान कहा होगा, उसके लिए कुरान सत्य होगा, लेकिन आपके लिए सत्य नहीं है। सत्य उसका होता है जो उसे जानता और जीता है, उसका नहीं जो शब्दों से उसे पकड़ लेता है। शब्द झुठला देते हैं, शब्द मुर्दा हो जाते हैं, शब्द जीवित नहीं होते।


गीता पर हजार टीकाएं हैं, कृष्ण का दिमाग खराब था क्या कि उन्होंने एक ही बात कही, हजार मतलब रहे होंगे उसमें? कृष्ण का तो एक ही अर्थ रहा होगा अगर दिमाग ठीक रहा हो तो। अगर दिमाग खराब रहा हो तो उसके कितने ही अर्थ रहे होंगे। कृष्ण का तो दिमाग ठीक था, अर्थ भी एक रहा होगा, लेकिन ये हजार अर्थ कैसे निकल आए? और जिन्होंने ये हजार अर्थ निकाल लिए ये कृष्ण के अर्थ रहे या इनके अपने अर्थ हो गए? और अभी हजार अर्थ और निकल आएंगे। क्योंकि एक बीमारी फैली हुई है, कि जो गीता पर टीका न लिखे वह गुरु नहीं है, ज्ञानी नहीं है। इसलिए जिनको भी गुरु और ज्ञानी होने का पागलपन सवार होता है वे गीता पर टीका जरूर लिखते हैं। तो बढ़ती जाती हैं टीकाएं। ये किसके अर्थ हैं? ये कृष्ण के अर्थ हैं या उनके जो गीता पर टीकाएं लिख रहे हैं? ये गीता पर टीका लिखने वालों के अर्थ हैं, ये कृष्ण के अर्थ नहीं हैं। और कृष्ण का अर्थ आप कैसे जान सकते हैं बिना कृष्ण हुए? चेतना जब तक कृष्ण की स्थिति में न पहुंचे तब तक कृष्ण का अर्थ जाना नहीं जा सकता। क्योंकि अर्थ जानने वाले मन का तन ही तो अर्थ बताने वाला होगा।


मैं यहां बोल रहा हूं, तो आप सोचते होंगे कि आप सभी एक ही बात सुन रहे हैं तो आप गलती में हैं। यहां जितने लोग हैं उतनी बातें सुनी जा रही हैं, बोल तो मैं एक रहा हूं। बोलने वाला एक है। लेकिन यहां उतनी बातें सुनी जा रही हैं जितने लोग सुनने वाले हैं।


तो किताब जब आप पढ़ते हैं या किसी को जब आप सुनते हैं, तो इस ख्याल में न रहें कि आपने उसको समझ लिया, आप अपना ही अर्थ निकालते हैं और खोजते हैं, वह अर्थ आपका होता है, इसलिए वह अर्थ एकदम झूठा होता है।


गीता झूठी नहीं है, लेकिन गीता पढ़ कर आप जो भी समझेंगे वह झूठा होगा। क्योंकि आप कृष्ण नहीं हैं। तो मैं यह कहता हूं कि गीता पढ़ने से आप ज्ञान को उपलब्ध नहीं होंगे। बल्कि कृष्ण जैसी चेतना आपके भीतर उत्पन्न हो जाए, तो आप ज्ञान को उपलब्ध होंगे। और उस दिन अगर गीता को भी पढ़ेंगे, तो वह भी ज्ञान बन जाएगी।


इसलिए यह नहीं कह रहा हूं कि जो कहा गया है वह असत्य है, लेकिन जो भी आप समझेंगे वह असत्य होगा। समझने वाले चित्त पर सब कुछ निर्भर है। और यह समझने वाला चित्त अगर उधार विचारों से भरा है तो यह कुछ भी नहीं समझ सकता। समझने के लिए चाहिए ताजगी, फ्रेशनेस चाहिए। चित्त निर्मल, साफ, मौन, विचारों से मुक्त चाहिए। जहां विचारों के बादल घिरे होते हैं वहां चेतना का सूरज ढंक जाता है। और जहां विचारों के बादल विदा कर दिए जाते हैं, वहां चेतना का सूरज खुले आकाश में प्रकट होता है। अगर अपने चित्त को खुले हुए सूरज की भांति बनाना है, तो विचारों के जाल से उसे छुड़ाना जरूरी है। तभी वह चित्त प्रकाशित होकर जानने में समर्थ हो पाएगा।


इसलिए मैंने कहा कि चित्त स्वतंत्र होना चाहिए। लेकिन आपको घबड़ाहट लगती होगी, इसलिए सारे प्रश्न करीब-करीब इसी संबंध में, आपको घबड़ाहट लगती होगी कि अगर चित्त स्वतंत्र हो गया, तो कई तरह की घबड़ाहटें लगती होंगी। दो-तीन भय लगते होंगे। पहला तो भय यह है कि अगर हमने यह समझ लिया कि दूसरों से जो ज्ञान मिला है वह झूठा है। तो हम अज्ञानी सिद्ध हो जाएंगे, क्योंकि अपना तो कोई ज्ञान नहीं है। अज्ञानी होने को कोई राजी नहीं है। यह भय लगता है, यह फियर लगता है। कि अगर सारा ही ज्ञान हमारा उधार है, और उसी के बल पर हम ज्ञानी बने हुए हैं, तो अगर हमने यह जान लिया कि यह उधार ज्ञान व्यर्थ है, तो फिर तो हम तो कोरे हाथ रह जाएंगे, खाली हाथ रह जाएंगे, हमारे पास तो कुछ बचेगा नहीं, फिर तो हम अज्ञानी हो जाएंगे।


अज्ञानी होने से डरे हुए हैं आप। आपको न शास्त्रों से मतलब है, न गीता से, न कृष्ण से, न राम से, आपको किसी से मतलब नहीं है। उन्हीं से मतलब होता तो आपकी जिंदगी दूसरी हो गई होती। उनसे कोई मतलब नहीं है, मतलब अपने से है। अपने पांडित्य का कहीं महल गिर न जाए, इसलिए घबड़ाहट होती है। इसलिए पच्चीस बहाने लिखे हैं, लिखा है कि अगर सभी लोग स्वतंत्र हो गए, और सभी पुराना ज्ञान गलत हो गया तो दुनिया में अज्ञान हो जाएगा। दुनिया में अज्ञान नहीं होगा, आप अज्ञानी हो जाएंगे। खुद घबड़ाए हुए हैं कि कहीं मैं अज्ञानी न हो जाऊं। और आप अज्ञानी हैं। उस समय तक आदमी अज्ञानी हैं जब तक वह दूसरों के विचारों को पकड़ने को उत्सुक बना रहता है।


जिसके पास ज्ञान का जन्म होता है उसे दूसरों के विचार पकड़ने की कोई जरूरत नहीं रह जाती, उसके पास अपना प्रकाश होता है।


एक रात एक अंधा आदमी अपने मित्र के घर में मेहमान हुआ। जब रात को वह विदा होने लगा, तो उसके मित्र ने कहा कि साथ में एक लालटेन लेते जाएं, रास्ता अंधेरा है। वह आदमी तो अंधा था। उस अंधे आदमी ने कहा कि बड़े पागलपन की बातें कर रहे हो, हाथ में मेरे लालटेन हो या न हो, दोनों हालत में मेरे लिए अंधेरा ही रहेगा, मैं तो अंधा हूं, तो लालटेन ले जाकर क्या करूंगा? उसकी बात तो सही थी। अंधे आदमी को लालटेन भी पकड़ा दो तो फायदा क्या है? उसे तो अंधेरा ही है, चाहे लालटेन हो, चाहे न हो। चाहे सूरज हो, चाहे न हो। उसने ठीक ही कहा, लेकिन वे घर के लोग बड़े समझदार थे, उन्होंने उसको समझाया, उन्होंने कहा, यह तो ठीक है कि तुम्हारे हाथ में लालटेन होने से तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन कम से कम दूसरे लोगों को दिखाई पड़ता रहेगा कि तुम आ रहे हो, तो वे तुमसे न टकराएंगे। कम से कम इतना फायदा तो हो ही जाएगा। अंधे आदमी को मान लेना पड़ा कि यह बात तो ठीक है, दूसरों लोग न टकराएं यह भी बहुत। वह लालटेन लेकर गया, लेकिन बीस ही कदम गया होगा, पच्चीस कदम कि कोई टकरा गया।


वह बहुत हैरान हुआ। उसने कहा कि क्या मेरे मित्र की दलील गलत हो गई? उसने टकराने वाले से पूछा कि महानुभाव, क्या बात है? क्या आपके भी पास आंखें नहीं हैं? यह हाथ की लालटेन दिखाई नहीं पड़ती? उस दूसरे आदमी ने कहाः महानुभाव, आपकी लालटेन बुझ गई है। अब अंधे आदमी को कैसे पता चले कि लालटेन बुझ गई है? लेकिन उस अंधे आदमी को भी एक बात पता चल गई कि कोई टकराया है। हम उस अंधे आदमी से ज्यादा अंधे हैं। अपनी गीता की लालटेन लिए है, कोई कुरान की लालटेन लिए हुए है, कोई और बाइबिल की लालटेन लिए हुए चले जा रहे हैं। और रोज टकरा रहे हैं। लेकिन कोई यह नहीं पूछता कि कहीं लालटेन बुझी हुई तो नहीं है? और एक बात तय है, अगर लालटेन बुझी हुई न हो, तो टकराना नहीं हो सकता। लेकिन टकराना हो रहा है। हिंदू मुसलमान से टकरा रहा है, मुसलमान ईसाई से टकरा रहा है। मतलब क्या है? मतलब यह है कि हाथ में बुझी हुई लालटेन है। बुझी हुई लालटेन और अंधों के हाथ में हैं और टकराहट रोज हो रही है। लेकिन अगर कोई यह कहे, अंधे आदमी को जाकर समझाए कि फिजूल इस लालटेन का वजन तू ढो रहा है।


सवाल दूसरों की लालटेन ढोने का नहीं है, सवाल अपने पास आंखें होने का है। अगर अपने आप आंखें नहीं हैं तो लालटेन दूसरे की कितनी देर जली हुई रहेगी? उसका कितना भरोसा है? उसके जले रहने की कितनी, कितनी निश्चिंतता हो सकती है? कितनी सिक्योरिटी हो सकती है?


सच तो यह है कि बाहर के जगत में जो हम लालटेन जला कर दूसरे को दे देते हैं, वह तो थोड़ी-बहुत देर जल भी जाएगी, क्योंकि वह लालटेन बाहर है, लेकिन आत्मा के जीवन में जो लालटेन जलती है वह तो दूसरे के हाथ में देते ही बुझ जाती है, एक क्षण भी दूसरे के हाथ में जली हुई नहीं रहती। क्योंकि उसको जलाने के लिए खुद के प्राणों का तेल देना पड़ता है। वह दूसरा आदमी देने को तैयार न हो तो कैसे जली रहेगी? इसलिए आत्मिक जीवन का प्रकाश देते ही दूसरे आदमी के हाथों में अंधकार हो जाता है। कोई रास्ता नहीं है टरंसफर करने का आत्मिक प्रकाश को, उसको हस्तांतरित करने का कोई रास्ता नहीं है। अब तक नहीं है, आगे भी नहीं होगा।


और भगवान न करे कि कभी यह रास्ता हो जाए। क्योंकि जिस दिन आत्मिक ज्ञान भी ट्रांसफर किया जा सकेगा उस दिन उसकी भी दुकानें बन जाएंगी और बिक्री शुरू हो जाएगी। और जो ज्ञान बिकता हुआ मिल जाए बाजार में वह दो कौड़ी का हो जाता है, उसका कोई मूल्य नहीं है। आत्मिक ज्ञान कभी भी दिया-लिया नहीं जा सकता।


 


एक प्रश्न पूछा है कि जब आत्मिक ज्ञान दिया-लिया नहीं जा सकता, तो आप मेहनत क्यों कर रहे हैं? आप क्यों समझा रहे हैं कुछ बातें? जब समझाई नहीं जा सकतीं।


 


बहुत ठीक बात पूछी है कि जब आत्मिक ज्ञान दिया-लिया नहीं जा सकता, तो मैं क्यों श्रम कर रहा हूं? क्यों आपको इतनी बातें कह रहा हूं? बिल्कुल ही ठीक है। आत्मिक ज्ञान नहीं दिया-लिया जा सकता। लेकिन यह बात तो कही जा सकती है कि आत्मिक ज्ञान लिया-दिया नहीं जा सकता। यह बात जरूर कही जा सकती है।


आत्मिक ज्ञान आपको दे भी नहीं रहा हूं। और जो मैं दे रहा हूं अगर उसको कोई आत्मिक ज्ञान समझ ले, तो वह गलती में है। वही गलती तो हजारों साल से जल रही है।


मैं आपको आत्मिक ज्ञान नहीं दे रहा हूं। मैं तो केवल उन थोड़ी सी बातों की चर्चा कर रहा हूं जिनके कारण आपके भीतर जो आत्म-ज्ञान है वह प्रकट नहीं हो पा रहा है। मैं तो केवल हिंडरेंसिस की बातें कर रहा हूं, उन बीच की रुकावटों की, बाधाओं की बातें कर रहा हूं, जिनके कारण आत्म-ज्ञान नहीं मिल रहा है। उन बाधाओं की बात की जा सकती है। उन बाधाओं की बात की जा सकती है जिनके कारण आपके भीतर छिपा हुआ दीया प्रकट नहीं हो पा रहा है। आपको दीया नहीं दिया जा सकता, आपको आलोक नहीं दिया जा सकता, लेकिन आलोक पर कौन से पर्दे हैं उनकी बात की जा सकती हैं। और अगर वे पर्दे ठीक से आपके विवेक में आ जाएं, आपके विश्वास में नहीं। मैं जो कह रहा हूं उस पर आप विश्वास कर लें तो कोई फर्क न पड़ेगा। क्योंकि विश्वास खुद ही एक पर्दा है, जो भीतर के दीये को छिपाए हुए है। संदेह तोड़ सकता है उस पर्दे को, लेकिन विश्वास तो उसको मजबूत कर देता है।


तो मैं जो कर रहा हूं वह आपको कोई आत्म-ज्ञान नहीं दे रहा हूं। कह रहा हूं कुछ बातें जिनके कारण आत्म-ज्ञान के होने में बाधा है। और सबसे बड़ी बाधा है विश्वास के कारण। जो लोग भी बिलीफ कर लेते हैं वे लोग कभी सत्य को उपलब्ध नहीं होते।


लेकिन कहा है, पूछा है, प्रश्न पूछे हैं कई, कि विश्वास करने से तो बड़ी शांति मिलती है। शराब पीने से भी बड़ी शांति मिलती है। सो जाने से भी बड़ी शांति मिलती है। संगीत सुनने से भी बड़ी शांति मिलती है। माफिया का इंजेक्शन लगा कर सो जाओ, लेटे रहो तो भी बड़ी शांति मिलती है। लेकिन इस शांति को क्या करेंगे? इस शांति का कोई मतलब नहीं है। विश्वास अफीम है। उससे शांति इसलिए नहीं मिलती कि आपको शांति मिल गई, बल्कि उस नशे में अशांति भूल जाती है। नशे में अशांति भूल जाती है। विश्वास से कोई शांति मिलती नहीं केवल शांति का धोखा पैदा हो जाता है।


 


पूछा हैः विश्वास तो फलदायी है।


 


जरूर, एक भिखारी आदमी को अगर विश्वास दिला दिया जाए कि तू बादशाह है, और वह अपने को बादशाह समझने लगे तो बड़ा फलदायी है। क्योंकि भिखारीपन की तकलीफ मिट गई, बिना कुछ किए बादशाह हो गया। और अगर वह भिखारी चिल्लाने लगे गांव में कि मैं बादशाह हो गया हूं, तो उसको तो पूरी शांति मिलेगी, उसको तो पूरा मजा बादशाह होने का आ जाएगा, लेकिन हम उस पर हंसेंगे और समझेंगे पागल हो गया है।


विश्वास किसी भ्रम को पैदा करवा दे सकता है; लेकिन भ्रम से शांति नहीं मिलती, केवल अशांति ढंक जाती है। विश्वास से कोई वस्तुतः शांति उपलब्ध नहीं होती; क्योंकि विश्वास है अंधा, उसमें विवेक की आंख नहीं, विचार की ज्योति नहीं, मान लेने का अंधापन है, दूसरे कह रहे हैं इसलिए हम मान लेते हैं। और दूसरे क्या कह रहे हैं यह भी हमें पता लगाने की सुविधा नहीं होती; क्योंकि वे दूसरे यह समझाते हैं कि अगर तुमने संदेह किया तो भटक जाओगे, विश्वास करो।


हिटलर ने अपनी आत्म-कथा में लिखा हैः ऐसा कोई भी असत्य नहीं है जिसे बार-बार दोहरा कर और लोगों को विश्वास न दिलाया जा सके कि वह सत्य है। उसने लिखा है कि बार-बार प्रचार करो, कोई भी असत्य सत्य प्रतीत होने लगेगा, क्योंकि लोग विश्वासी हैं।


यूनान में अरस्तू हुआ। अरस्तू बहुत विचारशील आदमी समझा जाता है। कहते हैं यूरोप में दर्शनशास्त्र का पिता वही था। उसने ही तर्क को जन्म दिया। लेकिन उतना तार्किक व्यक्ति, उतना लॉजिशियन, उतना बड़ा तर्क का पिता, उसने भी अपनी किताब में एक बात लिखी है कि स्त्रियों के दांत पुरुषों से कम होते हैं। यूनान में यह ख्याल था कि स्त्रियों के दांत पुरुषों से कम होते हैं। और पुरुषों को हमेशा से ही यह ख्याल है कि स्त्रियों में जो कुछ भी हो थोड़ा-बहुत कम होना ही चाहिए। पुरुष का मुकाबला तो हो नहीं सकता, इसलिए दांत भी बराबर कैसे हो सकते हैं। लेकिन किसी नासमझ ने यह कोशिश न की कि स्त्रियों के दांत गिन लेता। स्त्रियां वैसे कम नहीं हैं, पुरुषों से थोड़ी ज्यादा हैं। और अरस्तू की खुद की दो औरतें थीं, एक भी नहीं थी। दो औरतें थीं कभी भी गिनती कर सकता, लेकिन गिनती करने की जरूरत नहीं समझी, विश्वास काफी था कि स्त्रियों के दांत कम होते हैं। किताब में लिख दिया।


हजार साल मरने के बाद तक यूरोप में लोग यही मानते थे स्त्रियों के दांत कम होते हैं। हजार साल तक किसी ने फिकर नहीं की, गिनती करके देख ले। क्योंकि गिनती तो वह करे जो संदेह करे। और संदेह तो कोई करना नहीं चाहता, विश्वास ठीक है। जिस आदमी ने पहली दफा स्त्री के दांत गिने उसे लोगों ने पत्थर मारे और कहा, यह पागल है, संदेह करता है। अरे हजारों साल से लोग मानते हैं और जानते हैं कि स्त्रियों के दांत कम होते हैं, कौन कहता है कि बराबर होते हैं? और अगर एकाध स्त्री के बराबर भी हों तो गलती से उग गए होंगे। ऐसा कभी हो नहीं सकता कि दांत स्त्री के बराबर हो जाएं। बड़े-बड़े शास्त्रों में लिखा हुआ है। यह मनुष्य का अंधापन है। इस अंधेपन के कारण विज्ञान का जन्म बहुत मुश्किल से हो पाया। और इस अंधेपन के कारण अभी तक वैज्ञानिक धर्म का जन्म तो हो ही नहीं पाया है। अभी हम पदार्थ के संबंध में तो वैज्ञानिक हो गए, साइंटीफिक हो गए, लेकिन परमात्मा के संबंध में अभी भी साइंटीफिक नहीं हुए हैं। और यह दुनिया में जो धर्म का घास दिखाई पड़ रहा है वह इसीलिए है कि पदार्थ के संबंध में तो विज्ञान आ गया है और धर्म के संबंध में अभी भी विश्वास है। विश्वास हार जाएगा विज्ञान के सामने, टिकेगा नहीं। टिकना चाहिए भी नहीं।


लेकिन धार्मिक लोग घबड़ाए हुए हैं, वे कहते हैं कि अगर विश्वास छूटा तो सब गया। मैं बता देता हूं कि विश्वास तो जाएगा, उसके साथ सारे धर्म जाएंगे, यह सौ, दो सौ वर्ष की बात हो सकती है, इससे ज्यादा की नहीं। अगर धर्म को बचाना है दुनिया में तो विश्वास से उसका संबंध तोड़ दो। उसका संबंध विवेक से जोड़ो। धर्म को भी विवेक से संयुक्त होकर ही बचाया जा सकता है। अविश्वास वाला धर्म बचेगा नहीं।


यह जो युवकों के मन में धर्म के प्रति अविश्वास पैदा हो रहा है इसके कसूरवार आप हो, युवक नहीं; धर्म-पुरोहित हैं, पंडित हैं, धर्मशास्त्री हैं, वे अब भी वही पुरानी बात दोहराए चले जा रहे हैं कि विश्वास करो, और विश्वास बड़ा फलदायी है।


सच तो यह है कि विश्वास जनता के लिए फलदायी नहीं है, पंडित-पुरोहितों के लिए फलदायी है। उनको बहुत फलदायी है। क्योंकि जिस दिन विश्वास गया उस दिन पंडित और पुरोहित भी चले जाएंगे। उनके साथ ही उनको भी जाना पड़ेगा। विश्वास उनका व्यवसाय है, प्रोफेशन। जब तक विश्वास है तब तक आदमी का शोषण किया जा सकता है। तब तक उसे मूर्ख बनाया जा सकता है। और ऐसी-ऐसी चीजों के बाबत उसे समझाया जा सकता है और राजी किया जा सकता है जो निपट नासमझी की हैं और जिनका कोई संबंध सत्य से नहीं है। विश्वास फलदायी है।


 


किसी ने पूछा है कि क्या पंडित और पुरोहित सब अज्ञानी हैं, नासमझ हैं, जो आप उनका विरोध करते हैं?


 


मुझे किसी के विरोध से क्या लेना-देना है। लेकिन जो सत्य है उसे कहना जरूरी है। पंडित-पुरोहित नासमझ नहीं हैं, बड़े समझदार हैं। अगर वे नासमझ होते, तो दुनिया में धर्म कभी का बच जाता। वे बहुत समझदार हैं, बहुत कनिंग, बहुत चालाक। उनकी समझदारी बहुत गहरी है। लेकिन समझदारी उनकी परमात्मा के प्रति नहीं हैं। क्योंकि अगर उनकी समझदारी परमात्मा के प्रति होती, तो दुनिया में एक पुरोहित दूसरे पुरोहित से लड़ाई का कारण नहीं बनता। क्योंकि जो चीज परमात्मा से जोड़ने वाली हो, वह कम से कम मनुष्य को मनुष्य से तो जोड़ ही देती है। लेकिन मनुष्य को मनुष्य से तोड़ने वाले धर्म परमात्मा से जोड़ने वाले सेतु नहीं हो सकते। मगर उनकी समझदारी कुछ और है।


एक छोटी सी कहानी कहूं, उससे ख्याल आ सके कि उनकी समझदारी क्या है।


एक राज दरबार में एक व्यक्ति आया, वह एक बहुत शानदार पगड़ी पहने हुए था। उस पगड़ी में बड़े चमकदार सलमा-सितारे लगे हुए थे, कपड़ा भी उस पगड़ी का बहुत शानदार था। ऐसी पगड़ी उस देश में पाई नहीं जाती थी। बड़ी शानदार पगड़ी थी। वह दरबार के भीतर आया। स्वभावतः बादशाह ने पूछा कि हे परदेशी मित्र, यह पगड़ी कहां से खरीदी? वैसी पगड़ी मैंने आज तक देखी नहीं। कितना मूल्य है इसका?


उस आदमी ने कहाः इसका मूल्य मत पूछें। बहुत ज्यादा मूल्य की है, शायद आप विश्वास न कर सकेंगे।


राजा ने कहाः फिर भी।


उसने कहाः एक हजार स्वर्ण-मुद्राओं में इस पगड़ी को खरीदा है।


राजा भी चौंक गया! ज्यादा से ज्यादा बीस-पच्चीस रुपये की पगड़ी होगी। उसके वजीर ने राजा के कान में कहा कि यह आदमी बहुत चालाक मालूम पड़ता है। यह पगड़ी बीस-पच्चीस रुपये से ज्यादा की नहीं, ज्यादा से ज्यादा इतने की है। हजार स्वर्ण-मुद्राएं! धोखे में मत आ जाना, उसने राजा से कहा। उसके कान में कहा, किसी ने यह सुन नहीं पाया। लेकिन वह पगड़ी वाला बोला, मैं जाता हूं, मैं किसी विशेष मतलब से आया था। मैं आपके दरबार से वापस जाता हूं। उस राजा ने पूछा किस मतलब से आए?


उस पगड़ी वाले आदमी ने कहा कि जब मैंने यह पगड़ी खरीदी थी, तो मुझे बताया गया था, इस जमीन पर एक बादशाह ऐसा भी है, जो इसे दो हजार स्वर्ण-मुद्राओं में खरीद सकता है। मैं समझ गया कि वह बादशाह तुम नहीं हो। यह दरबार वह दरबार नहीं है। मैं जाता हूं कहीं और खोजने।


उस राजा ने कहा कि दो इसे दो हजार स्वर्ण-मुद्राएं और पगड़ी खरीद लो!


इज्जत का सवाल बन गया! अहंकार का सवाल बन गया! वजीर दंग रह गया देख कर कि यह आदमी तो बड़ा चालाक है!


जब सभा विसर्जित हो गई, दरबार हटा, तो उसे पगड़ी वाले आदमी ने वजीर के कान में कहाः यू मे नो दि प्राइज ऑफ दि टर्बन, बट आई नो दि विकनेसिस ऑफ दि किंग। आई नो दि विकनेसिस ऑफ दि किंग। तुम जानते होओगे पगड़ी की कीमत, लेकिन मैं राजाओं की कमजोरी जानता हूं।


तो मैं आपसे कहता हूं, ये पादरी और पुरोहित और पंडित आदमियों की कमजोरियां जानते हैं। ह्यूमन विकनेसिस जानते हैं। आदमी कहां-कहां कमजोर है इन्हें पता चल गया है। उस कमजोरी का शोषण करते हैं। आदमी बहुत जगह कमजोर है। आदमी की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि उसे पता नहीं कि जीवन क्यों है? क्या है? कहां से आता है? कहां जाता है? पादरी और पुरोहित अच्छी तरह जान गए हैं। वे बता देते हैं कि जीवन कहां से आता है, कहां जाता है; भगवान बनाने वाला है, यह हो रहा है, वह हो रहा है, वे सारी बातें बता देते हैं। आदमी के अज्ञान की कमजोरी वे समझ गए हैं। और जो बातें वे बताते हैं उसके वेरिफिकेशन का कोई रास्ता नहीं है। उनको जानने का, उनकी प्रामाणिकता का कोई रास्ता नहीं है। वे जो कह देते हैं वह मानना पड़ेगा। क्योंकि उसके विपरीत भी कुछ कहने का कोई कारण नहीं है। इसलिए तो दुनिया में पच्चीस तरह की बातें चलती हैं और शोषण चलता है।


आदमी का अज्ञान उसकी कमजोरी है। उसको झूठा ज्ञान दे दो। उसको थोड़ी तृप्ति मिल जाए, उसका शोषण किया जा सकता है। आदमी का भय दूसरी कमजोरी है। फियर है आदमी के भीतर बहुत। होना स्वाभाविक है। चौबीस घंटे जिंदगी मौत से घिरी है। चौबीस घंटे किसी भी क्षण मैं मर सकता हूं। आप मर सकते हैं। मरने से डर है, पुरोहित और पंडित जानते हैं कि आदमी मरने से डरता है। इसलिए वे कहते हैंः आत्मा अमर है, घबड़ाओ मत। आदमी के मरने का डर का शोषण किया जा सकता है। उसको विश्वास दिलाया जाए कि आत्मा अमर है, मरोगे नहीं, घबड़ाओ मत। यह विश्वास उसके भय को संतोष देता है, राहत देता है। तो जितने लोग मौत से डरने वाले हैं, वे सब मान लेते हैं कि आत्मा अमर है। जानते नहीं कि आत्मा अमर है, मान लेते हैं कि आत्मा अमर है। और इसका शोषण किया जा सकता है। आदमी है कमजोर, आदमी बहुत सी बातों में कमजोर है। आदमी के मन में लोभ है। उसके लोभ का शोषण किया जाता। उससे कहा जाता, एक गाय यहां दान कर दो, भगवान हजार गुना दूसरे जन्म में देगा। यह लोभ का शोषण है। आदमी के भीतर ग्रीड है। वह लोभी है। वह चाहता एक पैसा देकर हजार पैसे मिल जाएं तो बहुत अच्छी बात। इसका शोषण किया जाता है कि तुम एक पैसा दान करो हजार पैसा वापस लो। और परलोक में मिलने की बात है, इसलिए कोई झगड़ा खड़ा नहीं होता। कोई लौट कर कहता नहीं कि हजार पैसे हमको मिले नहीं। कोई अदालत में मुकदमा नहीं चलाता। कोई सुप्रीम कोर्ट नहीं है जहां इसकी हम अपील करें कि यह पुरोहित ने हमको लूट लिया, कहा था, एक पैसा दोगे तो हजार मिलेंगे। एक पैसा पुरोहित को मिल जाता है, हजार देने वाले को मिलता है कि नहीं इसका कोई पता नहीं चलता।


लेकिन लोभ हमारा गहरा है, हम सोचते हैं चलो एक पैसा दांव पर लगाओ, अगर स्वर्ग में हजार की व्यवस्था हो सके तो बहुत ही अच्छा। आदमी के भीतर लोभ है, उसका शोषण होता है। आदमी के भीतर ऐसी हजार कमजोरियां हैं। इन हजार कमजोरियों का शोषण होता है। और इस शोषण के कारण धर्म पतित हुआ है।


धर्म मनुष्य का शोषण नहीं है। लेकिन धर्म-पुरोहित मनुष्य का शोषण करता रहा है। धर्म को शोषण से छुटकारा दिलाने की जरूरत है।


मनुष्य के जीवन का शोषण नहीं है धर्म। मनुष्य के जीवन को बल देना है, शोषण नहीं करना है। मनुष्य के जीवन को आलोकित करना है। मनुष्य के जीवन को शक्तिशाली बनाना है। मनुष्य के चित्त को जाग्रत, अभय, मुक्त और स्वतंत्र बनाना है। लेकिन जिसे शोषण करना है वह मनुष्य के चित्त को अभय कैसे दे। तो वह कहता हैः गॉड फियरिंग बनो, ईश्वर से डरो। ईश्वर से क्यों डरो? क्योंकि ईश्वर से डरोगे तो पुरोहित से डरोगे। और अगर ईश्वर से न डरे तो पुरोहित से कौन डरेगा? ये जो नये लड़के पैदा हुए हैं वे ईश्वर से नहीं डरते, तो वे पुरोहित से भी नहीं डरते हैं। और जब ईश्वर से डरेगा कोई तो पुरोहित से डरेगा। तो ईश्वर से डरने की बात पैदा की जाती है।


और मैं आपसे कहूं, डर से धर्म से कोई भी संबंध नहीं है। क्योंकि जिससे हम भय करते हैं उससे हम प्रेम कभी कर ही नहीं सकते। जिससे हम भयभीत होते हैं उससे हम घृणा करते हैं, प्रेम कभी नहीं करते। अगर आप परमात्मा से भयभीत हो, तो आपके चित्त में परमात्मा के प्रति घृणा पैदा होगी, प्रेम कभी पैदा नहीं होगा। प्रेम तो उसके प्रति पैदा होता है जिससे हमारे मन में कोई भय नहीं होता। लेकिन पुरोहित कहते हैंः परमात्मा से डरो, नरक से डरो; इससे डरो, उससे डरो; पाप से डरो। सब तरह के डर–आदमी को बिल्कुल ट्रेमलिंग हालत में खड़ा कर दिया, कंप रहा है आदमी, घबड़ा रहा है। और जितना आदमी घबड़ा जाता है, उतना ही उसका शोषण आसानी से किया जा सकता है। अगर वह घबड़ाए न, उसका शोषण नहीं किया जा सकता।


इसलिए एक्सप्लाएटेशन का पहला स्टेप हैः फियर। किसी का शोषण करना, पहले उसको खूब डराओ। जब वह कंपने लगे और प्राण उसके कंपने लगे और हाथ-पैर थरथराने लगे, तब फिर तुम उससे कोई भी काम करवा लो कि हाथ जोड़ो, मूर्ति के सामने खड़े होओ। वह विचारा हाथ जोड़ कर खड़ा हो जाए कि अब जो कुछ है ठीक है, हाथ जोड़ कर खड़ा हो जाऊं। कहो कि हे भगवान, तुम्हीं बचाने वाले, तुम्हीं पतितपावन, तो वह यह भी कहने लगे। घुटने टेको, तो घुटने टेकने ले। फिर जमीन से लगाओ, तो फिर जमीन से लगा ले। भय पहले पैदा कर दो, फिर उससे कुछ भी करवा लो। कोई भी बेवकूफी करवा लो। वह करेगा। क्योंकि भय है। अब भय के लिए राहत चाहिए। इसलिए इधर तीन-चार हजार वर्षों से पंडित और पुरोहित भय पैदा कर रहे हैं मनुष्य में। और इस भय का परिणाम यह हुआ कि मनुष्य का मन परमात्मा के प्रति प्रेम से नहीं घृणा से भर गया। और उस घृणा का बदला अब लिया जा रहा है। इधर लोग कहते हैं कि ईश्वर मर गया, हमको मतलब ही नहीं ईश्वर है। हम नहीं सुनना चाहते ईश्वर की बात।


यह तीन हजार साल से जो भय पैदा किया गया उससे घृणा का नासूर पैदा हो गया, घृणा भर गई मनुष्य के मन में। अब वह घृणा रिएक्ट हो रही है, वह प्रतिक्रिया कर रही। वह कहती, हम नहीं जाते मंदिर; हम नहीं सुनना चाहते, परमात्मा से हमें कोई मतलब नहीं, छोड़ो ये सब बकवास, हम तो जीना चाहते हैं। यह उसकी प्रतिक्रिया है। यह उसका अनिवार्य परिणाम है। यह क्वांसिक्वेंस है। और ये पंडित और पुरोहित और धर्मगुरु, थियोलॉजियन, इसकी करतूत है। और इसका परिणाम यह हुआ है कि धर्म से लोगों का संबंध टूट गया।


मैं आपसे निवेदन करता हूं, धर्म से संबंध जुड़ता है प्रेम से, भय से नहीं। भय अधार्मिक गुण है। प्रेम धार्मिक गुण है। जहां भय है वहां धर्म कभी नहीं हो सकेगा।


इसलिए मैं कहता हूंः अभय, फियरलेसनेस। लेकिन हम घबड़ाते हैं अभय से। हमको यह डर लगता है कि अगर हमने थोड़ा ही अभय किया तो हम नास्तिक हो जाएंगे।


 


पूछा है इसमें जगह-जगह कि नास्तिक हो जाएंगे आपकी बातें लोग सुन लेंगे–कि स्वतंत्र हो जाओ, साहसी हो जाओ, तो नास्तिक हो जाएंगे।


 


मैं आपसे निवेदन करना चाहता हूं, जिसको आस्तिक होना है उसे नास्तिक होने से गुजरना ही पड़ता है। जो आदमी बिना नास्तिक हुए आस्तिक होने के ख्याल में है, वह गलती में है, वह कभी आस्तिक हो ही नहीं सकेगा। आस्तिकता नास्तिकता की अग्निपरीक्षा से निकले बिना कभी पैदा ही नहीं होती। और जो होती है वह झूठी होती है। जिस आदमी ने कभी संदेह भी नहीं किया, विचार भी नहीं किया, प्रश्न भी नहीं उठाया कि जीवन क्या है? परमात्मा क्या है? वह आदमी मान लेता है कि ईश्वर है, इसके मानने का कितना मूल्य है? कोई भी मूल्य नहीं है। इसने कभी पूछा नहीं, खोजा नहीं, जिज्ञासा नहीं की।


तो मैं नास्तिक को आस्तिक का विरोधी नहीं कहता हूं, नास्तिकता को आस्तिकता की सीढ़ी कहता हूं। अनिवार्य सीढ़ी है। जो ठीक से नास्तिक हो पाता है, वह आस्तिक एक दिन जरूर हो जाता है। क्योंकि नास्तिकता में कोई ठहर नहीं सकता, नास्तिकता एक यात्रा है। उसमें कोई नहीं ठहर सकता। कोई कभी नहीं ठहर सकता। नकार में, निगेशन में कोई कभी ठहर नहीं सकता।


लेकिन नकार में एक यात्रा है। और अगर कोई ठीक-ठीक उस नकार में यात्रा करता चला जाए, तो उसके जीवन में एक दिन नकार मिटता है और पाजिटिव, विधायक का जन्म होता है। और जिस दिन नास्तिकता जाती है और आस्तिकता आती है; लाई नहीं जाती। लाई आस्तिकता झूठी होती है। नास्तिकता में जो जीता है, और उसके प्राण जब सब इनकार कर देते हैं, और किसी बात को मानने को राजी नहीं होते, और सब चीज का निषेध कर देते हैं, तब आखिर में वह खुद ही बच जाता है। उसको तो इनकार नहीं किया जा सकता। कोई यह इनकार नहीं कर सकता कि मैं नहीं हूं। क्योंकि इस कहने में भी कि मैं नहीं हूं, मेरा होना आ जाता है, मैं हूं। जो सब चीजों को इनकार कर देता है उस दिन सिर्फ एक बच रहता है खुद। और जो हिम्मत से सब चीजों को इनकार करता चला जाता है, एक दिन उस इनकार में बच जाता है स्वयं। सब तो हो जाता है नष्ट, सबसे तो टूट जाती है आस्था, बच जाता है खुद। और तब खुद को देखना पड़ता है। खुद को इनकार करने की कोशिश करता है, खुद को इनकार किया नहीं जा सकता। उसका कोई रास्ता नहीं है। कोई अर्थ भी नहीं है। तब इस स्थिति में पहली दफा उसे उस सत्य का अनुभव होता है जिसका इनकार नहीं किया जा सकता, जिसको निगेट नहीं किया जा सकता, जिसको नहीं कहा जा सकता कि नहीं है। इस अवस्था में पहली दफे उसे है का, क्या है, उसका पहली दफे बोध होता है। जिस पर संदेह नहीं किया जा सकता, जो इनडिविटेबल है, जो असंदिग्ध है, उसका उसे पहले पता चलता है। और इसको जान कर वह पहली दफे जानता है कि जीवन में कुछ है जिसे इनकार करना असंभव है। और जिसे इनकार नहीं किया जा सकता उसी का नाम आत्मा है। और जब वह अपने भीतर पाता है कि कुछ है जिसे इनकार नहीं किया जा सकता, तो वह जानता है कि सबके भीतर कुछ है जिसे इनकार नहीं किया जा सकता, वह परमात्मा है। अपने भीतर जिसे इनकार नहीं किया जा सकता, दैट व्हीच कैन नॉट बी निगेटिड, वह तो है आत्मा। और सबके भीतर जिसे इनकार नहीं किया जा सकता, वह है परमात्मा।


नास्तिकता की अग्नि से गुजर कर ही वह आत्मा की आस्था तक पहुंचता है कोई भी मनुष्य। लेकिन आप कहेंगे कि हम तो इस अग्नि से गुजरना नहीं चाहते, हम तो मान लेना चाहते हैं कि आत्मा है। यह मानना बिल्कुल झूठा होगा। और इस मानने के पीछे संदेह हमेशा सरकता रहेगा।


मैं अपने गांव जाता हूं, जहां बचपन में पढ़ा, वहां मेरे एक वृद्ध गुरु हैं जो मुझे बचपन में पढ़ाए। तो जब भी गांव जाता हूं उनके पास जाता हूं। कभी एक दिन, दो दिन रुकता हूं वहां। पिछली बार ऐसा हुआ कि मैं कोई आठ-दस दिन वहां रुका। रोज उनके घर गया। एक दिन गया, दो दिन गया, तीसरे दिन उन्होंने एक आदमी भेजा और एक चिट्ठी भेजी कि कृपा करके अब मेरे घर दुबारा मत आना। चिट्ठी में लिखा कि मुझे खुशी होती है कि आते हो मेरे घर, लेकिन मैं चालीस साल से निरंतर पूजा करता हूं, कल तुम्हारी बातों के बाद जब रात में मैं पूजा करने बैठा, तो मुझे ऐसा शक मालूम होने लगा कि कहीं मैं नासमझी तो नहीं कर रहा हूं, हो सकता है कि यह पत्थर ही हो, मूर्ति ही हो, और मैं व्यर्थ बैठा चालीस साल से घंटी हिला रहा हूं, कहीं यह सब पागलपन तो नहीं है? तो मुझमें संदेह पैदा हो गया, मेरे घर दुबारा अब मत आना। मेरी चालीस साल की आस्तिकता को धक्का पहुंचा।


मैंने उन्हें चिट्ठी वापस लिखी और कहा कि एक दफे और मुझे आने की आज्ञा दें, फिर मैं नहीं आऊंगा। और मैं गया। और मैंने उनसे निवेदन किया, कि एक घंटे की मेरी बात से जो चालीस साल की आस्तिकता डगमगा जाए, उस आस्तिकता का कोई मूल्य है? कोई अर्थ है उस आस्तिकता का? ऐसी कच्ची आस्तिकता परमात्मा तक ले जा सकेगी? वे बोले कि नहीं, मेरी तो बड़ी प्रगाढ़ आस्था थी, लेकिन आपने ऐसी बातें कहीं कि मुझे शक पैदा हो गया। मैंने कहा कि कोई दूसरा मनुष्य किसी में शक पैदा कर सकता है, अगर शक उसके भीतर छुपा ही न हो। मैंने उनसे कहा कि कृपा करके फिर से एक दफे सोचें, चालीस साल आपने पूजा जरूर की है, लेकिन पहले दिन जब आप पूजा करने बैठे थे आपके भीतर संदेह था या नहीं?


उन्होंने कहाः थोड़ा-बहुत संदेह तो रहा होगा। तब मैं जवान था, शक तो होता था, पिता ने कहा था कि पूजा करो, इसलिए शुरू की थी। सोचा था कि चलो, कहते हैं, नहीं मानते हैं तो करो, लेकिन भीतर तो संदेह था।


तो मैंने कहाः वह संदेह चालीस साल में भी मर नहीं सकता है। आप पूजा करते गए, संदेह को दबाते गए, दबाते गए, वह भीतर मौजूद है। कल मैंने बात की, वह चालीस साल पहले का संदेह वापस ऊपर आ गया और कहने लगा कि शक, संदेह है।


असल में जो आस्तिक नास्तिकता से नहीं गुजरता उसका भीतर का संदेह कभी भी नष्ट नहीं हो सकता है, उसके भीतर संदेह रहेगा। और संदेह रहता है इसलिए वह कहता हूं कि मैं बहुत गहरी आस्था करता हूं, मेरी बड़ी प्रगाढ़ आस्था है, मेरी अनन्य श्रद्धा है, ये सारी बातें वह उसी संदेह को छिपाने के लिए कहता है कि अनन्य श्रद्धा है, बड़ी प्रगाढ़ आस्था है, बड़ी सुदृढ़ आस्था है, ये सारी बातें क्यों कहता है वह? यह इसलिए कहता ताकि वह उसको छिपा सके, छिपा सके, उसको ढांक सके, ढांक सके, वह भीतर बैठा रहेगा संदेह।


आस्तिक के भीतर संदेह हमेशा मौजूद रहता है। लेकिन नास्तिक संदेह से शुरू करता है, संदेह से ही प्रारंभ करता है। संदेह को छिपाता नहीं, संदेह से संघर्ष लेता है, संदेह को ऊपर लाता है। और उस सीमा तक संदेह के साथ चलता है जहां तक संदेह जा सकता है। एक ऐसी जगह है जहां संदेह आगे नहीं जाता, वह जगह खुद की आत्मा है। वहीं जाकर नास्तिक हार जाता है और मुश्किल में पड़ जाता है। वहां तक नास्तिकता जो ले जाता है, उस सीमा तक जिसके आगे नास्तिकता नहीं जा सकती, उसके बाद जो आस्तिकता का अवतरण होता है, वही वास्तविक आस्तिकता है। और उसमें फिर कोई संदेह बचता नहीं, क्योंकि संदेह की यात्रा कर ली गई, आखिरी सीमा तक संदेह का पीछा कर लिया गया, उसका रंचमात्र भी बचाया नहीं गया है संदेह का, उसको देख लिया गया आखिर तक, उसका कुछ बचा नहीं, वह हवा हो गया। तब, तब जो बच रहता है, तब जो बच रहता है वही, वही है धर्म।


तो साहस और अभय से घबड़ाएं न। मैं तो चाहता हूं कि दुनिया एक बार ठीक से नास्तिक हो जाए, तो शायद दुनिया में वास्तविक आस्तिकता का जन्म हो सके। जो थोड़े से लोग ठीक से नास्तिक हुए हैं, वे ही लोग आस्तिक भी हुए हैं। और जैसे आस्तिक हमें दिखाई पड़ते हैं चारों तरफ, अगर ये ही आस्तिक हैं, तो हद्द हो गई। सारी दुनिया में आस्तिक हैं–कोई हिंदू है, कोई ईसाई, कोई मुसलमान, कोई कैथोलिक, कोई प्रोटेस्टेंट। सभी किसी मंदिर में जाते हैं, सभी किसी चर्च में जाते हैं। लेकिन ये सब आस्तिकों ने मिल कर जो दुनिया बनाई है उसमें धर्म है? अगर ये ही आस्तिक हैं, तो यह दुनिया इतनी अधार्मिक क्यों है? यह दुनिया इतनी बदतर क्यों है? इस दुनिया में धर्म कहां दिखाई पड़ता है? आस्तिक तो सब दिखाई पड़ते हैं। नास्तिक कितने हैं? कोई दिखाई नहीं पड़ता। कभी दो-चार कोई नास्तिक होते होंगे तो होते होंगे, वे भी बूढ़े होते-होते आस्तिक हो जाते हैं। नास्तिक कहां हैं? मैं तो अब तक खोजता हूं मुझे नास्तिक मिला नहीं। जब नास्तिक ही नहीं मिला तो मैं निराश हो गया। मैंने कहा, आस्तिक तो मिलेगा क्या, आस्तिक तो दूसरी सीढ़ी है। नास्तिक तो पहली सीढ़ी है। जब पहली सीढ़ी पर ही कोई खड़ा नहीं दिखाई पड़ता तो दूसरी सीढ़ी पर पहुंचने का सवाल कहां है?


झूठे आस्तिक हैं। इसलिए दुनिया में आस्तिक तो हैं लेकिन धर्म बिल्कुल नहीं है। सच्चा आस्तिक तो सच्ची नास्तिकता से निकलता है। इसलिए घबड़ाए न, नास्तिक होना आस्तिक होने के विरोध में नहीं है। हां, कमजोर नास्तिक न हों, नास्तिक हों तो पूरे ही नास्तिक हों। और आखिरी सीमा तक संदेह का ले जाएं। तो आप पाएंगे कि आखिरी सीमा पर संदेह जाकर एक क्रांति घटित हो जाती है।


जैसे हम पानी को गर्म करें, तो सौ डीग्री पर पानी गर्म होकर भाप बन जाता है। लेकिन अगर सौ डिग्री तक गर्म न करें, तो पानी पानी रह जाता है। कुनकुना होकर रह जाता है, भाप नहीं बनता।


कुनकुने नास्तिक हैं थोड़े से दुनिया में, जो थोड़ी-बहुत संदेह करते हैं, लेकिन पूरा संदेह नहीं करते। कुनकुने नास्तिकों से कुछ नहीं होने वाला। नास्तिक चाहिए सौ डिग्री वाला। सौ डिग्री तक संदेह को ले जाए, तो पानी भाप बन जाता है। नास्तिकता आस्तिकता में परिवर्तित हो जाती है। एक विस्फोट होता है, एक क्रांति होती है। एक चैंज, एक ट्रांसफार्मेशन होता है, एक परिवर्तन होता है।


इसलिए मुझसे यह न कहें कि इसमें नास्तिक हो जाने का डर है। मैं तो चाहता हूं कि आप नास्तिक हो जाएं। क्योंकि मैं चाहता हूं कि परमात्मा करे आप कभी आस्तिक हो सकें।


अब इसमें बड़ी गड़बड़ दिखाई पड़ेगी आपको। इसमें यह दिखाई पड़ेगा कि मैं तो नास्तिकता सिखा रहा हूं।


मैं नास्तिकता सिखा रहा हूं, क्योंकि मैं देखता हूं कि नास्तिकता सीखे बिना कभी कोई आस्तिक नहीं होता है। और अगर हो जाता है तो वह आस्तिकता झूठी और थोथी होती है, दो कौड़ी की होती है। उसका कोई भी मूल्य नहीं होता। नास्तिकता मेरी दृष्टि में सीढ़ी है।


साहस चाहिए पूछने का, जिज्ञासा करने का, जीवन से समस्याओं को खड़े करने का। अंधा, अंधा विश्वास नहीं चाहिए, खुली हुई आंख वाला विचार और विवेक चाहिए।


नास्तिक ईश्वर का विरोधी नहीं है। नास्तिक केवल यह कह रहा है कि मेरी समझ में नहीं आता कि ईश्वर है? यह तो बड़ी ठीक बात है। समझ में आपको आ रहा है कि ईश्वर है? नहीं, आपको भी नहीं आ रहा। आ रहा होता तो आपका जीवन दूसरा हो जाता, आप कुछ से कुछ हो जाते। समझ में आपको भी नहीं आ रहा ईश्वर है! लेकिन आप मान लेते हैं कि होगा। बुजुर्ग कहते हैं, और बुजुर्ग भी इसी तरह माने हुए हैं कि होगा, क्योंकि उनके बुजुर्ग कहते थे। और वे बुजुर्ग भी इसीलिए माने थे कि उनके बुजुर्ग कहते थे। ये सब पीछे की तरफ जाने वाली जो श्रद्धाएं हैं, ये जड़ और मुर्दा होती हैं।


ज्ञान जाता है आगे की तरफ, श्रद्धा जाती है पीछे की तरफ। जीवन है आगे, पीछे तो सब मुर्दा हो गया, मृत्यु है पीछे। पीछे तो सब डेड पास्ट है, मरा हुआ अतीत है। विश्वास जाता है पीछे की तरफ, इसलिए विश्वास मुर्दा है। और विचार जाता है आगे की तरफ, इसलिए विचार जीवित है।


तो मैं आपसे कहता हूं, आगे की तरफ विचार को ले जाएं पीछे की तरफ विश्वास को नहीं। जीवन की दिशा आगे की तरफ है। खोज की दिशा आगे की तरफ है। अन्वेषण की दिशा आगे की तरफ है। और अंधेपन की दिशा पीछे की तरफ है। पीछे की तरफ जाने से सत्य का उदघाटन नहीं हो सकता है। आगे की तरफ, और आगे की तरफ, निरंतर आगे की तरफ। साहस से, अभय से, हिम्मत से आगे बढ़ते जाना है मनुष्य को। और धर्म और धार्मिक लोग चूंकि पीछे की तरफ देखने लगे, इसलिए धर्म पिछड़ गया। दौड़ में पिछड़ गया।


अब मेरी बातें बहुत कटु मालूम हो सकती हैं। लेकिन धर्म के प्रति मेरा इतना प्रेम है इसलिए इतनी कड़वी बातें भी कहना जरूरी समझता हूं। धर्म नष्ट हो रहा है धार्मिकों के द्वारा। तथाकथित धार्मिक लोग धर्म को डुबा रहे हैं। क्या किया जाए? क्या रास्ता बने? क्या हो कि जीवन में धर्म बढ़ सके? एक बात दिखाई पड़ती हैः विश्वास से धर्म का संबंध टूट जाना चाहिए। विचार से संबंध जुड़ना चाहिए; विवेक से संबंध जुड़ना चाहिए; ज्ञान से संबंध जुड़ना चाहिए; खोज से; अभय से; प्रेम से संबंध जुड़ना चाहिए।


इन तीनों में इसी संबंध में थोड़ी सी बातें आपसे कही हैं। कुछ और थोड़े प्रश्न रह गए, उनकी कल सुबह मैं चर्चा करूंगा।


एक अंतिम बात कह देनी जरूरी है और वह यहः कोई यह न सोचे कि आपके प्रश्नों के मैं उत्तर दे दूंगा; कोई दूसरा किसी के प्रश्नों के उत्तर नहीं दे सकता। मैं अपनी दृष्टि आपके सामने रख रहा हूं। ये मेरे उत्तर हैं, आपके लिए इनका उत्तर होना जरूरी नहीं है। इसलिए कोई मेरे उत्तरों को स्वीकार करने की जल्दबाजी न करें और न अस्वीकार करने की जल्दबाजी करें। सोचें, विचारें उनको। स्वीकार न करें। क्योंकि जल्दी से जो स्वीकार कर लेता है वह आदमी कभी खोज नहीं कर सकता। तो मेरी बातें स्वीकार करने को नहीं हैं। एक बात।


दूसरी बात, प्रश्न तो आपका है, इसलिए जब आपके भीतर उत्तर आएगा तभी प्रश्न समाप्त होगा। इसलिए कोई सोचता हो कि मेरे उत्तरों से आपके प्रश्न समाप्त हो जाएंगे और शांत हो जाएंगे, तो वह गलती में है। कोई सोचता हो कि मेरे उत्तरों से आपका संतोष हो जाएगा, तो गलती में है। मैं आपका शत्रु नहीं हूं कि आपको संतुष्ट कर दूं। क्योंकि अगर मैं आपको संतुष्ट कर दूं तो आपके हृदय की खोज बंद हो जाएगी और मैं आपका दुश्मन सिद्ध हो जाऊंगा।


तो मैं क्या कर रहा हूं इन उत्तरों को देकर? इन उत्तरों को देकर यह कोशिश कर रहा हूं कि आप और असंतुष्ट हो जाएं, और डिससेटिस्फाइड हो जाएं। आप काफी असंतुष्ट नहीं हैं, नहीं तो जिंदगी कभी की बदल लेते। आप बहुत कम असंतुष्ट हैं। आप बहुत संतुष्ट हैं, यही तो मुर्दापन है। तो मैं तो चाहता हूं आप और असंतुष्ट हो जाएं। आप में जो थोड़ा-बहुत संतोष है, मैं पूरी कोशिश करूंगा कि उसको और छिन्न-भिन्न कर दूं, इधर-उधर डांवाडोल कर दूं, आपका चित्त बहुत व्याकुल हो जाए, असंतुष्ट हो जाए, एक डिसकंटेंट पैदा हो जाए। उस असंतोष से ही आपके भीतर खोज का जन्म होगा।


तो मेरे उत्तर आपको संतुष्ट करने के लिए नहीं है, असंतुष्ट करने के लिए ही है। मैं चाहता ही यह हूं कि आप बिल्कुल असंतुष्ट हो जाएं कि आपको चैन न रहे।


 


कल किसी ने मुझे कहा कि रात भर मुझे नींद नहीं आई।


 


मैंने कहा, बहुत अच्छा। जीवन भर तुम्हें नींद न आए तो अच्छा। कि आपकी बातों से मुझे रात की मेरी नींद खराब हो गई। परमात्मा करे जीवन भर के लिए तुम्हारी नींद खराब हो जाए। क्योंकि जिसकी नींद खराब हो जाए सत्य की खोज के लिए, वह एक दिन जरूर सत्य को पा लेगा। लेकिन जो निश्चिंतता से सोता है और कैजुअली कभी-कभी पूछ लेता है कि सत्य क्या है, परमात्मा क्या है, वह कभी नहीं पा सकता। उसके भीतर कोई प्यास नहीं है। कोई असंतोष नहीं है। इसलिए मुझे एक बहुत थैंकलेस जॉब जिसको कहते हैं, एक बहुत धन्यवाद रहित काम करना पड़ रहा है। और वह काम यह है कि मैं आपको असंतुष्ट करना चाहता हूं।


गुरुजन आपको संतोष देने आते हैं। मैं बड़ा खराब आदमी हूं, मैं तो असंतोष देने आता हूं। आप जाते होंगे साधु-संतों के सत्संग में कि चित्त शांत हो जाए, और मेरी तो पूरी कोशिश है कि अच्छी तरह अशांत हो जाए। क्योंकि अगर अशांत हुआ, तो किसी दिन शांति तक पहुंच सकता है। लेकिन अगर अशांति छिप गई और थोथी शांति आ गई, तो कभी भी वास्तविक शांति उपलब्ध नहीं होगी। जिन्हें खोजना है उन्हें आकांक्षा और अभीप्सा से भरना होगा। और आकांक्षा और अभीप्सा से वही भरते हैं जो प्यासे हो उठते हैं।


एक छोटी सी कहानी और आज की चर्चा मैं पूरी करूं।


एक फकीर एक नदी के किनारे बहुत वर्षों से रहता था। एक युवक उसके पास आया और उससे पूछा कि क्या परमात्मा है? उस फकीर ने कहा कि मेरे मित्र, मेरे उत्तर देने की तरकीब बड़ी गड़बड़ है। क्या तुम मेरे उत्तर की तरकीब को झेलने को राजी हो? वह आदमी थोड़ा डरा, उसने सोचा था कि वह कुछ सैद्धांतिक बातें कहेगा, कुछ गीता वगैरह के श्लोक सुनाएगा या कोई और अच्छी-अच्छी बातें बताएगा और थोड़ा समय कटेगा और मनोरंजन होगा जैसा कि सत्संग में सभी लोगों का मनोरंजन होता है और समय कटता है। वह भी इसी ख्याल से गया था। दिन भर के थके कुछ लोग सिनेमा देखते हैं, कुछ लोग सत्संग करते हैं। बात दोनों एक सी हैं, दोनों समय काटते हैं। वह भी गया था कि थोड़ा सत्संग हो जाएगा। लेकिन यह आदमी कुछ गड़बड़ था। उसने कहा कि मेरा उत्तर देने का ढंग बड़ा गड़बड़ है। क्या तुम राजी हो? वह थोड़ा तो हिचकिचाया। लेकिन अब जब सामने ही पहुंच गया था, तो अब यह कहना कि मैं राजी नहीं हूं, जरा संकोच लगा। फिर जवान आदमी था, सोचा, क्या करेगा, ज्यादा से ज्यादा क्या करेगा, आखिर कुछ बात ही कहेगा। उसने कहाः अच्छा मैं राजी हूं। वह फकीर हंसने लगा, उसने कहाः तुम कहते हो, अच्छा मैं राजी हूं, इसी से पता चलता है कि राजी तुम हो नहीं। अच्छा मैं राजी हूं, यह क्यों कहते हो? खैर मैं मान लेता हूं कि तुम राजी हो। मैं स्नान करने नदी पर जा रहा हूं, तुम भी चलो, पहले स्नान कर लें और फिर मैं तुम्हें बताऊंगा। और अगर मौका हाथ लग गया तो नदी में स्नान करते वक्त भी बता सकता हूं।


वह युवक थोड़ा घबड़ाया कि यह आदमी पागल तो नहीं है। हम पूछते हैं परमात्मा, यह बातें कर रहा है कि नदी में नहाते वक्त मौका हाथ लग गया तो बता दूंगा। कोई दुश्मनी बताएगा, कोई झगड़ा करेगा, क्या करेगा, क्या नहीं करेगा। लेकिन फंस गया था हाथ में। कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है, जाते हैं सत्संग को फंस जाते हैं गलती हाथों में, तो वह आदमी भी फंस गया। अब इधर भी बहुत से लोग हो सकते हैं इसी भांति फंस गए हों। दिल तो हमारा भी यह होता है कि नदी के किनारे ले चलो और वहीं बता दें, लेकिन नदी एकदम पास नहीं होती हमेशा। और सब लोग जाने को शायद राजी भी हों या न हों। तो वह फकीर… मगर वह फकीर अकेला ही था। और वह आदमी भी अकेला था। और वह फकीर ऐसा था कि वह आदमी भागता तो भी भागने न देता, वह उसको उस दिन परमात्मा का कुछ न कुछ दर्शन कराता ही। वह उसको ले गया। हाथ पकड़ लिया, कि हो भी सकता था जिज्ञासु भाग जाए। कई जिज्ञासु बीच में ही भाग जाते हैं। वे पूरी-पूरी जिज्ञासा भी नहीं कर पाते। उनको अगर खतरा दिखाई पड़े तो भाग जाते हैं। परमात्मा सस्ते में मिलता हो, बिना मेहनत किए अगर मिलता हो, माला खरीद कर और माला के गुरिए फेरने से मिलता हो, मंदिर में जाकर किसी मूर्ति के सामने बैठने से मिलता हो। या और इसी तरह का कोई सस्ता नुस्खा, कोई शार्टकट बिना खर्च का मिल जाता हो तो वे तैयार हो जाते हैं परमात्मा को खोजने के लिए। लेकिन अगर कुछ श्रम पड़ जाता हो, कुछ करना पड़ता हो जीवन में, कोई क्रांति लानी पड़ती हो तो कौन परमात्मा को लेने को राजी होगा। वह कहेगा, ठहरो, फिर अगले जन्म में देखेंगे, ऐसी जल्दी भी क्या है। ऐसी क्या जल्दी है परमात्मा की, जन्म-जन्म पड़े हुए हैं, देख लेंगे फिर, अभी तो कुछ और काम कर लें। हां, अगर माला-वाला फेरने से मिलता हो तो ठीक है, रात को बैठ कर थोड़ा फेर लेंगे। जैसा ताश खेल लेते हैं वैसा माला फेर लेंगे।


पर व फकीर उसको ले गया और हाथ उसने पकड़ लिया कि कहीं बीच से भाग न जाए। कुछ फकीर गड़बड़ होते हैं, हाथ पकड़ लें तो मुश्किल से छोड़ते हैं। आप कितना ही छुड़ाने की कोशिश करो, कितने ही प्रश्न पूछो, कुछ करो, वे छोड़ते ही नहीं। वह ले गया उसको नदी के किनारे। उसको पहले कहा कि तू पहले भई पानी में उतर जा, पीछे मैं उतरूंगा, फकीर ने कहा। क्योंकि कई दफे ऐसा होता है, कोई जिज्ञासु, हम तो पानी में उतर जाते हैं वे किनारे से ही भाग जाते हैं। मुझको भी रोज अनुभव होता है, बहुत से जिज्ञासु किनारे से ही भाग जाते हैं, नदी में उतरने की तैयारी नहीं करते।


लेकिन वह फकीर होशियार था। उसने उसको पहले उतार लिया, फिर पीछे उतरा। कहा, अब नहाओ बिल्कुल बेफिकर होकर, घबड़ाओ मत। प्रश्न पूछ लिया है तो घबड़ाओ मत, उत्तर हम देंगे, लेकिन अभी ठीक से नहा लो। वह निश्चिंत होकर नहाने लगा, उस फकीर ने उचक कर उसकी गर्दन पानी के भीतर पकड़ ली और उसको दबाने लगा। फकीर वैसी ही तगड़ा था। फकीर वैसी ही तगड़े होते ही हैं। क्योंकि गृहस्थी बेचारे को पच्चीस मुश्किलें होती हैं, पच्चीस संसार की झंझटें होती हैं। कमाओ, यह करो, वह करो, यह सब भी होता है। और फिर फकीरों को खिलाओ, यह भी एक मुसीबत लगी रहती है। वह फकीर तगड़ा था, फकीर हमेशा ही तगड़े होते हैं। फकीर तगड़े होंगे हीं। गृहस्थी सबका शोषण करता है, फकीर गृहस्थी का शोषण करता है। वह तो तगड़ा होगा ही। वह तगड़ा बहुत था। उसने उसको दबा दिया नीचे। अब जिज्ञासु को पता चला कि यह तो बड़ी मुश्किल हो गई, यह तो पाठ पढ़ाने लगा। वह निकलने की कोशिश करने लगा, लेकिन जिज्ञासु दुबला था, जैसा कि सभी जिज्ञासु दुबले होते हैं। अगर तगड़े हों तो खुद ही न खोज लें, दूसरे से क्या पूछने जाएं। कमजोर होते हैं इसलिए दूसरे से पूछने जाते हैं। वह कमजोर तो था, इसलिए पूछने आया था। फकीर ने उसे पकड़ कर नीचे दबाया। दबाता गया, एक सेकेंड, दो सेकेंड, दस सेकेंड, प्राण छटपटाने लगे होंगे, श्वास लेने के लिए पागल हो उठा होगा। कमजोर था तो क्या हुआ, जब प्राणों पर बन आती है तो कोई भी ताकतवर हो जाता है। थोड़ी देर में फकीर को पता चलने लगा कि वह ऊपर उठ रहा है, फकीर की ताकत काम नहीं पड़ रही है। वह नीचे दबा रहा है, लेकिन हाथ कमजोर पड़ने लगे। आखिर फकीर के लिए तो एक मजाक थी। उसके लिए तो प्राणों की समस्या बन गई थी। सारी ताकत इकट्ठी हो गई, रोआं-रोआं इकट्ठा हो गया, शरीर का कण-कण इकट्ठा हो गया। सारी ताकत, मृत्यु सामने खड़ी थी, अब ताकत को बचा कर भी क्या करेंगे आगे के लिए। सारी ताकत इकट्ठी हो गई। वह जिज्ञासु उठने लगा। फकीर ने पाया कि आखिर में वह ऊपर निकल आया है। फकीर ने उसे छोड़ दिया। जिज्ञासु को तो कुछ समझ में भी नहीं आया कि थोड़ी देर क्या कहें? भजन करें कि गालियां दें कि क्या करें? उसको कुछ समझ में नहीं पड़ा। फकीर सामने खड़ा था, यमदूत की भांति दिखाई पड़ रहा था। पहले सोचा था सत्संग करने जा रहे हैं, कोई महात्मा हैं। ये महात्मा खतरनाक निकले। ये तो मौत दिए देते थे। हम पूछने आए थे परमात्मा को, और ये हमें परम मुक्ति दिलवाए दे रहे थे।


लेकिन इसके पहले कि वह जिज्ञासु कुछ पूछे, उस फकीर ने पूछा, मेरे मित्र, एक प्रश्न मुझे भी पूछना है। जब पानी के भीतर थे, तो कितने विचार तुम्हारे भीतर उठे? उसने कहाः विचार? मरते आदमी के मन में विचार उठते हैं? कोई विचार नहीं उठे। फकीर ने पूछाः कोई एकाग्रता की थी, कोई राम-राम का नाम जपते थे, क्या बात थी विचार नहीं उठे? चित्त तो हमेशा से चंचल है। चित्त चंचल नहीं हुआ? तो उसने कहाः आप भी क्या बातें कर रहे हैं? ऐसी घड़ी में कहीं चित्त चंचल होता है। और चित्त को चंचल होने के लिए फुर्सत चाहिए। वहां फुर्सत एक सेकेंड की न थी। वहां प्राण संकट में थे। चित्त चंचल होता? चित्त बिल्कुल थिर हो गया था। बिना किसी तरकीब के चित्त थिर हो गया था। कोई कनसनट्रेशन नहीं करना पड़ा, कोई एकाग्रता नहीं, कोई योग, कोई आसन, कुछ भी नहीं करना पड़ा, चित्त एकदम एकाग्र हो गया था। फिर क्या ख्याल थे?


उस आदमी ने कहाः पहले तो थोड़े देर तक ख्याल था कि किसी भांति एक श्वास हवा मिल जाए। लेकिन फिर वह ख्याल भी खो गया। फिर तो पूरे प्राण किसी अनजानी आकांक्षा और अभीप्सा से भर गए। कोई प्यास ऊपर उठने की, उसके लिए कोई शब्द नहीं थे। कोई विचार नहीं बनता था भीतर बस सारे प्राण ऊपर उठना चाह रहे थे और उठ रहे थे। मेरा वश नहीं था, मैं न नीचे रुक सकता था, न ऊपर उठ सकता था। मेरे द्वारा कुछ भी नहीं हो रहा था। कोई अनजानी ताकत ऊपर उठा रही थी। और आखिर मैं ऊपर आ गया। उस फकीर ने कहाः जाओ। ईश्वर के संबंध में जो हमें कहना था कह दिया। जिस दिन इतनी ही प्यास, इतनी ही अभीप्सा और इतने ही प्राणों को संकट में पाओगे, इतनी ही क्राइसिस में जब अपने को पाओगे, तब तुम पाओगे कि तुम्हें ईश्वर तक जाने की जरूरत नहीं। कोई ताकत तुम्हें ऊपर की तरफ उठा रही है और लिए जा रही है। तुम सिर्फ हवाओं में बहते हुए एक पत्ते की भांति हो जाओगे। परमात्मा तुम्हें अपनी तरफ खींच लेगा। लेकिन प्यासे तो हो जाओ। जहां प्यास है वहां परमात्मा है। और अगर परमात्मा न मिलता हो, तो जान लेना कि प्यास नहीं है। फिर चाहे मूर्ति बनाओ, चाहे कुछ भी करो, परमात्मा नहीं मिलेगा। जहां प्यास है वहां परमात्मा तत्क्षण उपस्थित हो जाता है। लेकिन जहां प्यास नहीं है वहां कितने ही ऊंचे मंदिर बनाओ, आकाश छूने लगें मंदिर, तो भी परमात्मा अनुपस्थित रहता है, एब्सेंट रहता है। प्यास ही उसे पाने की प्रार्थना है। इसलिए मैंने कहा, असंतोष। इसलिए मैंने कहा, नास्तिकता। इसलिए मैंने कहा, संदेह। इसलिए मैंने कहा, विचार। इसलिए मैंने कहा, विश्वास नहीं, मानना नहीं; खोजना, जिज्ञासा, खोजते ही चले जाना, अंतिम क्षण तक संदेह करते चले जाना अगर सत्य को पाना हो। क्योंकि जिस दिन प्यास पूरी हो उठेगी, उस दिन परमात्मा वहीं उपलब्ध हो जाएगा जहां, जहां आप हैं। इसलिए एक डिसकंटेंट, एक डिवाइन डिसकंटेंट चाहिए, एक दिव्य असंतोष चाहिए।


ये धार्मिक लोग इतने संतुष्ट मालूम पड़ते हैं, अपने टीका लगाए, मालाएं लिए हुए इतने संतुष्ट कि इनको मुर्दा माना जा सकता है, इनमें कोई जिंदगी नहीं है। धर्म मर गया है, और धर्म मर जाएगा, अगर लोगों में ठीक से संदेह, असंतोष, नास्तिकता पैदा नहीं हो सकी तो। इसलिए मेरा काम तो यही है, नदी तो नहीं है लेकिन यहीं कोशिश तो पूरी करता हूं कि आपकी गर्दन दबा दूं। कोशिश तो यही करता हूं कि सांसें घुट जाएं, कोशिश तो यही करता हूं कि प्राण तड़फड़ा जाएं।


इसलिए मुझसे यह प्रश्न मत पूछिए कि आपकी बातें सुन कर असंतोष होता है, बड़ी तबीयत बेचैन होती है। यही तो मैं चाहता हूं। यह प्रश्न सुन कर तो मुझे बड़ी खुशी होती है कि चलो कुछ काम हो रहा है।


 


मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत-बहुत आनंदित हूं।


परमात्मा करे जिस तरफ इशारा कर रहा हूं तो शायद आप मेरे शब्दों को छोड़ कर उस इशारे को देखने में समर्थ हो जाएं। सोचें, विचारें, खोजें।


कुछ और आपके प्रश्न होंगे तो कल सुबह उनके उत्तर दूंगा।

एक बात ध्यान में रखें, मेरी बात मानने को नहीं है। इसलिए मेरा आपसे कोई झगड़ा भी पैदा नहीं होता। मेरी बात मानने को नहीं है। सोचें और विचारें। परमात्मा करे कभी वह प्रकाश आपके भीतर पैदा हो जो जीवन की कृतार्थता है, सार्थकता है, जो जीवन की आस्तिकता है, जो जीवन के पाने का अभिप्राय है। परमात्मा सबके भीतर उस परम शांति को और संतोष को लाए, लेकिन उसे लाने के मूल्य के रूप में आपको असंतुष्ट होना पड़ेगा, खोजना पड़ेगा। जो खोजता है उसे मिलता है। क्राइस्ट ने कहा है–उनके वचन से मैं अपनी बात पूरी करता हूं–नॉक एण्ड दि डोर शैल बी ओपन, खटखटाओ और द्वार खुल जाएंगे। लेकिन जो नहीं खटखटाते वे अभागे हैं, उनके द्वार बंद रह जाते हैं।

सबसे अंत में सबके भीतर बैठे हुए परमात्मा के प्रति मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

समाप्त

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रचनाएँ
सत्य की प्यास - ओशो
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