हाथों में सिन्दूर था
ये न उन्हें मंज़ूर था
कर रहे थे वंदना सब
आलता-कुमकुम सजा
रक्त की न गंध हो तो
उनको क्या आता मज़ा।
मृत्यु की देवी का साया
उनके सिर पे सवार था
पलकें हुईं बोझिल पड़ीं थीं
प्यास से पिसाच की
और वो सब यूँ चुभा था
ज्यों कसक हो काँच की।
हो रही थी उपासना
सदियों के संस्कार की
जो सनातन ही रहीं
सदियाँ गईं पर ये रहीं
सत्य शाश्वत ये प्रथा
समझा रही और कह रही
जब कभी होता सृजन तो
है विसर्जन भी यहीं।
इस प्रकृति के इस नियम का
प्रतीकात्मक है ये प्रथा
और इसका भान तो
उन्हें भी जरूर था
पर हाथों में सिन्दूर हो
ये न उन्हें मंज़ूर था।
सिन्दूर, कुमकुम, आलता की
लाली न भायी थी उन्हें
उनके लिए तो रक्त का
रंग ही बस लाल था
बह गया वो लाल रंग पर
उन्हें कहाँ मलाल था।
घंट नादों की ध्वनि से
कर्ण पीड़ित हो गए
शंखनादों की तरंगों
के भला वो कब हुए
प्रस्तरों के प्रक्षेप की बस
एक ध्वनि भायी उन्हें
कौन मृत है कौन जीवित
कब हुई चिंता उन्हें
उनके सिर मंडरा रहा था
बस यही फितूर था
होय किस तरह से खण्डित
और रुक जाये प्रथा।
क्या हुआ जो पत्थरों की
चोट से घायल हुआ
कल तलक जो मित्र था
आज वह शत्रु हुआ,
क्या हुआ जो कोई माता
आँचल मसल कर सिसक रही
क्या हुआ जो एक बहन
राखी लिए तकती रही
क्या हुआ जो एक पत्नी
आँखें भरे थकती रही
क्या हुआ जो एक शिशु
बेवजह ही अनाथ है
क्या हुआ जो परिवार की
रोटी के कट गए हाथ हैं।
उनकी आँखों में भला क्यों
परदा रहे किस बात का
उनके लिए तो सच है बस
उनका चला ही रास्ता।
उसको पाने के लिए
ये कह गए ज्ञानी सभी
उसकी मंज़िल है वही पर
सबका अलग है रास्ता
फ़लसफ़ा लेकिन किसी को
क्यों ये समझ आता नहीं
क्यों भला इंसानियत का
वह धर्म अपनाता नहीं ।
आएगी कब वो घड़ी जब
रक्त सबका लाल हो
इंसानियत ही धर्म है
सबको यही ख्याल हो
आयगी जब वो घड़ी तो
ये धरा खिल जायेगी
जब सभी पगडंडियां
इंसानियत को जायेंगीं।
(c)@ नील पदम्