है चन्द्र छिपा कबसे, बैठा सूरज के पीछे,
लम्बी सी अमावस को, पूनम से सजाना है।
चमकाना है अपनी, हस्ती को इस हद तक,
कि सूरज को भी हमसे, फीका पड़ जाना है।
ये आग जो बाकी है, उसका तो नियंत्रण ही,
थोडा सा जलाना है, थोडा सा बुझाना है।
इस आग की भट्ठी पर, बर्तन हो मेहनत का,
जब चाव रहेगा तो, व्यंजन पाक जाना है।
(c)@ दीपक कुमार श्रीवास्तव "नील पदम्"