पंडित हरिदेव जी भले आदमी थे। गांव में उनकी पंडिताई का लोहा माना जाता था। उनकी गांव में अच्छे लोगों के बीच उठ बैठ थी। पंच अपनी पंचायती में पंडितजी को अक्सर बुलाया करते थे। उनकी बात को तवज्जो देते थे। पंडित की उम्र पचपन के पार हो चुकी थी। उनके दो लड़के थे। बड़ा लड़का राधेश्याम पढाई में तेज था। स्नातक करते ही उसको शिक्शा विभाग में बाबूगिरी की नौकरी मिल गई। लगे हाथ पंडितजी ने पास ही के गांव में राधेश्याम की शादी करवा दी। दो-तीन साल साथ में रहने के बाद घर में पंडिताईन व बहु के आपसी खटपट होनी शुरू हो गई। पंडितजी ने रोज-रोज की झिक-झिक से परेशान होकर राधेश्याम को एक रसोई, दो कमरों का घर बनाकर अलग कर दिया।
पंडित के छोटा बेटा था रमाकांत। उसका पढाई में तो मन कम लगता था लेकिन दोस्तों के साथ मटरगश्ती में अव्वल था। उसकी पढाई अभी चल रही थी। उसने मुश्किल से बाहरवीं पास की थी। कम अंकों के कारण में कॉलेज में नियमित छात्र के रूप में उसे प्रवेश नहीं मिला। पंडितजी ने भी पहले खूब कोशिश की कि यह भी पढ लिखकर बड़े भाई की तरह कोई सरकारी महकमें का जमाई बन जाए लेकिन आखिर में बारहवीं के बाद पंडित की यह उम्मीद भी टूट गई।
एक दिन उन्होंने रमाकांत को अपने पास बुलाया और पूछा- क्यों बाबू साहब अब क्या इरादा है?, पढने में तो आपको मन लगता नहीं है, गली के दो चार लफंगे है उनके साथ मस्ती करते घूमते हो। ऐसे में आगे जिंदगी कैसे कटेगी। काम तुझे कुछ आता नहीं है। जिंदगी चलेगी कैसे।
रमाकांत होता नौजवान था, उसको पंडितजी की बातें अच्छी नहीं लगी, उसने पलट कर कहा- पिताजी किसी के पास सरकारी ओहदा नहीं होता तो वो क्या भूख मरता है। मैं भी कमा कर खा लूंगा।
पंडितजी को ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी। उनका पारा सातवें आसमान पर चढ गया। चिल्लाकर बोले- अरे नालायक तेरा बाप हूं मैं, तेरे से ज्यादा दुनिया देखी है। तूं हवाई सपने बनाता है, उससे जिंदगी नहीं चलती। पांचो पेरवों से मेहनत करनी पड़ती है। मैं तेरे से ज्यादा बहस नहीं करना चाहता। ऐसे रहेगा तो समाज में कोई लड़की भी नहीं देगा। अब मैं तेरे से ज्यादा बहस नहीं करना चाहता। तूं अगर आगे पढना चाहता है तो प्राईवेट कॉलेज का फार्म भर ले और कोई धंधा करना सीख। नहीं तो पूरी जिंदगी भूख मरेगा।
बाप-बेटे के बीच जोरदार बहस होती देख पंडिताईन रसोई से बाहर चौक में आई। रमाकांत सबसे छोटा होने के कारण पंडिताईन के लाडला था। बेटे को डाटते देख उसकी त्यौरियां चढ गई। आते ही पंडित से उलझ पड़ी- क्यों डाट रहे हो मेरे बेटे को। क्या गुनाह किया इसने। किसी का दिमाग नहीं लगता पढाई में तो वो क्या बेकार हो जाता है।
पंडितजी गुस्से तो भरे हुए थे ही अब उन्होंने पंडिताईन को आड़े हाथों लेना शुरू किया। तेरे लाड प्यार की वजह से यह सारा दिन इधर उधर घूमता रहता है। कोई काम धंधा नहीं, पढाई नहीं, घर पर कोई रति भर काम नहीं करता। लाड़ प्यार से इसको सब तेरी मेहरबानी से बिगड़ गया है। इतना बड़ा हो गया है लेकिन कच्छा भी स्नानघर में धोने के लिए छोड़कर जाता है। इससे बड़ी शर्म की क्या बात होगी। इसका बाप हूं मैं, इसकी भलाई के लिए ही कह रहा हूं। मां-बेटे दोनो समझ गए कि आज पंडितजी से उलझे तो कुछ भी हो सकता है। दोनो वहां से चुपचाप सरक लिए।
रसोई में आते ही रमाकांत मां से बोला- मां देखा तूने पिताजी मुझे किस तरह डाट रहे थे। क्या मैं इतना बेकार हो गया हूं कि उनकी आंखों में खटकने लगा। अब तूं ही देख मेरा दोस्त श्यामू ग्यारहवीं में तीन बार फेल हो गया लेकिन उसके पिताजी आज तक उसको कभी डाटते नहीं है और एक पिताजी है जो मैं बारहवीं पास करके बैठा हूं तो भी मुझे खरी खोटी सुनाते है।
पंडिताईन ने बेटे को गले लगाकर पुचकारते हुए कहा- कोई बात नहीं बेटा आज तेरे पिताजी गुस्से में थे। शाम को घर आने दे मैं उन्हें समझाउंगी। तूं फिकर मत कर। पिता है तेरे, उन्हें फिकर तो होगी ना तेरी। चल मैने आज तेरी पसंद के कोपते बनाए है, हाथ मूंह धोकर खा ले।
रमाकांत खाना खाने के बाद घर से बाहर निकला तो पंडिताईन ने पूछ लिया-बेटा कहां जा रहे हो। अब रमाकांत का गुस्सा शांत हो गया। उसने कहा- मां मेरे दोस्त के साथ कॉलेज जा रहा हूं, नियमित तो प्रवेश मिल नहीं रहा तो सोचा, प्राईवेट फार्म भर के स्नातक तो पूरी करूं, नहीं तो पिताजी सारी उम्र बड़े भाई की उलाहना देते रहेंगे।
शाम का समय होने को आया। सूरज पहाड़ियां के पीछे छिपने को आतुर हो रहा था। कुछ ही देर में अंधेरा छाने लगा। पंडितजी दिनभर यजमानी करके थके हारे घर की तरफ रवाना हुए। आज पंडितजी ने दिन भर में तीन-चार जगह मूहुर्त करवाए थे। घर पहुंचते-पहुंचते घोर अंधेरा हो गया था। घर की दहलीज पर पहुंचते ही पंडिताईन द्वार पर पानी का लोटा लिए उनकी राह देख रही थी। पंडितजी ने बिना कुछ कहे उनके हाथ से पानी लिया और हाथ मूंह धोकर घर में घुसे। पूजाघर में जाकर दीपक जलाकर अगरबती लगाई। कुछ मंत्र बोलने के बाद घंटी बजाई। बाहर आकर पंडिताईन से बोले- अरे सुनती हो, रमाकांत कहां है? इतने में रमाकांत दूसरे कमरे से बाहर निकला और पूछा- हां पिताजी मैं तो कब का घर आ गया।
पंडितजी ने सुबह रमाकांत को डाटने के बाद राह चलते मन में विचार किया कि मुझे इस तरह बच्चे को नहीं डाटना चाहिए। उसको प्यार से समझाना चाहिए था। अब वह बड़ा हो गया है। कहीं कुछ गुस्से में अनर्थ कर बैठा तो मेरी तो दुनिया ही लुट जाएगी।
पंडिताईन ने आवाज लगाई जी खाना खा लो, लगा दिया है। पंडितजी ने रमाकांत से पूछा- खाना खाया क्या बेटा? उनकी आवाज में अब नरमी झलक रही थी। लड़के ने हां में सिर हिला दिया। पंडितजी रसोईघर में पंडिताईन के पास खाना खाने बैठ गए। सुबह की डाट की वजह से पंडिताईन अब भी रूखा व्यवहार कर रही थी। पंडितजी ने दाल में नमक कम होने की बात कही तो पंडिताईन बोली- पूरे घर का काम सारा दिन करती हूं, मेरे यहां नौकर नहीं रखे हुए है। उस पर थक जाती हूं। खाना बनाते बनाते घुटनों में दर्द होने लगता है। अब मैं कोई कल की छोरी तो हूं नहीं जो सारा दिन एक सरिखा काम कर लूंगी। गलती से नमक कम है तो पास में पड़ा है, दाल में डाल लो।
पंडितजी को बुरा तो लगा लेकिन उन्होंने कुछ नहीं कहा। खाना खाने के बाद पंडितजी अपने शयनकक्श में पहुंचे। वहां बैठकर पुराने किताबों के पोथे खोलने शुरू किए। आखिर में उन्हें वो किताब मिल ही गई जिनकी उनको तलाश थी। वो किताब लेकर पढने बैठ गए। इतने में पंडिताईन दूध लेकर आई और चुपचाप पंडितजी के सामने रखकर उलटे पांव वापिस पलट गई। पंडितजी ने आवाज दी -सुनो। बैठो न मेरे पास। क्या सुबह की बात से अब तक नाराज हो। पंडिताईन ने उनकी तरफ मुड़कर देखा और आंखो से आंसू निकल गए। पंडितजी ने उठकर उसे अपने पास बिठाया। क्या बात है रो क्यों रही हो, क्या सुबह की बात से अब तक नाराज हो। पंडिताईन ने रूधे गले से कहा- नाराज क्यों न होउं, आज तक आपने मुझे इस तरह नहीं डाटा, ऐसा क्या गलत कर दिया मैने। जवान लड़का है, कुछ उलटा सीधा कर बैठा तो किसमें मुंह डालोगे। पंडितजी ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा- गुस्सा आ गया और मैने डाटा दिया, उसके लिए क्शमा कर दो। मैं उसका दुश्मन तो नहीं हूं, जो कुछ कहा उसके भले के लिए ही कहा। पंडिताईन भर्राते गले से बोली- यह बात उसे आप प्यार से भी तो समझा करते थे ना। पंडितजी को भी लगा बात तो सही है।
उन्होंने रमाकांत को आवाज लगाई लेकिन पंडिताईन ने कहा कि राधेश्याम ने उसको बुलावा भेजा था, वो वहां गया हुआ है थोड़ी देर में आ जाएगा। पंडिताईन रसोई का काम निपटाकर सो गई। पंडितजी को किताब पढते पढते कब आंख लगी उन्हें पता ही नहीं चला।
जल्दी सुबह पूर्व दिशा में लालिमा छाने लगी। अब सूर्य देव के आगमन का कुछ ही समय बचा था। नियमित क्रियानुसार पंडितजी जल्दी उठकर मंजन कर नित्यक्रिया से निवृत होकर स्नान किया। पूजापाठ करने के कुछ देर बाद बाहर अंधेरा छटने लगा था। पंछी जागने लगे चारों ओर पक्शियों की चहचहाने की आवाज सुनाई देने लगी। इतने में दूध वाले ने दरवाजा खटखटाया। पंडितजी रसोई से बर्तन लेकर दरवाजे पर गए। दूध लेकर रसोई में रखा। पंडिताईन को आवाज दी- दूध आ गया है, भाग्यवान अब उठ जाओ। पंडिताईन ने उबासियां खाते हुए बिस्तर छोड़ा। मूंह धोकर रसोई की ओर बढी। चूल्हा जलाकर चाय बनाई। रसोई से ही रमाकांत को आवाज लगाई। बेटा, उठ जा। सवेरा हो गया है, चाय बना दी, ठंडी हो जाएगी। रमाकांत भी अपने कमरे से बाहर आया। दातुन करके चाय ली। अब तीनो रसोईघर के पास में बैठकर चाय की चुस्कियां लेने लगे। पंडितजी ने कहा-इतना बड़ा घर है और हम तीन जीव रहते है इस घर में। पूरा घर खाली-खाली लगता है। राधेश्याम साथ था तो घर भरा-भरा सा लगता था। पंडिताईन की तरफ देखने पर पंडितजी को लगा कि शायद उन्हांने गलत समय पर गलत बात छेड़ दी। उन्होंने चाय का प्याला खत्म कर उठना मुनासिब समझा।
इधर, पंडिताईन घर के झाडू पोछा लगाने लग गई। रमाकांत भी मां का हाथ बटाने लगा। पंडितजी अपने शयनकक्श में जाकर कुर्सी पे बैठ गए। कुछ देर बाद पंडिताईन ने आवाज लगाई- आज खाना क्या बनाउं। पंडितजी ने अंदर से ही आवाज दी। रमा को पूछ लो, मेरे तो जो तुम बनाओगी वो खा लूंगा।
पंडितजी ने अपने कुछ काम करने के बाद आवाज लगाई। रमा इधर आना तो। रमाकांत तुरंत हाजिर हुआ, जी पिताजी क्या हुआ। उन्होंने रमाकांत के सिर पर हाथ फेरते हुए अपने पास बिठाया। इतने में पंडिताईन भी आ गई।
पंडितजी ने रमाकांत से कहा- बेटा, कल मैने जो तुझे कहा वह कोई द्वेशवश नहीं था। मुझे तेरी चिंता हो रही है। तूं देख ही रहा है, जमाना किस कदर बदल रहा है। अब कम पढे लिखे और बिना काम जानने वालों के लिए आगे जिंदगी गुजारना मुश्किल हो जाएगी। तुझे हमने लाड़ प्यार से बड़ा किया। हम कभी अपनी आंखो के सामने तुझे दुखी होता नहीं देख सकते। पंडितजी की बातों का रमाकांत पर गहरा असर हुआ। उसने पंडितजी से कहा-पिताजी कल मैने आपको उलटा जवाब दिया, उसके लिए मुझे क्शमा करें। मैं आगे पढना चाहता हूं। मुझे नियमित तो कॉलेज में दाखिला नहीं मिला लेकिन प्राईवेट से ही स्नातक करूंगा। इसके साथ मेरे एक मित्र के मशीनों की दुकान है, मैं उसके साथ रहकर मशीनों का काम धंधा सीखना चाहता हूं। पंडितजी को यह सुनकर बड़ा सुख मिला। उन्होंने कहा - ठीक है बेटा लेकिन जो भी काम करो मन लगाकर करना।
कुछ देर बात पंडिताईन ने सुबह का खाना तैयार कर दिया। दोनो बाप-बेटे ने पास में बैठकर खाना खाया। पंडितजी ने कॉलेज फार्म के लिए बेटे को फीस दी और फिर अपने काम से घर से निकल गए।
आज मां-बेटे को पंडितजी का व्यवहार बहुत अच्छा लगा। कुछ देर बात रमाकांत अपने मित्र के घर फार्म भरने चला गया। उसने कॉलेज का फार्म भरकर फीस जमा कराई। इसके बाद वह अपने मित्र के साथ उसकी दुकान पर जाने लगा।
समय की धारा चलती रही। पंडितजी हमेशा रमाकांत को लेकर चिंतित रहने लगे। रमाकांत दिनभर मशीनों की दुकान पर काम करता और रात को दो तीन घंटे घर पर पढाई भी करता था। कई बार पंडितजी ने कहा कि बेटा, अगर काम तुझे अच्छा न लगे तो कोई बात नहीं तुझे कोई जबरदस्ती नहीं। लेकिन रमाकांत को अब खुदगर्जी प्यारी होने लगी। शुरूआती महिने भर तो रमाकांत को दुकान से कुछ भी नहीं मिला लेकिन उसके बाद उसकी बारह सौ रूपए मासिक तनख्वाह बांधी गई। अब रमाकांत ने मोटरें ठीक करने का काम भी कुछ हद तक सीख लिया था। इस तरह साल का अंत होने को आया। रमाकांत के इम्तिहान भी सर पर आ गए। रमाकांत ने इम्तिहानों को देखते हुए दुकान से एक माह के छुटटी की दरख्वाश्त की लेकिन मित्र के पिता ने कहा कि छुटटी नहीं मिल सकती और छोड़कर गया तो वापिस नहीं लगाउंगा। रमाकांत भारी मन से घर पहुंचा। शाम को पंडितजी ने बेटे का मूंह लटका हुआ देखकर पूछा- क्या बात है, तेरे चेहरे पर बारह क्यूं बजे हुए है? रमाकांत ने सारी बात पंडितजी को बताई। उन्होंने उसे तुरंत नौकरी छोड़कर पढाई पर ध्यान देने को कहा लेकिन रमाकांत का जी नहीं मान रहा था। बेटे की स्थिति को भांपकर पंडितजी ने उसे समझाया कि देख अगर तूं दुकान में उलझा रहेगा तो पढाई नहीं कर पाएगा और पिछड़ जाएगा। दुकान का तो क्या है, अब तुम काम सीख गए हो। इम्तिहान के बाद कोई भी मशीनों की दुकान वाला तुम्हे काम पर रख लेगा। कुछ तो मेरी जान पहचान वाले भी है। तुम चिंता मत करों, पढाई पर ध्यान दो। यह काम इम्तिहान के बाद में करवा दूंगा। पिताजी की तरफ से पूर्ण आश्वस्त होने के बाद रमाकांत ने दुकान की नौकरी छोड़ दी। अब उसने महिने भर घर बैठ पढाई करके इम्तिहान दिया। इम्तिहान पूरा होने के बाद रमाकांत घर पर खाली बैठा रहता था। एक-दो बार वापिस उसी दुकान पर उसने कोशिश की लेकिन उसके पिता ने साफ मना कर दिया।
एक दिन शाम को पंडितजी गुस्से में घर पहुंचे। कहने लगे- क्या जमाना आ गया। अब ब्राह्मणों की तो कोई इज्जत ही नहीं। वो ठाकुर समझता है कि हम उसकी भीख पर पलते है। रजवाड़े चले गए लेकिन इनका गुमान अभी तक नहीं गया। आज तो हद ही हो गई उसने मुझे भिखारी तक कह डाला। अब इस यजमानी के काम में कोई इज्जत नहीं रही। जहां जाओ लोग ऐसे समझते है कि यह पंडित कुछ लेने आया है। अरे मेरा भी स्वाभिमान है। इस तरह कितना लज्जित होउंगा। अब तो यह काम छोड़ना ही पड़ेगा। पंडिताईन पास में खड़ी सब सुन रही थी। पंडितजी का गुस्सा शांत होने के बाद उसने कहा। आप कह रहे है कि काम छोड़ना पड़ेगा तो फिर क्या काम करोगे। अपने पास जमीन है नहीं। लड़का भी बेरोजगार बैठा है, दूसरा काम आपको कुछ आता नहीं, घर कैसे चलेगा।
पंडितजी ने भारी मन से कहा तो क्या करूं, तूं ही बता। पिछले तीन माह में मुझे चौथी बार बेइज्जती का सामना करना पड़ा। बुजुर्ग लोग तो मेरी बड़ी इज्जत करते है लेकिन अब नई पीढी के लड़के तो मुझे भिखारी तक कहने लग गए है। पहले किसी घर में जाता था तो वहां की बहुएं हाथ पर लम्बा घुंघट खींचती थी, अब नई बहुंए तो मुझे देखकर ऐसे अनदेखा करती है जैसे कोई गली से बैल गुजर रहा हो। मुझे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा। इस तरह पूरी रात पंडितजी गुस्से में करवटें बदलते रहे पर आंख में नींद नहीं आई।
सुबह जल्दी उठकर नित्यकर्म व पूजा पाठ करने के बाद वो आज जल्दी ही घर से निकले जो दोपहर को वापिस घर पर लौटे। आज उनके चेहरे पर चमक दिख रही थी। उन्होंने घर में घुसते ही रमाकांत को पुकारा। रमाकांत अपने कमरे से बाहर आया। उन्होंने उसे अपने पास बिठाकर पूछा- बेटा, तूं मशीनों का कितना काम सीख गया। रमा को कुछ बात समझ नहीं आई, फिर भी उसने पिताजी बात का उत्तर तो देना ही था। उसने कहा मुझे उस दुकान का सारा काम आता है पिताजी। मैं मशीनें ठीक कर सकता हूं। नये पार्ट जोड़कर नई मशीन बना सकता हूं। पंडितजी ने थपकी लगाते हुए कहा तो फिर ठीक है, हम दोनो मिलकर मशीनों की दुकान खोलेंगे। बता दूंगा सबको कि हम किसी के रहमोकरम पर नहीं जी रहे है।
रमाकांत के चेहरे पर कई प्रश्न उभर कर सामने आए। उसने कहा पिताजी हम दुकान कैसे खोल सकते है। इसके लिए एक तो सही जगह दुकान होनी चाहिए, इसके बाद कम से कम दो लाख रूपए का सामान लाना होगा। लोगों को बताना होगा कि हमने इस चीज की दुकान खोली, तभी हम से ग्राहक जुड़ पाएंगे।
पंडितजी ने चुटकी लेते हुए कहा कि बेटा इसकी तुम चिंता मत करो। मैं अभी सामने वाले चौराहे पर माथुर साहब की दुकान तय करके आया हूं। दुकान की पगड़ी भी देकर आया हूं। बस एग्रीमेंट लिखवाना बाकी है। मेरे पास पचास हजार रूपए जमाकर रखे है और पचास हजार एक यजमान ने देने का वायदा किया है, उसने कहा कि जब हो तब लोटा देना पंडितजी। पीछे बचे एक लाख रूपए उसका भी कुछ न कुछ जुगाड़ बिठा ही दूंगा। बेटा, तुम परेशान क्यों हो रहे हो, उम्र बिता दी यजमानी में लेकिन अब वो समय नहीं रहा। अब समय के साथ हमें भी बदलना होगा। रमाकांत ने कहा-पिताजी काम तो मैं सब जानता हूं लेकिन टेडा काम है, एक बार फिर सोच लो।
पंडितजी सब कुछ सह सकते थे लेकिन अपना अपमान नहीं। भिखारी शब्द बार-बार उनके कानों में गूंज रहा था। उन्होंने पूरा ठान लिया था कि अब कुछ भी हो लेकिन अपमानित नहीं होउंगा। उन्होंने रमाकांत से कहा-देख, अगर तुम जो सोच रहे हो, ऐसे ही सोचते रहे तो कुछ नहीं होगा। काम करेंगे तो ही काम होगा। रमाकांत ने पंडितजी के आगे अपने हथियार डाल दिए।
अब पंडितजी ने माथुर साहब से दुकान का एग्रीमेंट लिखवा लिया। रमाकांत ने दुकान को तैयार करवाना शुरू किया। पंडितजी ने अब रात दिन एक करके रूपयों का इंतजाम करना शुरू किया। उन्होंने अपने पुराने लंगोटियों को टटोलना शुरू किया। जिनमें अब कई बड़े रईस थे। पंद्रह दिन में पंडित ने पूरे दो लाख रूपए इकटठे कर लिए। रमाकांत ने मशीनरी सामान की सूची बनाई और सामान खरीदने की पूरी तैयारी की। शुभ मुहूर्त देखकर बाप-बेटे दोनो बड़े शहर सामान खरीदने गए। वहां से उन्होंने डेढ़ लाख का सामान खरीदा। एक गाड़ी किराए पर ली और सामान भर कर वापिस घर पहुंचे। पूरी रात दोनो ने सामान जमाया। नई दुकान के उत्साह में रमाकांत के कुछ मित्र भी उसकी मदद को आ पहुंचे। पूरी रात सभी ने मेहनत करके सामान सजाया। काम ज्यादा होने की वजह से सभी थक गए थे। सुबह होने को थी। रमाकांत ने दुकान के ताला लगाया। सभी पंडितजी के घर पहुंचे तब तक पंडिताईन ने चाय बनाकर तैयार रखी थी। सभी ने बैठकर चाय पी। इस बीच रमाकांत बोला-पिताजी अब दुकानदारी ग्राहकों पर निर्भर करती है। जहां मैं काम करता था, वह दुकान बरसों पुरानी है, लोगों को पता है कि उस दुकान पर मशीने ठीक होती है या नई मिलती है। हमारी दुकान को जमाने के लिए कम से कम हमें एक साल तक संघर्श करना पड़ेगा। उसके मित्रों ने भी उसकी हां में हां मिलाई। पंडितजी को यह बात बिलकुल नहीं जमी। उन्होंने दुकान का प्रचार करने की सोची। सुबह होते ही वो तैयार होकर बाजार निकल गए। यजमानी में उनकी जान पहचान तो खूब थी, उनको जो भी मिला सबको बताया कि हमने मशीनों की दुकान खोली है। पंडितजी पूरे दिन बिना अन्न-जल ग्रहण किए पूरे कस्बे में प्रचार करते रहे। शाम होने पर वो घर पहुंचे। रमाकांत और पंडिताईन दोनो दरवाजे पर खड़े राह देख रहे थे। पंडितजी को देखते ही दोनो ने राहत की सांस ली। पंडिताईन ने पूछा- कहां रह गए सारा दिन न कुछ खाया न बताया। चुपचाप निकल गए। पंडितजी ने हल्की सी मुस्कान बिखेरते हुए कहा- अब काम बड़ा करने जा रहे है तो कुछ दिन खाना पीना भूलना तो पड़ेगा ही।
दुसरे दिन फिर पंडितजी घर से जल्दी निकले और बस पकड़कर सीधे शहर की तरफ निकले। वहां पर वे समाचार-पत्र के कार्यालय पहुंचे। वहां पर उन्होंने अपनी दुकान के पर्चे छपवाये। जिसमें दुकान संबंधी सारी जानकारी लिखवाई व उदघाटन का समय भी लिखवाया। शाम होते होते वे पुनः अपने घर पहुंचे। दुसरे दिन सुबह अखबार के साथ पंडितजी की दुकान का पर्चा भी बंटा। चौथे दिन पंडितजी ने दुकान का उदघाटन किया। इस दिन काफी लोग जमा हुए। कई ऐसे ही देखने आए तो अधिकांश पंडितजी के जान पहचान के। अब पंडितजी खुद दुकान पर सेठ बनकर बैठने लगे। रमाकांत मशीनों को ठीक करने का काम करने लगा। महिना भर तो पंडितजी की दुकान में एका दुका ग्राहक लगता था लेकिन धीरे-धीरे पंडितजी के व्यवहार से ग्राहकों में बढोतरी होने लगी। इस तरह पंडितजी ने महिनें भर बाद यजमानी का काम बिलकुल ही छोड़ दिया। अब किसी के मुहूर्त की गरज होती तो वह पंडितजी की दुकान पर आकर पूछता और खरी दक्शिणा देकर जाता। इस तरह पंडितजी ने धीरे धीरे दुकान को अच्छा जमा लिया। पंडितजी सारा हिसाब किताब देखते और रमाकांत मशीनों के संबंधित काम। इस तरह बाप बेटे ने मिलकर अच्छी तरक्की करनी शुरू कर दी।
पंडितजी के चेले चपाटी पंडितजी की दुकान पर आ जाया करते थे। कई बार तो पंडितजी उन्हें झिड़क भी देते थे। लेकिन उनको कोई फर्क नहीं पड़ता। एक दिन माथुर साहब ने बातों-बातों में पंडितजी से पूछ ही लिया। माहाराज आप तो यजमानी करने वाले आदमी आपको यह व्यापार की क्या सूझी। पंडितजी ने कहा-माथुर साहब किसी ने सही कहा कि कड़वी बात के बिना आदमी आगे नहीं बढता। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। एक दिन मेरी किसी यजमान ने भिखारी से तुलना कर दी। बस उस दिन से मेरा यजमानी के काम से दिल उठ गया। लेकिन फिर भी जो लोग मेरे पास आते है मैं उनको मना नहीं करता लेकिन सिर्फ उन लोगों को जो मेरी इज्जत करते है। मैंने मेरे छोटे बेटे को नालायक समझा लेकिन आज उसकी वजह से ही मेरा आज स्वाभिमान जिंदा है।
दुकान खोले एक साल पूरा हुआ। पंडितजी ने वार्शिक आंकलन किया। उन्हें अच्छा मुनाफा मिला था। इसलिए बहुत खुश थे। उन्होंने अपने बेटे पर गर्व महसूस होने लगा। उन्होंने मान लिया कि जिस आदमी के पास हुनर है उसके पास तो लक्श्मी को आना ही पड़ता है।
अब पंडितजी को कोई चिंता नहीं रही। सुबह जल्दी रमाकांत दुकान पर चला जाता था। काम बढने के कारण एक लड़का भी रमाकांत की सहायता के लिए रख लिया था। अब पंडितजी को बेटे लेकर कोई चिंता नहीं रही।