थरथराते बेसहारा हाथ
हा ..हा..हा...हा...। हा...हा...हा...हा...। दूर दूर तक सुनाई देती हंसी की आवाज । शहर की व्यस्तता से भरी.. भागती दौड़ती जिन्दगी के बीच इस प्रकार की हंसी एक अजीब सी सुकून मन को प्रदान करती है । आज जहाँ लोगों के पास दुसरों की बात तक सुनने का भी समय नहीं है वहाँ एक साथ लोगों के समूह के हँसने की आवाज कौतुहल उत्पन्न करती थी आने जाने वालों के बीच । भीड़ भरी गलियों, चौक चौराहों, बजारों से आते तेज शोर ,..तेज रफ्तार से भागती गाड़ियां ,.उनकी कान फाडू हॉर्न की आवाज के बीच ,उनके तेज गति से आती हंसी की आवाज से मन प्रसन्न हो जाता था ।
वैसे मैं भी उन हंसने वालों लोगों के बीच का ही एक सदस्य हूँ । शहर के बीचों बीच स्थित है नारायणी वृद्धाश्रम । वृद्धाश्रम का आशय है वृद्धों के लिए आश्रय स्थल । वही वृद्ध व्यक्ति जिसनें अपना सारा जीवन, सारा समय , सारी सम्पत्ति अपने बच्चों के लिए हँसते हँसते कुरबान कर दिया। अपनी सारी जमा पूंजी अपने बच्चों का आशियाना बनाने मे खर्च कर दिया ताकि वे सुख से रह सकें ,वही बच्चे आज उन्हीं के बनाये आशियाने मे से एक छोटा सा कोना देने से भी कतराते हैं । क्या हो गया है आज समाज को , क्या हो गया है उनकी सोच को । कल जिस माँ बाप की उँगली पकड़ कर उसने चलना सीखा था , जिस माँ बाप की आवाज सुनकर बोलना सीखा था आज उन्हीं को वे वृद्धाश्रम के हवाले कर चैन की जिन्दगी जीने का सपना देखते हैं ।
ठक..ठक..ठक.. की आवाज से मेरी नींद टुटी । घड़ी देखी तो पाया कि सुबह के चार बज रहे थे । दरवाजा खोला तो देखा सामने शमीम भाई खड़े हैं ।
अरे शर्मा जी पांच बज चुके हैं ..... चलना नहीं है क्या सैर के लिए ?
बस इतना ही कहकर अगले रूम की तरफ ठक ठक की आवाज के साथ बढ़ जाते हैं शमीम भाई अपने और बाकी साथियों को उठाने के लिए ।
अभी तो चार ही बजे हैं ....। मन ही मन मुस्कुराया मैं समझ गया था कि उन्हें नींद नहीं आई होगी आज । क्यों न उत्साहित हों वे ... उनके बेटे और बहू जो उन्हें लेने आ रहे थे आज ।
कल से ही वे बहुत खुश दिख रहे थे , सबको जा जाकर बता रहे थे कि कल मेरे बेटे और बहू मुझे यहाँ से ले जाने के लिए आ रहें हैं । एक बार फिर मैं अपने पोते पोतियों के साथ खेलूंगा , मज़े करूंगा । कितना मजा आएगा ...।
यहां आए हुए उन्हें पांच साल हो चुके थे । मैं उनके आने के एक साल बाद इस वृद्धाश्रम में आया था । अलग-अलग मजहब से ताल्लुक रखते थे हमलोग... मगर इन चार पांच सालों में हमारे बीच एक-दूसरे से गहरा रिश्ता बन गया था । एक गहरा लगाव था हमलोग के बीच । उम्र में वो हमसे बड़े थे । पढ़े लिखे तो नहीं थे मगर ज्ञान का एक अद्भुत भंडार था उनके अंदर । तर्क वितर्क में शायद ही कोई उन्हें हरा पाए । मैं भी उनसे कई बार हार चुका था । थे अंगूठा छाप मगर देश दुनिया का पूरा ज्ञान उन्हें था । अपनी मेहनत के बदौलत अच्छा खासा व्यवसाय खड़ा कर लिया था उन्होंने । कभी किसी धर्म या मजहब की बुराई उन्होंने नहीं की । बस उन्हें नफरत थी तो झूठे ओर फरेबी लोगों से जो झूठ का सहारा लेकर लोगों के जज्बातों से , उनकी भावनाओं से खेलते थे । वो कहते थे कि
कुछ पाना हो तो तर करो पसीने से खुद को ,
काम करो , मेहनत करो,
सहारा क्यों लेते हो फरेब का ।
अरे दौलत तो लाखो हज़ारों कमा लोगे ,
उन घुंघरुओं की आवाज कहाँ से लाओगे,
जो छिनते हो गरीबों के पाजेब का ।
लाख हाथ पैर चला लो ,
लकीरें खींच लो हथेली पर ,
अरे मिलना तो उतना ही है ,
लिखा है उसने... लेख जो नसीब का ।
कई ऐसे किस्से थे मेरे जेहन में बसे हुए थे उनके । देखा जाए तो मैं नहीं चाहता था कि वो यहाँ से जायें । मैं उनके साथ इस डर से नहीं जाना चाहता था कि आज के बाद हम फिर कभी एक साथ हँस नहीं पाएंगे ।
हँसने की दूर दूर तक जाती आवाजें थम सी जाएगी । मैं इसी उधेड़बुन में पड़ा हुआ था कि सैर सपाटे के लिए जाएं या न जाएं । हमारी वृद्धों की टीम के लीडर वही थे , उनके बिना सब सूना हो जाएगा ।
तभी शमीम भाई फिर से मेरे कमरे में आ गए और बोले- क्या शर्मा जी आप अभी तक तैयार नहीं हुए । मैं कब से बाहर बैठा आपका ईन्तजार कर रहा हूँ । सारे लोग आ गए है बस आप ही लेट हैं।
"आ रहे हैं शमीम दा ।" मैंने अपनी नजरें नीची करते हुए कहा ।
मेरी आवाज से उन्होंने भांप लिया था कि मैं उनके जाने वाली बात से उदास था ।
शर्मा जी मैं आपको छोड़ कर कहीं नहीं जा रहा ....।
नही शमीम दा ...। मैंने उनके होठों पर उँगली रखते हुए कहा ।
आप ऐसा नहीं करेंगे , ये आपकी खुशनसीबी है कि आप यहाँ से जा रहे हैं , वरना यहाँ आने के बाद तो लोगों की अस्थियों को भी कोई स्वीकार नहीं करता , लावारिसों की तरह नदियों नालों में बहा दी जाती हैं । आप तो खुशकिस्मत हैं कि अपनों का साथ आपको मिलने वाला है । वरना लाचार लोगों को उनके बच्चों के कदमों के निशान यहाँ लाने तक के तो मिलेंगे ,मगर दुबारा उनके वापसी के नही मिलेंगे । समझें मेरे बड़े भाई । एक हल्की सी चपत उनके गालों पर लगाई और बगीचे की ओर निकल पड़े हम जहाँ पहले से ही हमारी मंडली कसरत करने में व्यस्त थी ।
पता नहीं आज सबके चेहरों पर वो बात , वो खुशी , वो ताजगी नजर नहीं आ रही थी । शायद हर कोई यही चाहता था कि शमीम भाई यहाँ से ना जाएं ।
फिर हँसने का दौर शुरू हुआ, दोनों हाथों को ऊपर उठा कर , जोर जोर से हंसते हुए वृद्धों की आवाज गूँजने लगी ।
हा....हा....हा...हा...। हा...हा...हा...हा...। इसे लोगों ने लाफ्टर थेरेपी का नाम दिया है ।
फिर भी जिस ठहाके की गूंज को लोग दूर दूर तक सुनते थे । उसमें आज वो बात नहीं थी । मैं उनसे नज़रें नहीं मिला पा रहा था । शमीम दा के चेहरे से खुशी झलक रही थी । मैं साफ़ साफ़ देख पा रहा था कि उनकी आँखों में कुछ सवाल और चेहरे पर एक मुस्कान थी.... एक रहस्यमयी मुस्कान । पता नहीं क्यों मुझे उनसे आज जलन सी हो रही थी । जो एक मानवीय प्रवृत्ति थी। पर जलन से कहीं अधिक मन में इस बात की ख़ुशी थी कि बाकी जिंदगी तो कम से कम सुख पूर्वक गुजारेंगे वह ।
खैर एक घंटे के सैर और व्यायाम के बाद हमलोग आश्रम पहुंचे । चाय नाश्ता का समय हो रहा था । सब लोग हाथ मुंह धोकर डाइनिंग रूम की तरफ जा रहे थे , मैं भी अपने कमरे में चला आया ।
प्रतिदिन शमीम भाई सैर से लौटने के बाद मेरे कमरे में आते थे फिर हमलोग साथ ही डाइनिंग रूम में जाकर चाय नाश्ता करते थे । परंतु आज वो मेरे पास नहीं आए तो मैं ही उनके पास चला गया। देखा तो पाया कि वह एक तस्वीर को बड़े ही गौर से देख रहे थे । जिसमें वो उनकी पत्नी , बेटी और उनका एकमात्र बेटा शौकत खड़े मुस्करा रहे थे। मेरी आहट पाते ही झट से अपने आँसू पोंछे और बोले - अरे शर्मा जी आप...! मैं तो बस आ ही रहा था । चलिए चाय पीते है ।
मैंने स्पष्ट रूप से देखा कि वे मुझसे कुछ छुपाने का प्रयास कर रहे थे । मैंने उनके हाथ पकड़े और पूछा क्या बात है शमीम भाई आप मुझसे कुछ छिपा रहे हैं ।
कुछ नहीं शर्मा जी कुछ विशेष नहीं है समय आने पर सब पता चल जाएगा । उन्होने बात को टाल दिया ।
चाय नाश्ता करने के बाद हमलोग अपने अपने कमरे में आकर थोड़ी देर के लिए आराम करते थे फिर एक जगह जमा होकर गपशप किया करते थे । अभी कुछ देर हुआ था कि मुझे उनकी आवाज सुनाई दी । मैंने विजिटिंग रुम में जाकर देखा तो पाया कि एक 30-35 साल का एक व्यक्ति और एक बुर्के वाली औरत सामने बैठे थे जबकि शमीम भाई आँसुओं से डबडबाई आंखों के साथ एक कुर्सी पर बैठे हुए थे । कितना खुश थे वे । उनके साथ साथ मैं और पूरा आश्रम ही बहुत खुश था ।
उनका बेटा शौकत ने उनके कन्धे पर हाथ रखते हुए कहा - अब्बा .. ये मैंने सारे कागजात तैयार कर लिये हैं बस आप दस्तख़त कर दिजिए । और दो चार पन्नों का एक कागजात उनकी ओर बढ़ाया । उन्होने मेरी तरफ देखा । शायद वो चाहते थे कि मैं कागजात को पढ़ लूं । मैंने सोचा आश्रम के काग़ज़ात को क्या पढ़ना । वो तो सबके लिए एक ही होता है । मगर कुछ तो बात थी कि वह मेरी तरफ देख रहे थे । मैंने करीब जाते हुए देखना चाहा तबतक वह अपना अंगूठा लगा चुके थे ।
"ठीक है बेटे खुश रहो " । बस इतना ही कहा और उठकर वे अंदर चले गए । मुझे मामला कुछ समझ में नहीं आया । मैं भी उनके पीछे पीछे चला आया । देखा वो अपने कमरे में आ कर लेट गए थे।
मैंने आते हुए कहा- ये क्या शमीम भाई आप यहाँ आकर क्यों लेट गये । आपका तो अब जाने का समय हो गया है ।
तबियत कुछ ठीक नहीं लग रही थी शर्मा जी इसलिए आकर लेट गया । वैसे भी मैं दिल का मरीज़ हूं। कुछ देर बाद ही निकलूँगा । शमीम भाई ने मुझसे झूठ बोलने की कोशिश की ।
मैंने भांप लिया था कि वो मुझसे झूठ बोल रहे हैं । मैंने उनका हाथ पकड़कर पूछा - आखिर क्या बात है भाईजान जो आप मुझसे छिपा रहे हैं । इतने दिनों की दोस्ती पर भरोसा नहीं है क्या ?
नहीं शर्मा जी आप ये बोल कर मुझे लज्जित न करें । जो आप सामने से देख रहे हैं वो सच नहीं है । शायद बच्चे हमें बेवकूफ समझते हैं । वो ये नहीं जानते कि हमनें अपने बाल धूप में सफेद नहीं किए । जो कागजात मेरा बेटा लेकर आया है , जानते हैं क्या है वह ?
जाने से पहले आश्रम के द्वारा जो सर्टिफिकेट दिया जाता है वही होना चाहिए । मैंने अंदेशा जताया।
"नहीं शर्मा जी वह मेरी जायदाद के काग़ज़ात लेकर आया है । आश्रम का सर्टिफिकेट तो बस ऊपर से लगा हुआ था । उसने शायद सोचा कि मैं अंगूठा छाप भला क्या समझ पाऊँगा । खैर छोड़िए मैंने अंगूठा लगा दिया है और अब सब कुछ उसका हो चुका है । उसे जाकर बोल दिजिए कि वो चला जाए "। उनके आंखों में आंसू डबडबा आये थे । उनका दर्द मैं समझ सकता था ।
मगर वो दर्द नहीं समझ पाया मैं जो मुझे तत्त्काल और अभी समझना चाहिए था । उनके सीने में अचानक ही दर्द उठा और वो बिस्तर पर ही छटपटाने लगे । मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था कि इस समय क्या करें । जल्दी से अगल बगल वाले कमरे से अपने साथियों को बुलाने के लिए दौड़ा । सारे लोग डाइनिंग रूम में थे । मैं फिर से उनके कमरे में दौड़ता हुआ लौटा और उन्हें जोर जोर से हिलाने लगा । शमीम भाई... शमीम भाई ... उठिए । हम आपको अस्पताल ले जायेंगे । आपको कुछ नहीं होगा । और
तभी उनका सिर एक ओर लुढ़क गया ।
ये क्या हो गया आपको शमीम भाई...इतनी जल्दी हमारा साथ आप नहीं छोड़ सकते । शमीम भाई ... आपको उठना पड़ेगा , मुझे आपकी ज़रूरत है शमीम भाई । मैं दहाड़ें मार कर तो पड़ा । तब तक कई सारे लोग जमा हो चुके थे ।
मगर उनका शरीर अब शांत पड़ चुका था , मैंने अंतिम प्रयास करते हुए उनकी छाती को दोनों हाथों से दबाने लगा ।
उठिए शमीम भाई उठिए .... । अभी आपको बहुत लोगों का साथ देना है , सही राह दिखानी है ....। उठिए ... उठिए । मगर ना उन्हें उठना था और ना ही वो फिर उठ सके । मैंने अपने हाथों से उनकी आंखें बंद की । तब तक बहुत सारे लोग जमा हो चुके थे कमरे में । सबकी आँखों से अविरल आँसू बह रहे थे ।
कुछ देर तक मैं शान्त बैठा रहा ।
बैठकर सोचने लगा कि ऐसे लोग क्यों हैं दुनिया में जो सिर्फ स्वार्थ के लिए जीते हैं । अब इनके बेटे को ही ले लीजिए उसे जायदाद पाने की इतनी भूख... आखिर क्यों ? इकलौते वारिस होने के नाते सारी जायदाद तो उसी की है फिर हड़बड़ी क्यों ? आज की पीढ़ी आखिर क्यों बिना मेहनत किए सारा कुछ पा लेना चाहती है । मैं ऐसे लोगों को क्यों माफ करूं जो अपने बुजुर्गो को दुःख देते हैं उन्हें तकलीफ देते हैं । जब उन्हें सहारे की जरूरत ज्यादा होती है फेंक देते हैं बुजुर्ग आश्रम में ।
बहुत तकलीफ हो रही थी मुझे आज ,एक तो बड़े भाई जैसे शमीम दा हमारा साथ छोड़ गए थे । ऊपर से उनके बेटे द्वारा उन्हें दिया गया इतना बड़ा धोखा ,मन में एक अजीब सी हलचल मची हुई थी।
तभी आश्रम के एक व्यक्ति द्वारा बताया गया कि शौकत अभी भी बैठा हुआ है । शायद कहीं एक जगह शमीम जी के अंगूठे का निशान बाकी रह गया था ।
मैंने अपने आँसू पोंछे और कमरे से निकल कर आश्रम के ऑफिस में गया । देखा कि उनका बेटा अभी भी वो कागजात लेकर बैठा हुआ था । एक असीम दुःख अपने दिल में दबाए मैंने पूछा क्या बात है बेटा ?
अंकल एक जगह पर उनके अंगुठे का निशान बाकी रह गया है । मैं जाकर उनसे मिल सकता हूं क्या ।
मुझे लगा कि अब न तब मेरी आँखों से आँसुओं की धार बह निकलेगी । बड़ी मुश्किल से अपने आप को संयमित करते हुए कहा - "नही बेटा वो अभी आराम कर रहे हैं । लाओ मुझे जगह दिखाओ मैं अंगूठा लगा कर ले आता हूँ "। उसने मुझे जगह बताई और मैं कागजात लेकर चल दिया । मेरा दिल जार जार रो रहा था । कदम थे कि बढ़ने का का नाम ही नहीं ले रहे थे । किसी तरह मैं उनके कमरे में गया । देखा लोग उनके अगल बगल गमगीन होकर खड़े थे । मैं एक हृदय विदारक काम करने गया था । कागजात निकाले और उनके मृत हाथों के अंगूठों का निशान अपने थरथराते हाथों से लगाया , घुटनों के बल जमीन पर बैठ गया और जोर जोर से रोने लगा । अपने दोनों हाथों को ऊपर उठाया और रोते हुए कहा - हे ऊपर वाले मुझे माफ़ करना । हे शमीम भाई मुझे माफ़ करना ।
काफी देर तक रोता रहा मैं । आंसुओं के सारे गुब्बार मैं यहीं निकाल लेना चाहता था ताकि उनके बेटे के समक्ष ये छलक न जाएं । मैं उसे बताना नहीं चाहता था कि हमारे बड़े भाई अब नहीं रहे ।
बुझे कदमों से ऑफिस के कमरे में गया और जल्दी से वो कागजात उनकेे बेटे को थमाया दिया फिर बिना कुछ बोले ऑफिस से निकल गया । फिर से वही दिनचर्या शुरू जो करनी थी मुझे ।
लेखक :-
जे०पी० नारायण भारती
बलसगरा हजारीबाग