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वक़्त वक़्त की बात

19 अप्रैल 2015

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featured imageजाने कब चुपचाप बुढ़ापा दबे पांव आ बैठा कब मेरी बाहें पकड़ी बाहु पाश में मुझ को जकड़ा आज जवानी जर्जर पिंजर थर थर करता बाहु बली आखों पर मोटा चश्मा पूरी बत्तीसी है नकली साथ छोड़ते सारे अपने मुंह मोड़ता अपना जाया अब किसको अपना समझूँ या कौन हुआ है पराया दो पैरों पर उड़ता था अब तीन पर भी चलना मुस्किल है जीवन था रेशम रेशम जाने कब टाट का पैबंद हो गया। .......
poonamsingh

poonamsingh

आप जैसे बुद्ध जीवियों की टिप्पड़ियां ही कुछ नया लिखने को प्रेरित करती है ...धन्यवाद

21 अप्रैल 2015

शब्दनगरी संगठन

शब्दनगरी संगठन

अति सुन्दर रचना...आभार !

20 अप्रैल 2015

शालिनी कौशिक एडवोकेट

शालिनी कौशिक एडवोकेट

सार्थक व् सुन्दर अभिव्यक्ति .

19 अप्रैल 2015

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sarhad

16 मार्च 2015
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SARHAD.. सरहद के उस पर , से आए मस्त हवा के झोकें संग में उनकी खुशबु लाए , कौन इन्हे अब रोके। बिसरे दिन अब याद आ गए, मिलन को ये दिल तरसे। नीम तले जब झूले पड़े , वो आए सब से पहले। साजन झुला हमें झूलना , तुम बिन सावन कैसे बीते। कोयल मोर पपीहे के सुर, अब तो हैं अनजाने। दिल में कितना दर्द छुपा है, को

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इंतज़ार ..

4 अप्रैल 2015
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जब भी तुम सफलताओं की.. सीढ़ी चढ़ते थे, हर कदम मेंरा दिल. कुचलता था, तुम्हारे पैरों तले. दर्द सह कर भी, हम हँसते थे, उम्मीद करते थे, लौट कर जब आओगे . तब मेरे दिल उठा कर , सहलाओगे बहलाओगे . पछताओगे अपने किए पर लेकिन कभी भी , वो दिन नहीं आया. तुम आगे और आगे, बढ़ते रहे बढ़ते रहे हम सिर्फ पहली सीढ़ी खड़े. अपन

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वक़्त वक़्त की बात

19 अप्रैल 2015
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जाने कब चुपचाप बुढ़ापा दबे पांव आ बैठा कब मेरी बाहें पकड़ी बाहु पाश में मुझ को जकड़ा आज जवानी जर्जर पिंजर थर थर करता बाहु बली आखों पर मोटा चश्मा पूरी बत्तीसी है नकली साथ छोड़ते सारे अपने मुंह मोड़ता अपना जाया अब किसको अपना समझूँ या कौन हुआ है पराया दो पैरों पर उड़ता था अब तीन पर

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पति व्रता ..!!

21 अप्रैल 2015
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कहतें हैं हाथों की लकीरों में ही हमारा भाग्य छुपा होता है लेकिन मै ने तो हमेशा उसके हाथों में पड़ी दरारों और र्रिसते खून को ही देखा है उसके चेहरे पर पड़ी धूल सूरज की रौशनी में स्वर्णरज सी दमक रही है फटे मैले आँचल में छुपे नव यौवन की मादकता अंग अंग से छलक रही है पैरों में पड़ी पाजेब

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मेरी ईर्ष्या ..!!

22 अप्रैल 2015
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क्यों हम अपने दुख़ ज्यादा दूसरों के सुख से दुखी होते हैं क्यों ईर्ष्या की आग में तप कर कुंदन तो नहीं सिर्फ कोयला बन सुलगते हैं इतना सुलगे कि अपनी ख़ुशी की चमक भी धुंदली लगने लगी नहीं देख पाए अपना सुख अपना आनंद सिर्फ कुढ़ते रहे- कुढ़ते रहे अपने विचारों से क्यों मेरा पडोसी आगे बढ़ गया और मैं

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