वो अस्सी-नब्बे की बातें,
कभी कभार याद आ जाती है
और याद आते ही
अपने अंदर समां लेती है
गर्मियों की छुट्टियो में छत पर कतार से सोना
सोने से पहले बड़ो का बाल्टी-मग से छत पर छिड़काव करना
बीच बीच में एक आध बार
उनसे मग लेकर हमारा भी छत पर छिड़काव करना
ज्यादा गर्मी लगे तो
आधी रात को एक टेबल फैन का इंतेज़ाम करना
उसके सबसे आगे जाकर सोना
एक अलग ही आनंद होता
सुबह स्वतः ही आँख का खुलना
सुबह की सोंधी खुशबु का अहसास होना
आस पास के घरो में भी
यही सब एक समान होता
फिर टोली बनाकर
घर से निकलना
किसी पास के पार्क में
सितोलिया, क्रिकेट, फ्लाइंग डिस्क से खेलना
वापस घर आकर
नहा धोकर फिर से खेलना
गुट्टे,व्यापार या कैरम
दिन भर इनसे ही व्यतीत करना
शाम को "पैल-दूल", "चैन-चैन",
मंदिर के शहतूत के पेड़ से शहतूत तोड़ना
रात को भी खेल से मन नहीं भरता
तो "कोना-रोकनी" और "छुपम-छुपाई"
भी जरुरी होता
फिर "चंगा-पो" से दिन ख़तम करके
सुबह होने तक पसर कर सोना
मम्मी से एक रूपया मांग कर लेकर जाना
और वापसी में ऑरेंज बार खाते हुए आना
किसी की विशेष डिमांड पर
"पोशम-पा" खेलना,
चुम्ब्क का छुपाना
"ऊंच-नीच" खेल कर फिर से छत पर
मम्मी से छुप कर कंचे खेलने जाना
साथ में माचिस और फोटो भी उड़ाना
और दिन में लाइट चले जाए तो
बीजणी पानी में भिगो कर, उस से ठंडी हवा खाना
महीने भर तक, नानी के घर जाना
आम, खरबूज़ और तरबूज़ों का लुत्फ़ उठाना
मामा संग बर्फ का गोला और आइस क्रीम खाना
भाई बहिनो के साथ कॉमिक्स अदल-बदल कर पढ़ना
मारिओ गेम में अपनी बारी का इंतज़ार करना
64 -इन-1 कैसेट के सारे गेम खेलना
शाम को 1 रुपये प्रति घंटे के हिसाब से
साइकिल-अद्धा किराये पर लाना
किसी पड़ोस में टीवी-वीडियो का लगना
अपनी छत से रात भर लगी तीनो फिल्म देखना
शायद एक सपना सा लगता है
मैं याद करता हूँ तो खो जाता हूँ
और खो गया है वो समय भी आज
जो ढूंढे से भी न मिले
ना जाने ऐसी कितनी ही बातें है
जिसे सुन कर अच्छा भी लगता है
और दुःख भी होता है
कहा चली गयी वो अस्सी-नब्बे की बातें।