यह मेरी जीवन की सबसे यादगार घटनाओं में से एक है
सन 1983 की बात है…
मेरी उम्र उस वक्त करीब तेइस साल की थी
सूरत में हमारा टैक्सटाइल ट्रेडिंग का बिजनेस अच्छी तरह स्थापित हो चुका था.
मेरे पिता भी अब टेक्सटाइल में उद्योग लगाने के बारे में गंभीरता से सोच रहे थे .
इस बीच "सूरत चैंबर ऑफ कॉमर्स" की तरफ से एक पत्र आया जिसमें इटली के मिलान शहर में विश्व की आधुनिक टैक्सटाइल मशीनरी की अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी के लिए निमंत्रण दिया गया था.
"सूरत चेंबर ऑफ कॉमर्स" ने एक अंतर्राष्ट्रीय टूर ऑपरेटर SOTC के साथ एक ग्रुप टूर आयोजित किया था जिसके अंतर्गत इटली के मिलान शहर में टेक्सटाइल मशीनरी की प्रदर्शनी के चार दिन के प्रवेश पास के साथ-साथ यूरोप के सात देशों की यात्रा भी शामिल थी.
उस ज़माने में सिर्फ ₹25000 में यूरोप के सात देशों की चौबीस दिन की यात्रा . आने जाने ,ठहरने , खास जगहों पर विजिट और दो वक़्त के खाने का खर्च भी शामिल था
मेरे पिता ने मुझे उस ग्रुप के साथ यूरोप भेजने का निर्णय लिया…
यात्रा के पैसे एडवांस में भर दिए गए
तब तक यूरोपीय देशों का "यूरोपियन यूनियन" के रूप में एकीकरण नहीं हुआ था और हर देश की मुद्रा भी अलग थी.
दस दिन के अंदर पासपोर्ट और सात देशों का ग्रुप वीज़ा भी आ गया…
मैं रोमांच से भर गया गया क्योंकि उन दिनों में आजकल की तरह विदेश यात्रा इतनी आम नहीं थी…
मैंने अपने जीवन में हवाई जहाज सिर्फ दूर आसमान में देखे थे जमीन पर खड़े हुए हवाई जहाज देखने का सौभाग्य अब तक प्राप्त नहीं हुआ था…
इस बीच मेरे पिता के एक मित्र ने उसी दौरान जर्मनी के "डुस्सल्डॉर्फ" शहर में चल रहे "इंटरनेशनल प्लास्टिक प्रोडक्ट फेयर" में जाने की सलाह दी , क्योंकि वह स्वयं वहां नहीं जा पा रहे थे इसलिए उन्होंने उस प्रदर्शनी का प्रवेश पास मुझे दे दिया.
आखिर वह दिन आ गया…
मुंबई से रोम होते हुए हमारी फ्लाइट ने पेरिस में लैंडिंग की…
कुल मिलाकर करीब 70 यात्रियों का ग्रुप था.
एयरपोर्ट के बाहर दो शानदार सुपर लग्जरी बसें हमारा इंतजार कर रही थीं.
अपने जीवन में इससे पहले कभी इतनी शानदार लक्ज़री बसें देखी न थीं.
इन्हीं दो लग्जरी बसों में हमारी संपूर्ण यूरोप यात्रा होनी थी
उन दिनों भारत का इंफ्रास्ट्रक्चर इमारतें सड़कें और हाईवे आज जैसे उन्नत नहीं थे….
भारत और यूरोप के रहन-सहन और खूबसूरती में जमीन और आसमान का अंतर था.
सेलफोन और इन्टरनेट का अभी तक आगमन नहीं हुआ था
दिलीप नाम का एक 35 वर्षीय गुजराती युवक हमारे ग्रुप का टूर मैनजर था.
मध्यम कद भूरी आंखें , गोरा चिट्टा रंग ,छोटी सी उम्र में उसके सिर के बाल लगभग गायब हो चुके थे लेकिन फिर भी दिलीप के व्यक्तित्व में गज़ब का आकर्षण था
हमेशा महंगे विदेशी स्पोर्ट्स शूज और पैंट कोट में सज्ज दिलीप बेहद मृदुभाषी, स्मार्ट ,अनुभवी और चुस्त लेकिन भोला भाला इंसान था.
अगले दिन बातों बातों मैंने दिलीप से पूछा …
दिलीप भाई, मुझे एक दिन के लिए जर्मनी के शहर "डुस्सोलडॉर्फ" में इंटरेशनल प्लास्टिक फेयर देखने जाना है , कोई रास्ता बताओ न !!!
उसने चुटकी बजाते कहा… आ तो बहु ईजी छे !!!
( यह तो बहुत आसान है)
तुम कल रात ट्रेन में बैठकर पेरिस से "डुस्सलडॉर्फ" चले जाओ . सुबह सुबह ट्रेन "डुस्सलडॉर्फ" पहुंच जाएगी…वहाँ होटल से सीधे फेयर देखने चले जाना , एक रात होटल में रुक कर अगले दिन सुबह तुम फ्रैंकफर्ट पहुँच जाना , और ग्रुप को जॉइन कर लेना.
फ्रेंकफर्ट में होटल का पता मैं दे देता हूँ.
दिलीप ने एक साँस में मेरी डस्सेलडॉर्फ की यात्रा का खाका तैयार कर दिया.
लेकिन वीजा ??? मेरे पासपोर्ट पर अलग से वीजा की स्टैम्प तो है नहीं . किसी ने पकड़ लिया तो क्या जवाब दूंगा ??? मैंने पूछा
कोई पूछता नहीं है यार !!! तुम बिंदास जाओ, फिर भी सेफ्टी के तौर पर एक ग्रुप वीजा की कॉपी मैं तुम्हें दे दूंगा…कोई पूछे तो दिखा देना. दिलीप ने मुझे निश्चिंत होकर जवाब दिया
दिलीप ने बैठे-बिठाए पेरिस से डुस्सलडॉर्फ ट्रेन में स्लीपर की बुकिंग भी करवा दी.
अगले दिन देर शाम को दिलीप ने मुझे पेरिस के मुख्य रेलवे स्टेशन से ट्रेन में बैठा दिया.
मैं गहरे तम्बाकू रंग का गर्म सूट पहने टाई लगाए हाथ में किसी शो रूम से मिली प्लास्टिक की सिर्फ एक थैली लिए जिसमें मेरा गर्म नाइट सूट था लेकर निकल पड़ा था.
बोगी आधी से ज्यादा ख़ाली थी ,
मैं अपनी सीट पर बैठे बैठे ऊपर से नीचे तक देखते हुए भारत में ट्रेन के डब्बे की तुलना करने लगा …
अचानक गहरी सलेटी ड्रेस में सुसज्जित गोरे चिट्टे, ऊँचे लंबे ,सुडौल शरीर, कमर में पिस्तौलें और बेटन लगाए दो पुलिस अफसर बोगी में प्रविष्ट हुए…
अचानक मेरे दिल की धड़कन बढ़ गई क्योंकि वह टी.टी.ई जैसे तो नहीं लग रहे थे
वे दोनों पुलिस अफसर हरेक पैसेंजर के पास जाकर उनके डॉक्यूमेंट दिखाने को कह रहे थे
पासपोर्ट प्लीज़ - एक अफसर ने बड़े सौम्य लहजे में मुस्कराते हुए कहा…
मैंने मुस्कराते हुए अपना पासपोर्ट और टिकिट दोनों थमा दिए…
आफिसर ने दो बार फर्र से पूरे पासपोर्ट के पन्ने पलट कर देखा
सिवाय मुंबई और पेरिस इमिग्रेशन स्टैम्प के पूरा पासपोर्ट कोरा था ,
व्हेर इज़ योर ट्रॉवेल वीज़ा ???
मैंने फौरन हड़बड़ाते हुएअपनी प्लास्टिक की थैली में से ग्रुप वीजा की फोटो कॉपी निकाल कर दिखाई…
कुछ मिनट तक दोनों ऑफिसर पासपोर्ट और वीजा की फोटोकॉपी को समझने की कोशिश करते रहे…
अचानक एक ऑफिसर अपना मुँह ज़रा सा टेढ़ा किया और अपने कंधे उचकाए.
मुझे भारत में एक अनुभवी मित्र ने समझाया था कि विदेश में एयरपोर्ट पर या कहीं और कोई अधिकारीअपना मुँह जरा सा टेढ़ा करते हुए दोनों कंधे उचकाए तो समझ लेना तुम पर कोई बड़ी मुसीबत आने वाली है…
यू कैन नॉट ट्रैवल विथ दीज़ डॉक्युमेंट्स …यू हैव टू गेट डाउन विद अस एट द नेक्सट स्टॉप.
(आप इन दस्तावेजों के साथ सफर नहीं कर सकते आपको हमारे साथ अगले स्टॉप पर उतरना पड़ेगा )
इतना सुनते ही मेरे प्राण गले में आ गए…
मैंने उनको बहुत समझाने की कोशिश की कि मैं सिर्फ एक दिन के लिए एक्जिबिशन देखने "डुस्सलडॉर्फ" जा रहा हूँ उसके बाद वापस अपने ग्रुप में ज्वाइन हो जाऊँगा
लेकिन उन दोनों अफसरों को अंग्रेजी समझ नहीं आ रही थी वह दोनों अफसर जर्मन या फ्रेंच भाषा में कुछ कहे जा रहे थे जो मुझे समझ में नहीं आ रहा था.
मेरे हाथ पाँव काँप रहे थे, चेहरा और कान लाल सुर्ख हो गए थे ,होंठ सूख गए थे ,दिल की धड़कन इतनी तेज थी कि मानो अभी हार्ट अटैक आ जाएगा…
मुझे यूं महसूस हो रहा था कि मानो मुझे कत्ल के इल्जाम में धर लिया गया हो
मैं उन दोनों अफसरों के सामने हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाने लगा…लेकिन उनमें से एक अफसर ने मुझे सख्त लहजे में कहा…टेक योर बैगेज एन्ड कम विद अस
मैंने काँपते हाथों से अपनी प्लास्टिक की थैली उठाई…
व्हेर इज़ योर बैगेज ???
मैंने उन्हें इशारे में समझाया कि बस यही मेरा बैगेज है…
दोनों अफसर एक दूसरे के चेहरे को देखने लगे
इतने में हमारी बहस सुनकर साथ वाले केबिन से पैंटकोट और टाई लगाए एक गोरा व्यक्ति प्रगट हुआ…
व्हाट इज द प्रॉब्लम ???
मैंने उस गोरे व्यक्ति को अपनी पूरी व्यथा कथा कह सुनाई …उस व्यक्ति ने उन दोनों अफसरों को उनकी भाषा में पूरी बात समझाई…
और "ड्डस्सलडॉर्फ" की एक्जिबिशन के एन्ट्री पास भी दिखाए…
आखिर उन दोनों अफसरों ने संतुष्टि में अपना सर हिलाया…
उस गोरे व्यक्तिने मुझे समझाया की ऑफिसर कह रहे हैं कि भविष्य में इस तरह के अधूरे दस्तावेजों के साथ सफर मत करना…
मैंने किसी गरीब और असहाय की तरह हाथ जोड़कर हाँ में अपना सर हिलाया…
उन दोनों अफसरों ने मुझे जो परेशानी हुई उसके लिए खेद व्यक्त किया और वहाँ से चले गए…
उनके जाते ही मैंने उस गोरे व्यक्ति का हृदय से धन्यवाद किया और धम्म से अपनी सीट पर पड़ गया…
मैंने राहत की गहरी साँस ली और उन्हीं कपड़ों में अपनी सीट पर लेट गया…
भीषण तनाव से मुक्ति पाने के बाद मेरी तुरंत आँख लग गई
सुबह तड़के ट्रेन "डुस्सलडॉर्फ" पहुँच गई…
मैं ट्रेन से उतर कर ढूंढते ढूंढते "टूरिस्ट इनफॉरमेशन सेंटर" पर पहुँचा… जहां नई मुसीबत मेरा इंतजार कर रही थी.
दस मिनट लाइन में लगने के बाद आखिर मेरा नंबर आया…सुनहरे बालों वाली एक खूबसूरत जर्मन महिला ने मुस्कुराते हुए अंग्रेजी में कहा…
वेलकम टू डुस्सलडॉर्फ …हाउ कैन आई हेल्प यू ???
मैंने अपने बजट के अनुसार एक होटल बताने को कहा…कंप्यूटर पर कुछ देर तक नजरें घुमाने के बाद उसने उसी जानी पहचानी अदा में दायीं तरफ अपना मुंह टेढ़ा किया और कंधे उचकाए…
मैं घबराया…उस महिला ने बताया अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी लगी होने के कारण पूरे शहर में कमरों की बहुत तंगी है…
जो दो चार होटल उसने बताए वह मेरे बजट से कई गुना ज्यादा थे उतने तो पैसे भी मेरी जेब में नहीं थे.
आखिर उसने मुझे एक रास्ता सुझाया…
उसने मुझे बताया कि डुस्सलडॉर्फ शहर से करीब दस बारह किलोमीटर दूर एक स्पेनिश महिला के घर में एक कमरा खाली है .
मेरे पास और कोई रास्ता नहीं था… मैंने हाँ में सर हिलाया…
इंक्वायरी काउंटर पर बैठी सुनहरे बालों वाली महिला ने मकान की मालकिन को फोन लगाया ,उससे बात की और वह कमरा बुक कर दिया . मैंने उस कमरे के पैसे चुकाए …
बदले में मुझे शहर का नक्शा और एक कागज पर हाथ से लिखा उस महिला का नाम और घर का दो लाइन का एड्रेस थमा दिया .
उसने मुझे खुशखबरी दी कि वह महिला इंग्लिश में भी बात कर सकती है
उस भद्र महिला से मेरी फोन पर बात करवाई.
अत्यंत सौम्य भाषा में बात करने वाली उस महिला को मैंने बताया कि मैं शाम को ठीक सात बजे उसके घर पहुँच जाऊँगा.
मैं वहीं रेलवे स्टेशन पर ही फ्रेश हुआ हाथ मुँह धोये, ब्रेड बटर और कॉफी के साथ नाश्ता किया और सीधा एग्जिबिशन स्थल पर पहुँच गया…
एग्जीबिशन के अंदर जाते ही मेरी आँखें फटी की फटी रह गईं…
वह सभी प्लास्टिक की वस्तुएं जो मैंने उस दिन एग्जिबिशन में देखी थीं
भारत में उन सभी वस्तुओं के कई साल के बाद दर्शन हुए.
उस विशाल प्रदर्शनी को देखते हुए मैं उसमें इतना खो गया कि कब शाम के 6:00 बज गए मुझे पता ही नहीं चला…
देर शाम बजे जब मैं प्रदर्शनी से बाहर निकला तो मुझे देखकर हैरानी हुई कि चारों तरफ अंधेरा छा चुका था… सारे बाजार पूरी तरह बंद हो चुके थे और सड़कों पर गहरा सन्नाटा था…बंद शोरूम में भी लाइटें पूरी तरह चालू थीं
मुझे इस बात का जरा भी अंदाजा नहीं रहा कि यूरोप में सर्दियों में सूरज शाम को 5:00 बजे ही ढल जाता है और सारे बाजार भी बंद हो जाते हैं.
काफी देर इंतज़ार करने के बाद मुझे एक टैक्सी मिली . किसी हॉलीवुड के फिल्म के विलेन जैसे डरावने चेहरे वाले , नीली आंखें और सर से गंजे ड्राइवर ने मुझे घूर कर देखा…
मैंने उसे एड्रेस की पर्ची दिखाई…
उसने मुझे टैक्सी में बैठने का इशारा किया…
मेरे दिल की धड़कन फिर से तेज हो चली थी…लगभग बीस मिनट के बाद उसने मुझे एक सुनसान जगह पर उतार दिया…
टैक्सी से बाहर निकलते ही मैं ठंड से काँप गया…
मैंने ड्राइवर को फिर से उस एड्रेस की पर्ची दिखाई और पूछा कि यह घर किधर है???
आई डोंट नो…ड्राइवरने बड़ी बेरुखी से अपने कंधे उचकाते हुए रुखा सा जवाब दिया और चल दिया…
वह डुस्सलडॉर्फ शहर के बाहर का एक सुनसान रिहायशी इलाका था…
सड़कें रौशनी से दमक रही थीं…इक्का-दुक्का वाहन आ जा रहे थे लेकिन पैदल चलने वाले तो लगभग न के बराबर थे
मैंने शहर का नक्शा निकाल कर अपना सर खपा डाला लेकिन मुझे कुछ भी समझ में नहीं आया…
पाँच सात मिनट के बाद इक्का दुक्का गुजरते राहगीरों से उस एड्रेस के बारे में पूछा… लेकिन सभी ने अपने कंधे उचका कर एक ही जवाब दिया
आई डोंट नो…
कुछ राहगीर ऐसे भी निकले जो मुझे दूर से देखकर सड़क के उस पार चले गए …
इस तरह उस घर की तलाश करते करते रात के आठ बज गए…
ठंड बढ़ रही थी और धीरे-धीरे बर्दाश्त के बाहर होती जा रही थी…
मैंने एक घंटे में उस सारे इलाके का चक्कर काट लिया लेकिन मुझे उस घर का एड्रेस नहीं मिला
ठंड के मारे मेरा बुरा हाल था ,ऊपर से चलती बर्फीली हवा मेरे गर्म सूट को चीर कर मुझे अंदर तक कंपकंपा रही थी…
मेरा दिमाग सुन्न हो चुका था…
इतनी मुसीबत मानो कम थी कि ऊपर से हल्की बूंदाबांदी शुरू हो गई…
मैं बदहवासी में यहाँ वहाँ चक्कर काटने लगा कि कोई टैक्सी मिल जाए या कोई बस मिल जाए तो मैं वापस स्टेशन चला जाउंगा.
कोई टेलीफोन बूथ भी नहीं दिखा जिससे मैं उस महिला से संपर्क कर सकता.
मैंने पूरी हिम्मत जुटाकर चार पाँच घरों की घंटी भी बजाई लेकिन कोई बाहर नहीं आया…
मुझे लगा कि इस वक्त कोई मेरी मदद को न आया तो मैं ठंड से मर जाऊंगा…
मैंने चौराहे के बीच खड़े होकर तीन बार ऊँची आवाज में पुकारा…
हैल्प मी ...
हेल्प मी…
हेल्प मी…
लेकिन कोई बाहर नहीं आया…
मेरे दांत किटकिटा आ रहे थे और मैं ठंड से बुरी तरह काँप रहा था…
मैंने प्लास्टिक की थैली सेअपना नाइट सूट निकालकर अपने सर पर लपेट लिया…
इतने में मुझे एक छोटा सा बस स्टॉप नज़र आया…
उस बस स्टॉप के अंदर रखी लकड़ी की बेंच पर मैं उकडूँ बन कर बैठ गया…
मुझे उम्मीद थी कि शायद कोई बस आए तो मेरी मदद करे…बस स्टॉप के नीचे ठंडी हवा और बरसात से तो बचाव हो गया लेकिन ठंड के मारे मेरा बुरा हाल था…
मैं बुरी तरह निराश हो चुका था मुझे अपने देश की उबड़ खाबड़ सड़कें और लोग याद आने लगे…
मैं उस घड़ी को कोसने लगा जिस घड़ी मैंने विदेश आने का निर्णय किया था…
मैं अपने आपको ईश्वर के भरोसे छोड़ दियाऔर कबूतर की तरह मुँह छुपा कर फफक कर रोने लगा…
अचानक किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा…और एक आवाज आई
आर यू आल राइट ???
मैंने अपना सर उठाया तो देखा कि एक ओवरकोट पहने और हाथ में छाता लिए एक गोरा व्यक्ति खड़ा था.
मैंने यंत्रवत उसके हाथ में वह एड्रेस की पर्ची थमा दी…
उसने मुझे इशारे से समझाया कि दाएं तरफ जा कर यह घर मिलेगा…
मैंने तुरंत उस व्यक्ति का हाथ कस कर थाम लिया…और रोते और काँपते हुए कहा…
प्ली……. ज़ , टेक मी देयर
अदरवाइज़ आई विल डाई…
उसने मुझे अपने छाते के नीचे लिया और सड़क पार करके मुझे उस दिशा में ले जाने लगा जिस तरफ जाने का मुझे विचार भी नहीं आया था…
मैं उस व्यक्ति के दायीं बाँह को अपने दोनों काँपते हाथों से कस कर पकड़ रखा था…
वह मुझे लगातार सांत्वना दे रहा था…डोंट वरी आई विल नॉट लीव यू
लेकिन मैंने उसे पकड़े रक्खा क्योंकि बड़ी मुश्किल से जीवन की डोर मिली थी…
सिर्फ दो सौ मीटर चलने के बाद ढलान वाली छतों के नन्हें खूबसूरत मकानों की कतारें दिखने लगीं…
मेरी आँखों ने देखा…
दूर एक मकान की बालकनी में एक महिला अपने एक हाथ में पलंग के दोनों तरफ रखा जाने वाला लैंप और दूसरे हाथ में टॉर्च लेकर बालकनी में खड़ी थी…
नज़दीक पहुँच कर देखा तो वह करीब पचहत्तर वर्ष की दुबली पतली छोटे कद की एक बेहद सुंदर बुजुर्ग महिला थी…
मुझे देखते ही वह चिल्लाई…
ओ माय गॉड…आई एम वेटिंग फॉर यू फॉर लास्ट थ्री आवर्स…वह फौरन नीचे उतर कर मुख्य द्वार पर आई…
मुझे छोड़ने आए व्यक्ति ने उसे बुजुर्ग महिला को अपनी भाषा में बताया कि चौराहे पर हेल्प मी… की आवाज़ सुनकर वह मुझे ढूंढने निकला था…
धन्यता के भाव से विह्वल होकर मेरी हिचकियाँ बंध गईं…
मैंने उस व्यक्ति के पैर पकड़ लिए और दिल से उसका धन्यवाद किया…
उस बुजुर्ग महिला ने किसी भारतीय दादी की तरह मुझे गले से लगा लिया…
मैं अभी तक ठंड से थर थर काँप रहा था…
ऊष्मा से भरपूर घर के अंदर घुसते ही मेरी जान में जान आई
उस महिला ने फौरन मुझे एक गर्म कंबल से ढक दिया…और ब्रांडी से आधा भरा ग्लास थमाया …
ड्रिंक दिस एट वन्स … (एक बार में पी जाओ )
मैं एक पल के लिए झिझका ,फिर बिना सोचे समझे वह ब्रांडी का गिलास अपने हलक़ में उतार दिया…
मेरे सीने में जैसे कोई आग का गोला उतर गया…
जरा सी देर में मेरे कान लाल हो गए…
उसके बाद उस महिला ने मुझे गर्म कॉफी पेश की…
वह चिंतित स्वर में बार-बार मुझसे पूछ रही थी
आर यू ओ के ??? डू यू नीड मेडिकल हेल्प ???
कुछ देर बाद मैंने उसे बताया कि मैं ठीक हूँ…
मेरा गर्म सूट और नाइट सूट दोनों गीले हो चुके थे…
कुछ देर बाद मैंने देखा वह महिला अपने हाथ में एक नया नकोर गर्म नाइट सूट ले आई …
यू वियर दिस … उससे मुझे मुस्कराते हुए कहा…
डोंट वरी मैम आई विल मैनेज…मैंने झिझकते हुए कहा
दिस नाईट ड्रेस आई हेड बॉट फॉर माय लेट हसबैंड… बट ही कुड नॉट वेयर … इतना कहते-कहते वह भावुक हो गई…
(यह ड्रेस मैंने अपने स्वर्गीय पति के लिए खरीदी थी लेकिन उन्हें इसे पहनने का मौका नहीं मिला)
मैंने चुपचाप वह नाइट ड्रेस उसके हाथों से ली और पहन ली.
मुझे उस नाइट सूट में देखते ही उसके चेहरे पर एक अजीब सी चमक आ गई .
ही वॉज़ ऑल्सो स्लिम लाइक यू … इतना कहते-कहते उसकी आँखें छलक आईं…
मैंने उस अदभुत स्त्री का चेहरा अपने दोनों हाथो में भरकर अपने दोनों अगूठों से उसके आँसू पोंछे और उसे सीने से लगा लिया…
वह देर रात तक मुझसे बातें करती रही लेकिन थकान से चूर चूर होने के बाद भी मैं उस की प्रेम कहानी सुनता रहा…
देर रात तक बातें करने से उसके साथ एक भावनात्मक संबंध बन गया
मुझे सुबह जल्दी निकलना था , उसने जाते-जाते मुझे वह नाईट ड्रेस पैक कर दी और एक सफेद बॉक्स में केक और मफिंस पैक के दिए…
बाहर दरवाजे परअलविदा करते वक्त मैंने उसे आखिरी बार गले से लगाया… और पूछा
व्हाट शेल आई सेंड यू फ्रॉम इंडिया ??? मैंने उससे पूछा
छोटे कद की दादी ने किसी प्रेमिका की तरह मेरे सीने पर अपना सर रख दिया ,और हँसते हुए कहा …
नथिंग… डोंट फॉरगेट माय नेम
फ्लोरा इसाबेल…
मैंने उसके कान में कहा
यू आर फ्लोरेंस नाइटिंगेल …
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(आज 38 साल बाद भी वो नाईट ड्रेस मेरे पास सुरक्षित है और मुझे उस दिन उपहार में मिले अमूल्य जीवन की याद दिलाती रहती है , उसके बाद का किस्सा फिर कभी)