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'बेकार' होने के बाद कैसे जिंदा रहती हैं जीबी रोड की औरतें?

27 दिसम्बर 2017

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featured imageनितीश के सिंह सोशल वर्क से जुड़े हुए थे. अब प्राइवेट कंपनी में काम करते हैं. लिखने का खूब शौक है. इसलिए कहीं घूमने जाते हैं, या कोई नया अनुभव होता है, तो उसे सोशल मीडिया पर लिख देते हैं. ये लेख भी नितीश ने अपनी फेसबुक टाइमलाइन पर लगाया था. मासिक धर्म, माहवारी, पीरियड्स– इन सब नामों से हम सब वाकिफ़ हैं. अच्छी तरह नहीं तो सतही ही सही, लेकिन वाकिफ़ ज़रूर हैं. और ये भी जानते हैं इसकी अहमियत क्या है किसी औरत के लिए. एक औरत के लिए प्रजनन सबसे बड़ा गुण है और माँ बनना सबसे बड़ा सुख. लेकिन दुनिया में एक तबका ऐसा भी है जिसके लिए माहवारी और माँ बनना एक अभिशाप से कम नहीं है. पिछले साल बरसात के मौसम की बात है. अपनी एक महिला मित्र को छोड़ने नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन गया था. ट्रेन आने में वक़्त था इसलिए जनरल वेटिंग एरिया में बैठ कर बातें कर रहे थे. दोपहर का वक़्त था. तभी सामने एक अधेड़ सी महिला पर नज़र पड़ी. फर्श पर लेटी थी, हुलिए से भिखारन लगती थी. उसके हाव भाव ने ध्यान अपनी तरफ खींचा. एक कोल्ड ड्रिंक की पुरानी-सी बोतल में पानी ले कर लेटी थी और थोड़ा-थोड़ा पानी हाथों में ले कर बार बार शरीर पर यहाँ-वहाँ रगड़ रही थी, जैसे उन हिस्सों में जलन हो रही हो. अजीब-अजीब सी शक्लें बनाती, जैसे तेज़ जलन का दर्द हो. हरक़तें असामान्य थीं, शायद मानसिक विक्षिप्त थी. हम दोनों उसे देखते हुए अपनी बातें जारी रखे हुए थे, लेकिन ध्यान उसी पर था. थोड़ी देर में एक स्वीपर उधर से गुज़रा तो उत्सुकतावश उससे पूछ ही लिया, कौन है वो? उसने कहा, साहब ‘उधर से आई है’, और हाथ उस तरफ दिखा दिया जिधर दिल्ली का सबसे बदनाम इलाका है, जीबी रोड कहते हैं उसे. इतना सुन कर हज़ार सवाल और पैदा हो गए और जिज्ञासा शांत होने की जगह बढ़ने लगी. मैंने कहा, “लेकिन उधर ये सब कहां होता है?” मेरा तात्पर्य भीख वगैरह के धंधे से था. स्वीपर थोड़ा जल्दी में था, लेकिन फिर भी मेरे मतलब की बात बता गया. उस औरत का नाम रत्ना था, उम्र लगभग 45 साल. कुछ साल पहले तक जीबी रोड पर ‘धंधेवाली’ थी. फिर एक रोज़ वो हुआ जिसके न होने की कामना हर धंधेवाली करती है. ढलती उम्र में ग्राहकों की कमी ने ग्राहकों की वाज़िब-ग़ैरवाज़िब हर मांग को मानने पर मजबूर कर दिया उसे. और एक दिन गर्भ ठहर गया. उसकी गलती उसके लिए बहुत बड़ी साबित हुई. गिरा तो दिया लेकिन जो वक़्त सेहत सुधरने में लगा उसने उसके बचे-खुचे ग्राहक भी छीन लिए. फिर एक दिन उसके दलाल ने उसके साथ वही किया जो बाकी “बेकार” हो चुकी धंधे वालियों के साथ होता है. रेड लाइट एरिया में कोई रिटायरमेंट प्लान नहीं होता. कहीं ये बेकार औरतें बोझ न बन जाएं इसलिए इनके साथ अमानवीय काम होते हैं. रत्ना के ऊपर सोते वक़्त किसी ने एसिड की बोतल उड़ेल दी. छह-सात महीने अस्पताल में गुज़ारने के बाद कोई और ठिकाना नहीं मिला तो वापस उसी दलदल में पहुंच गयी ज़िन्दगी बचाने की उम्मीद लिए. दिमागी हालात भी बदतर होते जा रहे थे. लिहाज़ा बाकी बेकार औरतों जैसे उसे भी नए धंधे पर लगा दिया गया. अब सुबह आठ बजे गाड़ी स्टेशन पर छोड़ जाती है और रात में दस बजे ले जाती है. दिन भर स्टेशन में कहीं पड़ी रहती है और लोग तरस खा कर दो, पांच, दस, जितना तरस जेब पर भारी न पड़े, उतना दे देते हैं. दिन भर के कलेक्शन में सत्तर फ़ीसदी हिस्सा मालिक ले लेता है. लेकिन ज़िन्दगी बची है, इस बात से खुश हो जाती है रत्ना. कोई दुकान वाला खाना दे देता है, तो कोई यात्री कोई कपड़ा. नहीं मिलता तो आधा-पूरा बदन उघारे लोटती रहती हैं किसी न किसी प्लेटफार्म पर. कभी कभी होश में रहने पर वो हंस कर कहती है, ‘मैं माँ नहीं बन सकती, अब मेरे को महीना नहीं आता.’ फिर रुआंसी हो कर कहती है, ‘लेकिन अब कोई कस्टमर भी नहीं आता.’ असल में वेश्याएं, ‘धन्धेवालियां’, ‘रंडियां’ वगैरह औरतों की जमात का वो हिस्सा हैं जिनके लिए औरतपन गुनाह है. वो घर नहीं बसा सकतीं, मां नहीं बन सकतीं, बच्चे नहीं पाल सकतीं, परिवार का हिस्सा नहीं बन सकतीं. और तो और,अपने मासिक को भी दवाओं के भरोसे चलाती हैं. कभी दो रोज़ आगे, तो कभी दो रोज़ पीछे. कच्ची उम्र में गर्भ रोकना पड़ता है ताकि छाती में दूध भर सके. इंजेक्शन लेती हैं ताकि छातियां 30 से 34 और 34 से 38 हो जाएं. धंधे की मांग जो ठहरी. ग्राहकों को दूध से भरी छातियाँ बहुत पसंद हैं. गर्भवतियों की अलग डिमांड है. कुछ फ़ैंटेसी के मारे माहवारीशुदा “माल” खोजते हैं. बाक़ायदा उसके एक्स्ट्रा पैसे भी देते हैं, और सारा खेल पैसे के लिए ही तो होता है, इसलिये जैसी डिमांड हो वैसी सप्लाई भी करनी पड़ती है. लेकिन परिपक्व होने के बाद, उम्र होने के बाद, शरीर की कसावट के गिराव के बाद वही छातियाँ, वही गर्भ, वही माहवारी अपराध बन जाता है. उनके खुद के लिए. उनकी ज़िन्दगी के लिए, उनके सर्वाइवल के लिए. इसके बावजूद इन बदनाम गलियों में बच्चे पैदा होते हैं, पाले जाते हैं, पढ़ाये जाते हैं. सोच लीजिये उनकी माओं ने कितना बड़ा रिस्क लिया होगा, कितना बड़ा त्याग किया होगा, क्या-क्या दांव पर लगाया होगा. जीबी रोड की तरफ जाने वाले ज़्यादातर ऑटो के पीछे लिखा देखा है – ‘ये ऑटो औरतों का सम्मान करता है.’ जीबी रोड की तरफ जाते वक़्त एक बड़ी सी होर्डिंग लगी थी कुछ वक़्त पहले तक – ‘बेटी बचाओ, बेटी पढाओ’ जीबी रोड जाने वाले ज़्यादातर लोगों के घरों में औरतों को घर की इज्ज़त माना जाता है.

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8 जून 2016
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11 अक्टूबर 2016
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🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏हम आज रावण को मारने चले हैं पर क्या हम राम है अगर नहीं तोहम रावण को हर बार मारेंगे पर मरेगा नहीं.... 🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞

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कभी कश्मीर तो, कभी असम बंगाल जला है ।।

10 जुलाई 2017
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कभी कश्मीर तो, कभी असम बंगाल जला है ।।ज़ालिम एक-एक अफवाहों में, कितनो के घर कितने दुकान जला हैं ।।देकर लोकतंत्र के दिलासा,जाति और मज़हब के अरमान जला है ।।पर आइना में झांक कर देखा, बलिदान के नाम पे निर्दोष जला है ।।जंजीर लगे सिर्फ उनके जिनकी कोई पहचान नहीं,वर्ना बरे नाम वालो के आगे पूरा हिंदुस्तान जला

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15 जुलाई 2017
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सब कहे...है रंग अनेको हजारमोहे भगवा रंग बस भावे है।।अब तो राम लल्ला घर जावेंगेलाख मना करे मारे संविधानलोग कहे... है दुनिया रंग बिरंगीमोहे भगवा रंग बस भावे है।।जब करू याद पुरानी बातमेरे प्यारे राम के घर तोरा थालोग कहते.... है रिस्ते हजारों हजारमोहे भगवा प्रेम बस भावे है।। ----राजीव रंजन सिंह राजपूत

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जमी एक है फिर भी बट चुके है हमधर्म और मजहब के नाम पे कितनी बार मर चुके है हम आज चाँद को देखा तो खामोशियाँ कुछ कह गई ये चाँद तेरा राज क्या है ?ईद भी तेरी है...और करवाचौथ भी तेरा है...राजीव रंजन सिंह राजपूत8936004660rajivranjansingh2020@gmail.com

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ऐ मेरे वतन के लोगों

14 अगस्त 2017
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ऐ मेरे वतन के लोगोंऐ मेरे वतन के लोगों तुम खूब लगा लो नाराये शुभ दिन है हम सब का लहरा लो तिरंगा प्यारापर मत भूलो सीमा पर वीरों ने है प्राण गँवाएकुछ याद उन्हें भी कर लो जो लौट के घर ना आएऐ मेरे वतन के लोगों ज़रा आँख में भर लो पानीजो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो कुरबानीजब घायल हुआ हिमालय ख़तरे में प

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कलेंडर बदलिए अपनी संस्कृति नही।

2 जनवरी 2018
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कलेंडर बदलिए अपनी संस्कृति नही।अपनी संस्कृति की झलक को अवश्य पढ़ें और साझा करें ।।1 जनवरी को क्या नया हो रहा है ?????* न ऋतु बदली.. न मौसम* न कक्षा बदली... न सत्र* न फसल बदली...न खेती* न पेड़ पौधों की रंगत* न सूर्य चाँद सितारों की दिशा* ना ही नक्षत्र।।1 जनवरी आने से पहले ही सब नववर्ष की बधाई देने लगते

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मैं बिहार हू...

25 अक्टूबर 2018
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मैं बिहार हू.... मै सब कुछ हू पर बेविचार हू और जंग लगी जातिगत तलवार हू.. लालू औऱ नितीश से लाचार हू... इनके लिए बस एक व्यापार हू... हा मैं ही बिहार हू... खुद के कारण बेशर्म औऱ लाचार हू... गंदे लोकतंत्र का आसान शिकार हू... बस मै बिहार हू भारत वर्ष के गौरवशाली इतिहास का इतिहासकार औऱ आधार हू.... मै बिहा

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