तारकेश कुमार ओझा
अपने देश व समाज की कई विशेषताएं हैं। जिनमें एक है कि देश के किसी हिस्से में कोई घटना होने पर उसकी अनुगूंज लगातार कई दिनों तक दूर - दूर तक सुनाई देती रहती है। मसलन हाल में चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद त्रिपुरा में प्रतिमा तोड़ने की घटना की प्रतिक्रिया में लगातार कहीं न कहीं प्रतिमाएं खंडित - दूषित की जा रही है। इसके पहले देश की राजधानी स्थित कैंपस से ... दिल मांगे आजादी ... आजादी का डरावना शोर सुनाई दिया था। देश के लाखों लोगों की तरह पहले मुझे भी यह पागलों का प्रलाप महसूस हुआ था। लेकिन यह क्या इसके बाद देश के दूसरे राज्यों में भी अनेक कैंपसों से ऐसे नारों की कर्णभेदी शोर सुन कर मैं घबरा गया। मुझे हैरानी हुई कि देश आजाद होने के बाद भी इतने सारे लोग अब भी आजादी के मतवाले हैं। दूसरी खासियत यह है कि यहां हमेशा कोई न कोई कागजात - प्रमाण पत्र बनवाना नागरिकों के लिए अनिवार्य होता है। इसे लेकर अघोषित इमर्जेंसी जैसे हालात लगातार अदृश्य रूप में मौजूद रहते हैं।
स्कूल की देहरी लांघ कॉलेज पहुंचने तक नए बच्चों के लिए जन्म तो स्वर्ग सिधारने वालों के लिए मृत्यु प्रमाण पत्र अनिवार्य घोषित हो चुका था। इस प्रमाण पत्र का आतंक कुछ ऐसा कि हम अपने को खुशनसीब मानने लगे कि हमारे जमाने में ऐसा कोई लोचा नहीं रहा। बच्चा घर में जन्मा नहीं कि मां - बाप को उसके बर्थ सर्टिफिकेट की चिंता सताने लगी। इसी तरह परिवार के किसी बुजुर्ग के वैकुंठगमन पर रोने - पीटने के बीच ही संबंधियों में कानाफूसी शुरू हो जाती कि भैया मृत्यु प्रमाण पत्र का जरा देख लेना... नहीं तो बाद में परेशानी होगी...। समय - काल और परिस्थितियों में अलग - अलग तरह के प्रमाण पत्रों का आतंक नई पीढ़ी में छाता रहा। कभी डरावने शोर के बीच सुनाई पड़ता कि पाव - छटांक चाहे जो मिले लेकिन सरकारी राशन कार्ड मेंटेन रखना जरूरी है नहीं तो समझ लो हुक्का - पानी बंद। 80 - 90 के दशक में देश में जब बिहार वाले लालू प्रसाद यादव का जलवा था तभी राजनेताओं पर हंटर चलाने एक कड़क अफसर आ गया... नाम टीएन शेषन। शेषन साहब ने सरकारों को मजबूर कर दिया हर नागरिक का सचित्र परिचय पत्र बनाने को। मोहल्ले के प्राथमिक स्कूल के सामने कतार में खड़े होकर हमने भी अपना यह परिचय पत्र बनवाया। फोटो खिंचवाने के बाद अपना लेमिनेटेड कार्ड देखने को लगातार कई दिनों तक उत्सुक रहा। कार्ड हाथ में ले संतुष्ट हुआ कि चलो हर किसी के पास दिखाने को अब कुछ तो है। फिर आधार कार्ड की अनिवार्यता लागू हो गई। आधार नहीं तो समझो आप इंसान नहीं। जन्म और मृत्यु के इस चक्र के बीच ज्यादातर सामान्य लोग पासपोर्ट - वीसा के तनाव से मुक्त रहते थे। क्योंकि कुल जमा इन शब्दों से सामना फिल्मी पर्दे पर ही होता था। जो ज्यादातर तस्करों से संबद्ध होता था। कोई खुर्राट खलनायक पासपोर्ट या वीसा बना - दिखा रहा है क्योंकि उसे विदेश भागना है ... या फिर फिल्मी हीरो को किसी खलनायक को पकड़ने के लिए विदेश की उड़ान भरना है तो उसे भी ये चाहिए। फिल्मी पर्दे पर ऐसे दृश्य देख हम सुकून महसूस करते थे कि अपन ... इन लफड़ों से मुक्त हैं। न अपने को विदेश जाना है ना यह खानापूर्ति करने की जरूरत है। लेकिन अब इसी पासपोर्ट ने एक नहीं बल्कि दो - दो सरकारों को सांसत में डाल रखा है क्योंकि मुंबई बम विस्फोट कांड में पकड़े या पकड़ाए गए किसी फारुख टकला के मामले में यह खुलासा हुआ है कि फरारी के 25 साल के दौरान भी न सिर्फ वह धड़ल्ले से भारतीय पासपोर्ट का उपयोग कर रहा था, बल्कि दो बार उसने इसका नवीनीकरण भी सफलतापूर्वक करवा लिया। लेकिन टकला ही क्यों अक्सर किसी हाई प्रोफाइल अपराध की खबर देखने - सुनने के दौरान ही हमें यह भी बत दिया जाता है कि इसे करने वाला पहले ही देशी पासपोर्ट पर विदेश निकल चुका है। और सरकारी अमला सांप निकलने के बाद लकीर पीटने की कवायद में जुटा है। लुक आउट नोटस , इंटरपोल वगैरह - वगैरह...। वैसे किसी भी कागजात को बनाने के मामले में देखा तो यही जाता है कि अच्छे - खासे प्रतिष्ठित लोगों के किसी प्रकार का प्रमाण पत्र बनवाने में जूते घिस जाते हैं। लेकिन उसी को गलत धंधे वाले घर बैठे हासिल करने में सफल रहते हैं। मैने आज तक किसी दागी आदमी को किसी प्रकार की सरकारी खानापूर्ति के लिए परेशान होते नहीं देखा। अलबत्ता सम्मानित - प्रतिष्ठित लोगों को लांछित होते सैकड़ों बार देख चुका हूं।