तारकेश कुमार ओझा
छात्र जीवन में अनायास ही एक बार दक्षिण भारत की यात्रा का संयोग बन गया। तब तामिलनाडु में हिंदी विरोध की बड़ी चर्चा होती थी। हमारी यात्रा ओड़िशा के रास्ते आंध्र प्रदेश से शुरू हुई और तामिलनाडु तक जारी रही। इस बीच केरल का एक हल्का चक्कर भी लग गया। केरल की बात करें तो हम बस राजधानी त्रिवेन्द्रम तक ही जा सके थे। यह मेरे जीवन की अब तक कि पहली और आखिरी दक्षिण भारत यात्रा है। 80 के दशक मे की गई इस यात्रा के बाद फिर कभी वहां जाने का संयोग नहीं बन सका। हालांकि मुझे दुख है कि करीब एक पखवाड़े की इस यात्रा में कर्नाटक जाने का सौभाग्य नहीं मिल सका। दक्षिण की यात्रा के दौरान मैने महसूस किया कि तामिलनाडु समेत दक्षिण के राज्यों में बेशक लोगों में हिंदी के प्रति समझ कम है। वे अचानक किसी को हिंदी बोलता देख चौंक उठते हैं। लेकिन विरोध का स्तर दुर्भावना से अधिक राजनीति क है। तामिलनाडु समेत दक्षिण के सभी राज्यों में तब भी वह वर्ग जिसका ताल्लुक पर्यटकों से होता था, धड़ल्ले से टूटी – फुटी ही सही लेकिन हिंदी बोलता था। उन्हें यह बताने की भी जरूरत नहीं होती थी कि हम हिंदी भाषी है। बहरहाल समय के साथ समूचे देश में हिंदी की व्यापकता व स्वीकार्यता बढ़ती ही गई। अंतर राष्ट्रीय शक्तियों व बाजार की ताकतों ने भी हिंदी की व्यापकता को स्वीकार किया और इसका लाभ उठाना शुरू किया। लेकिन एक लंबे अंतराल के बाद कर्नाटक में अचानक शुरू हुआ हिंदी विरोध समझ से परे हैं। वह भी उस पार्टी द्वारा जिसका स्वरूप राष्ट्रीय है। आज तक कभी कर्नाटक जाने का मौका नहीं मिलने से दावे के साथ तो कुछ कह पाने की स्थिति में नहीं हूं। लेकिन मुझे लगता है कि इस विरोध को वहां के बहुसंख्य वर्ग का समर्थन हासिल नहीं है। यह विरोध सामाजिक कम और राजनीतिक ज्यादा है। क्योंकि मुझे याद है कि तकरीबन पांच साल पहले एक बार बंगलोर में उत्तर पूर्व के लोगों के साथ कुछ अप्रिय घटना हो गई थी। इसी दौरान मुंबई समेत महाराष्ट्र के कुछ शहरों में भी परप्रांतीय का मुद्दा जोर पकड़ रहा था। जिसके चलते हजारों की संख्या में इन प्रदेशों के लोग ट्रेनों में भर – भर कर अपने घरों को लौटने लगे। लेकिन कुछ दिनों बाद आखिरकार अंधेरा मिटा और उन राज्यों के लोग फिर बंगलोर समेत उन राज्यों को लौटने लगे, जो उनकी कर्मभूमि है। मुझे याद है तब अखबारों में एक आला पुलिस अधिकारी की हाथ जोड़े उत्तर पूर्व से वापस बंगलोर पहुंचे लोगों का स्वागत करते हुए खबर और फोटो प्रमुखता से अखबारों में छपी थी। यह तस्वीर देख मेरा मन गर्व से भर उठा था। मुझे लगा कि देश के हर राज्य को ऐसा ही होना चाहिए। जो धरतीपुत्रों की तरह उन संतानों को भी अपना माने जो कर्मभूमि के लिहाज से उस जगह पर रहते हैं। आज तक मैने कर्नाटक में हिंदी विरोध या दुर्भावना की बात कभी नहीं सुनी थी। लेकिन एक ऐसे दौर में जब भाषाई संकीर्णता लगभग समाप्ति की ओऱ है, कर्नाटक में नए सिरे से उपजा हिंदी विरोध आखिर क्यों स्वादिष्ट भोजन की थाली में कंकड़ की तरह चुभ रहा है, यह सवाल मुझे परेशान कर रहा है। आज के दौर में मैने अनेक ठेठ हिंदी भाषियों को मोबाइल या लैपटॉप पर हिंदी में डब की गई दक्षिण भारतीय फिल्में घंटों चाव से निहारते देखा है। अक्सर रेल यात्रा के दौरान मुझे ऐसे अनुभव हुए हैं। बल्कि कई तो इसके नशेड़ी बन चुके हैं। और अहिंदीभाषियों की हिंदी फिल्मों के प्रति दीवानगी का तो कहना ही क्या। मुझे अपने आस – पास ज्यादातर ऐसे लोग ही मिलते हैं जिनके मोबाइल के कॉलर या रिंग टोन में उस भाषा के गाने सुनने को मिलते हैं जो उनकी अपनी मातृभाषा नहीं है। मैं जिस शहर में रहता हूं वहां की खासियत यह है कि यहां विभिन्न भाषा – भाषी के लोग सालों से एक साथ रहते आ रहे हैं। यहां किसी न किसी बहाने सार्वजनिक पूजा का आयोजन भी होता रहता है। प्रतिमा विसर्जन परंपरागत तरीके से होता है, जिसमें युवक अमूमन उन गानों पर नाचते – थिरकते हैं जिसे बोलने वाले शहर में गिने – चुने लोग ही है। शायद उस भाषा का भावार्थ भी नाचने वाले लड़के नहीं समझते। लेकिन उन्हें इस गाने का धुन अच्छा लगता है तो वे बार – बार यही गाना बजाने की मांग करते हैं, जिससे वे अच्छे से नाच सके। एक ऐसे आदर्श दौर में किसी भी भाषा के प्रति विरोध या दुर्भावना सचमुच गले नहीं उतरती। लेकिन देश की राजनीति की शायद यही विडंबना है कि वह कुछ भी करने - कराने में सक्षम है।