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स्वादिष्ट भोजन में कंकड़ की तरह है कर्नाटक का हिंदी विरोध ....!!

10 सितम्बर 2017

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तारकेश कुमार ओझा


छात्र जीवन में अनायास ही एक बार दक्षिण भारत की यात्रा का संयोग बन गया। तब तामिलनाडु में हिंदी विरोध की बड़ी चर्चा होती थी। हमारी यात्रा ओड़िशा के रास्ते आंध्र प्रदेश से शुरू हुई और तामिलनाडु तक जारी रही। इस बीच केरल का एक हल्का चक्कर भी लग गया। केरल की बात करें तो हम बस राजधानी त्रिवेन्द्रम तक ही जा सके थे। यह मेरे जीवन की अब तक कि पहली और आखिरी दक्षिण भारत यात्रा है। 80 के दशक मे की गई इस यात्रा के बाद फिर कभी वहां जाने का संयोग नहीं बन सका। हालांकि मुझे दुख है कि करीब एक पखवाड़े की इस यात्रा में कर्नाटक जाने का सौभाग्य नहीं मिल सका। दक्षिण की यात्रा के दौरान मैने महसूस किया कि तामिलनाडु समेत दक्षिण के राज्यों में बेशक लोगों में हिंदी के प्रति समझ कम है। वे अचानक किसी को हिंदी बोलता देख चौंक उठते हैं। लेकिन विरोध का स्तर दुर्भावना से अधिक राजनीति क है। तामिलनाडु समेत दक्षिण के सभी राज्यों में तब भी वह वर्ग जिसका ताल्लुक पर्यटकों से होता था, धड़ल्ले से टूटी – फुटी ही सही लेकिन हिंदी बोलता था। उन्हें यह बताने की भी जरूरत नहीं होती थी कि हम हिंदी भाषी है। बहरहाल समय के साथ समूचे देश में हिंदी की व्यापकता व स्वीकार्यता बढ़ती ही गई। अंतर राष्ट्रीय शक्तियों व बाजार की ताकतों ने भी हिंदी की व्यापकता को स्वीकार किया और इसका लाभ उठाना शुरू किया। लेकिन एक लंबे अंतराल के बाद कर्नाटक में अचानक शुरू हुआ हिंदी विरोध समझ से परे हैं। वह भी उस पार्टी द्वारा जिसका स्वरूप राष्ट्रीय है। आज तक कभी कर्नाटक जाने का मौका नहीं मिलने से दावे के साथ तो कुछ कह पाने की स्थिति में नहीं हूं। लेकिन मुझे लगता है कि इस विरोध को वहां के बहुसंख्य वर्ग का समर्थन हासिल नहीं है। यह विरोध सामाजिक कम और राजनीतिक ज्यादा है। क्योंकि मुझे याद है कि तकरीबन पांच साल पहले एक बार बंगलोर में उत्तर पूर्व के लोगों के साथ कुछ अप्रिय घटना हो गई थी। इसी दौरान मुंबई समेत महाराष्ट्र के कुछ शहरों में भी परप्रांतीय का मुद्दा जोर पकड़ रहा था। जिसके चलते हजारों की संख्या में इन प्रदेशों के लोग ट्रेनों में भर – भर कर अपने घरों को लौटने लगे। लेकिन कुछ दिनों बाद आखिरकार अंधेरा मिटा और उन राज्यों के लोग फिर बंगलोर समेत उन राज्यों को लौटने लगे, जो उनकी कर्मभूमि है। मुझे याद है तब अखबारों में एक आला पुलिस अधिकारी की हाथ जोड़े उत्तर पूर्व से वापस बंगलोर पहुंचे लोगों का स्वागत करते हुए खबर और फोटो प्रमुखता से अखबारों में छपी थी। यह तस्वीर देख मेरा मन गर्व से भर उठा था। मुझे लगा कि देश के हर राज्य को ऐसा ही होना चाहिए। जो धरतीपुत्रों की तरह उन संतानों को भी अपना माने जो कर्मभूमि के लिहाज से उस जगह पर रहते हैं। आज तक मैने कर्नाटक में हिंदी विरोध या दुर्भावना की बात कभी नहीं सुनी थी। लेकिन एक ऐसे दौर में जब भाषाई संकीर्णता लगभग समाप्ति की ओऱ है, कर्नाटक में नए सिरे से उपजा हिंदी विरोध आखिर क्यों स्वादिष्ट भोजन की थाली में कंकड़ की तरह चुभ रहा है, यह सवाल मुझे परेशान कर रहा है। आज के दौर में मैने अनेक ठेठ हिंदी भाषियों को मोबाइल या लैपटॉप पर हिंदी में डब की गई दक्षिण भारतीय फिल्में घंटों चाव से निहारते देखा है। अक्सर रेल यात्रा के दौरान मुझे ऐसे अनुभव हुए हैं। बल्कि कई तो इसके नशेड़ी बन चुके हैं। और अहिंदीभाषियों की हिंदी फिल्मों के प्रति दीवानगी का तो कहना ही क्या। मुझे अपने आस पास ज्यादातर ऐसे लोग ही मिलते हैं जिनके मोबाइल के कॉलर या रिंग टोन में उस भाषा के गाने सुनने को मिलते हैं जो उनकी अपनी मातृभाषा नहीं है। मैं जिस शहर में रहता हूं वहां की खासियत यह है कि यहां विभिन्न भाषा भाषी के लोग सालों से एक साथ रहते आ रहे हैं। यहां किसी न किसी बहाने सार्वजनिक पूजा का आयोजन भी होता रहता है। प्रतिमा विसर्जन परंपरागत तरीके से होता है, जिसमें युवक अमूमन उन गानों पर नाचते थिरकते हैं जिसे बोलने वाले शहर में गिने चुने लोग ही है। शायद उस भाषा का भावार्थ भी नाचने वाले लड़के नहीं समझते। लेकिन उन्हें इस गाने का धुन अच्छा लगता है तो वे बार बार यही गाना बजाने की मांग करते हैं, जिससे वे अच्छे से नाच सके। एक ऐसे आदर्श दौर में किसी भी भाषा के प्रति विरोध या दुर्भावना सचमुच गले नहीं उतरती। लेकिन देश की राजनीति की शायद यही विडंबना है कि वह कुछ भी करने - कराने में सक्षम है।


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सुंदर पिचाई पर कोई क्यों नहीं बनाता फिल्म

11 जून 2016
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८० के दशक में एक फिल्म आई थी..  लव मैरिज।  किशोर उम्र में देखी गई इस फिल्म के अत्यंत साधारण होने के बावजूद इस फिल्म का मेरे जीवन में विशेष महत्व था। क्योंकि फिल्म के एक दृश्य में चरित्र अभिनेता चंद्रशेखर दुबे मेरे शहर खड़गपुर का नाम लेते हैं। इस फ्लिम के एक सीन से  मेैं कई दिनों तक रोमांचित रहा था। 

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राजनेताओं का जन्म दिन ...

12 जून 2016
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 उस रोज टेलीविजन पर मैं एक राजनेता का जन्म दिन उत्सव देख रहा था। लगा मानो किसी अवतारी पुरुष का जन्म दिन हो। नेताजी के बगल में उनका पूरा कुनबा मौजूद था। थोड़ी देर में मुख्यमंॊी से लेकर तमाम राजनेता उनके यहां पहुंचने लगे। दिखाया गया कि नेताजी ने  अपने किसी शुभचिंतक को निराश नहीं किया। सभी के हाथों से 

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यह बिकाऊ चेहरों का बाजार है श्रीमान. ..

18 जून 2016
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अक्सर मेरे मन में ख्याल आता है कि दुनिया को बदल कर रख देने वाले कंप्यूटर , इंटरनेट और स्मार्ट फोन बनाने वालों ने क्या कभी हाथ में माइक पकड़ कर भाषण दिया। अविष्कार से पहले कभी इस बात का दावा किया कि उसकी योजना क्या है। अविष्कार के बाद भी कोई सामने आया कि उसने किस तरह ये चीजें बना कर मानवता पर उपकार क

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व्यंग्यः पुरबिया पिताओं की पीड़ा. ..

20 जून 2016
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उप मुख्यमंॊी और स्वास्थ्य मंॊी बेटों वाले पुरबिया पिता का तो पता नहीं, लेकिन २२ मान नीयों वाले परिवार के मुखिया  जिनके एक बेटे मुख्यमंॊी हैं,  अक्सर पुरबिया पिताओं की तरह पूत से नाराज रहते हैं। सत्ता की आंख -मिचौली खेलते -खेलते  करीब चार साल पहले उन्हें   फिर राज करने का मौका मिला। लेकिन आम भारतीय प

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बदलते समाज में समाजसेवा. ..

25 जून 2016
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बचपन से मेरी बाबा भोलेनाथ के प्रति अगाध श्रद्धा व भक्ति रही है।   बचपन से लेकर युवावस्था तक अनेक बार कंधे पर कांवर लटका कर बाबा के धाम जल चढ़ाने भी गया।   कांवर में जल भर कर बाबा के मंदिर तक जाने वाले रास्ते साधारणतः वीरान हुआ करते थे। इस सन्नाटे को तोड़ने का कायॆ विभिन्न स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा 

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मौत में उम्मीद.

28 जून 2016
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मौत तो मनुष्य  के लिए सदा  सवॆदा  भयावह और डरावनी रही है। भला मौत भी किसी में क्या उम्मीद जगा सकती है...। बिल्कुल जगा सकती है। इस बात का भान मुझे अपने पड़ोस में दारुण पीड़ा झेल रही एक गाय का हश्र देख कर हुआ। हमारे देश में गौ- हत्या  और गोरॐा  शुरू से ही बड़ा संवेदनशील मसला रहा है। इसके बावजूद यह सच 

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भूखे को भूख , खाए को खाजा ...

9 जुलाई 2016
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भूखों को भूख सहने की आदत धीरे - धीरे *भूखे को भूख, खाए को खाजा...!!भूखे को भूख सहने की आदत धीरे - धीरे पड़ ही जाती है। वहीं पांत में बैठ  जी भर कर जीमने के बाद स्वादिष्ट मिठाइयों का अपना ही मजा है। शायद सरकारें कुछ ऐसा ही सोचती है। इसीलिए तेल वाले सिरों पर और ज्यादा तेल चुपड़ते जाने का सिलसिला लगाता

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खिलाड़ियों की मस्ती और सुल्तान का गुणगान...!!

15 जुलाई 2016
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समय , पहर या दिन कैसे बीत जाते हैं पता ही नहीं चलता। अब देखिए देखते - देखते एक सप्ताह बीत गया। इस बीच हमने शांति की तलाश में भटक रही दुनिया को और अशांत होते  देखा।  आतंकवाद और कट्टरतावाद का दावानल उन देशों तक भी पहुंच गया, जो अब तक इससे अछूते  थे। राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य की बात करें तो सीमित अवधि में

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आर्ट आफ ' र्टार्चिंग '.....!!​

24 जुलाई 2016
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तारकेश कुमार ओझाबाजारवाद के मौजूदा दौर में आए तो मानसिक अत्याचार अथवा उत्पीड़न यानी र्टार्चिंग या फिर थोड़े ठेठ अंदाज में कहें तो किसी का खून पीना... भी एक कला का रूप ले चुकी है। आम - अादमी के जीवन में इस कला में पारंगत कलाकार कदम - कदम पर खड़े नजर आते हैं। एक आम भारतीय की मजबूरी के तहत कस्बे से महा

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राजनेता या पॉलिटिकल सेल्समैन...!!

29 जुलाई 2016
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तारकेश कुमार ओझा ​ सचमुच मैं अवाक था। क्योंकि मंच पर अप्रत्याशित रूप से उन महानुभाव का अवतरण हुआ जो कुछ समय से परिदृश्य से गायब थे। श्रीमान कोई पेशेवर राजनेता तो नहीं लेकिन अपने क्षेत्र के  एक स्थापित शख्सियत हैं।  ताकतवर राजनेता की बदौलत एक बार उन्हें माननीय बनने का मौका भी मिल चुका है वह भी पिछले

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संघर्ष की शक्ल....!!

6 अगस्त 2016
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तारकेश कुमार ओझामैं जीवन में एक बार फिर अपमानित हुआ था। मुझे उसे फाइव स्टार होटल नुमा भवन से धक्के मार कर बाहर निकाल दिया गया था, जहां तथाकथित संघर्षशीलों पर धारावहिक तैयार किए जाने की घोषणा की गई थी। इसे किसी चैनल पर भी दिखाया जाना था।पहली बार सुन कर मुझे लगा कि शायद यह देश भर के संघर्षशीलों का कोई

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परसाई के जबलपुर में शक्तिपुंज ...!!

25 अगस्त 2016
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तारकेश कुमार ओझा ​प्रख्यात व्यंग्यकार स्व. हरिशंकर परसाई , चिंतक रजनीश और फिल्मों के चरित्र अभिनेता रहे प्रेमनाथ के गृह शहर जबलपुर जाने का अवसर मिला तो मन खासा रोमांचित हो उठा। अपने गृह प्रदेश उत्तर प्रदेश में रोजी - रोजगार के सिलसिले में महाकौशल के जबलपुर और आस - पास के जिलों में बस चुके अनेक लोगो

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विपक्ष का जोश और शासक का होश ...!!

31 अगस्त 2016
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तारकेश कुमार ओझामोरली हाइ या डाउन होने का मतलब तब अपनी समझ में बिल्कुल नहीं आता था। क्योंकि जीवन की जद्दोजहद के चलते अब तक अपना मोरल हमेशा डाउन ही रहा है । लेकिन खासियत यह कि जेब में फूटी कौड़ी नहीं वाले दौर में भी यह दुनिया तब बड़ी खूबसूरत लगती थी। जी भर के जीने का मन करता था। इसके बावजूद शुरूआती

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उबाऊ होता ' दाऊद - पुराण ' ....!!​

3 सितम्बर 2016
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तारकेश कुमार ओझाअपना बचपन फिल्मी पर्दो पर डाकुओं की जीवन लीला देखते हुए बीता। तब कुछ डाकू अच्छे भी होते थे, तो कुछ बुरे भी। किसी के बारे में बताया जाता कि फलां डाकू है तो काफी नेक , लेकिन परिस्थितियों ने उसे हाथों में बंदूक थामने को मजबूर कर दिया। कुछ डाकू जन्मजात दुष्ट प्रकृति के भी बताए जाते। ले

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झिझक मिटे तो हिंदी बढ़े ...!!

12 सितम्बर 2016
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तारकेश कुमार ओझाएक बार मुझे एक ऐसे समारोह में जाना पड़ा, जहां जाने से मैं यह सोच कर कतरा रहा था कि वहां अंग्रेजी का बोलबाला होगा। सामान्यतः ऐसे माहौल में मैं सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाता। लेकिन मन मार कर वहां पहुंचने पर मुझे अप्रत्याशित खुशी और सुखद आश्चर्य हुआ। क्योंकि ज्यादातर वक्ता भले ही अहिंदी

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वाकई !​ इस चमत्कार को नमस्कार है !!

25 सितम्बर 2016
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तारकेश कुमार ओझा क्या आप इस बात की कल्पना कर सकते हैं कि कोई बिल्कुल आम शहरी युवक बमुश्किल चंद दिनों के भीतर इतनी ऊंची हैसियत हासिल कर लें कि वह उसी माहौल में लौटने में बेचारगी की हद तक असहायता महसूस करे, जहां से उसने सफलता की उड़ान भरी थी। मैं बात कर रहा हूं। भारतीय क्रिकेट टीम के सफलतम कप्तान महेन

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वाकई !​ इस चमत्कार को नमस्कार है !!

25 सितम्बर 2016
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... अरे बस बीस मिनट

2 अक्टूबर 2016
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तारकेश कुमार ओझा अरे साल का अंतराल औरपर्दे पर सिर्फ बीस मिनट। भारतीय क्रिकेट टीम के सफलतम और सबसे ज्यादा सम्मानितकप्तान महेन्द्र सिंह धौनी पर रिलीज हुई फिल्म एमएस. धौनी अनटोल्ड स्टोरी को देख कर धौनी की कर्मनगरीयानी पश्चिम बंगाल के खड़गपुर के आम दर्शकों की यही प्रतिक्रिया रही। बताते चलेंकि धौनी ने 2

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अनकही कहानी... अनकहा दर्द ...!!​

5 अक्टूबर 2016
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तारकेश कुमार ओझाजीवन के शुरूआती कुछ व र्षों में ही मैं नियति के आगे नतमस्तक हो चुका था। मेरी समझ में यह बात अच्छी तरह से आ गई थी कि मेरी जिंदगी की राह बेहद उबड़ - खाबड़ और पथरीली है। प्रतिकूल परिस्थितियों की जरा सी फिसलन मुझे इसे पर गिरा कर लहुलूहान कर सकती है। उम्र् बढ़ने के साथ विरोधाभासी चरित्

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कथित कलाकारों का कच्चापन....!!

23 अक्टूबर 2016
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तारकेश कुमार ओझाकॉलेज के दिनों में एक बार मेरे शहर में दो राजनैतिक दलों के बीच भीषण हिंसक संघर्ष हो गया। मारामारी में किसी का सिर फूटा तो किसी के पांव टूटे। अनेक लोग गिरफ्तार हुए। कई पुलिस के डर से शहर छोड़ कर भाग निकले। लोगों में कानून का खौफ कायम करने के लिए पुलिस की सहायता के लिए विशेष बल भी बुल

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कौन समझे पुरबिया पुत्रों की पीड़ा .....!!

26 अक्टूबर 2016
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तारकेश कुमार ओझायदि मुझसे कोई पूछे कि मुलायम सिंह यादव कितने बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं , तो शायद मैं सही- सही बता नहीं पाऊंगा। इतना जानता हूं कि वे एक से ज्यादा बार मुख्यमंत्री रहे थे। क्योंकि उत्तर प्रदेश की राजनीति में उनका जिक्र बचपन से सुनता आ रहा हूं। कालेज के दिनों में देव

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अथ श्री चचा कथा ....!!

8 नवम्बर 2016
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तारकेश कुमार ओझावाणिज्य का छात्र होने के नाते कॉलेज में पढ़ा था कि बुरी - मुद्रा - अच्छी मुद्र्ा को चलन से बाहर कर देती है।पेशे के नाते महसूस किया कि नई खबर - पुरानी को चलन से बाहर कर देती है। अब हाल तक मेरे गृह प्रदेश के कुछ शहरों में उत्पन्न तनाव का मसला गर्म था। एक राष्ट्रीय चैनल के मसले को उछाल

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इस लाइन को देख कर मुझे ‘कालिया ’ याद आ गया....!!

16 नवम्बर 2016
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तारकेश कुमार ओझाबचपन में एक फिल्म देखी थी ... कालिया। इस फिल्म का एक डॉयलॉग काफी दिनों तक मुंह पर चढ़ा रहा... हम जहां खड़े हो जाते हैं... लाइन वहीं से शुरू होती है। इस डॉयलॉग से रोमांचित होकर हम सोचते थे... इस नायक के तो बड़े मजे हैं। कमबख्त को लाइन में खड़े नहीं होना पड़ता। इस नायक से इतना प्रभावित

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समय की रेत, घटनाओं के हवा महल ...!!

29 नवम्बर 2016
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तारकेश कुमार ओझा बचपन में टेलीविजन के प र्दे पर देखे गए दो रोमांचक दृश्य भूलाए नहीं भूलते। पहला क्रेकिट का एक्शन रिप्ले और दूसरा पौराणिक दृश्यों में तीरों का टकराव। एक्शन रिप्ले का तो ऐसा होता था कि क्रिकेट की मामूली समझ रखने वाला भी उन दृश्यों को देख कर खासा रोमांचित हो जाता था। जिसे चंद मिनट पहले

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नववर्ष! तुम्हें तो आना ही था...!!​

25 दिसम्बर 2016
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तारकेश कुमार ओझा अरे नव-वर्ष ... तुम आ गए। खैर तुम्हें तो आना ही था...। नए साल के स्वागत के मामले में अपना शुरू से ही कुछ ऐसा ही रवैया रहा है। हैप्पी न्यू इयर या हैप्पी ब र्थ डे जैसी औपचारिकताओं में मेरी कभी कोई दिलचस्पी रही नहीं। उलटे यह सब मुझे मजाक या गालियां जैसी लगती है। जीवन के शुरूआती कुछ सा

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मारक होती ' माननीय '. बनने की मृगतृष्णा ...!!​

26 जनवरी 2017
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तारकेश कुमार ओझा ... देश और जनता की हालत से मैं दुखी हूं। इसलिए आपके बीच आया हूं। अब बस मैं आपकी सेवा करना चाहता हूं... राजनीति से अलग किसी दूसरे क्षेत्र के स्थापित शख्सियत को जब भी मैं ऐसा कहता सुुनता हूं तो उसका भविष्य मेरे सामने नाचने लगता है। मैं समझ जाता हूं कि यह बंदा भी माननीय बनने की मृगतृष्

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विवाद की आग जलती रहे, फिल्म वालों की तिजोरी भरती रहे...!!

6 फरवरी 2017
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तारकेश कुमार ओझा ​अब स्वर्ग सिधार चुके एक ऐसे जनप्रतिनिधि को मैं जानता हूं जो युवावस्था में किसी तरह जनता द्वारा चुन लिए गए तो मृत्यु पर्यंत अपने पद पर कायम रहे। इसकी वजह उनकी लोकप्रियता व जनसमर्थन नहीं बल्कि एक अभूतपूर्व तिकड़म थी। जिसमें उनके परिवार के कुछ सदस्य शामिल हेोते थे। दरअसल उन साहब ने अप

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यह मैने नहीं मेरी कलम ने लिखा ...!!

8 मार्च 2017
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तारकेश कुमार ओझा मैं एक बेचारे ऐसे अभागे जो जानता हूं जिसे गरीबी व भूखमरी के चलते उसके बड़े भाई ने पास के शहर में रहने वाले रिश्तेदार के यहां भेज दिया। जिससे वह मेहनत - मजदूरी कर अपना पेट पाल सके। बेचारा जितने दिनों तक उसे काम ढूंढने में लगे, उतने दिन मेजबान की रोटी तोड़ना उसकी मजबूरी रही। काम - धं

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सुबह लाठी, शाम चपाती ...!!

11 अप्रैल 2017
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तारकेश कुमार ओझान्यूज चैनलों पर चलने वाले खबरों के ज्वार - भाटे से अक्सर ऐसी - ऐसी जानकारी ज्ञान के मोती की तरह किनारे लगते रहती हैं जिससे कम समझ वालों का नॉलेज बैंक लगातार मजबूत होता जाता है। अभी हाल में एक महत्वपूर्ण सूचना से अवगत होने का अवसर मिला कि देश के एक बड़े राजनेता का केस लड़ रहे वकील ने

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विनोद खन्नाः अभिनय की पाठशाला के प्रिसिंपल ... .!!

29 अप्रैल 2017
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तारकेश कुमार ओझा अस्सी के दशक में होश संभालने वाली पीढ़ी के लिए उन्हें स्वीकार करना सचमुच मुश्किल था। जिसका नाम था विनोद खन्ना। क्योंकि तब जवान हो रही पीढ़ी के मन में अमिताभ बच्चन सुपर मैन की तरह रच - बस चुके थे। अमिताभ यानी जिसके लिए असंभव कुछ भी नहीं। जो दस - दस से अकेले लड़ सकता है... जूते पॉल

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दूर के रसगुल्ले , पास के गुलगुले ...!!

17 मई 2017
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तारकेश कुमार ओझा इसे जनसाधारण की बदनसीबी कहें या निराशावाद कि खबरों की आंधी में उड़ने वाले सूचनाओं के जो तिनके दूर से उन्हें रसगुल्ले जैसे प्रतीत होते हैं, वहीं नजदीक आने पर गुलगुले सा बेस्वाद हो जाते हैं। मैगों मैन के पास खुश होने के हजार बहाने हो सकते हैं, लेकिन मुश्किल यह कि कुछ देर बाद ही

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खबरों के खजाने का सूखाग्रस्त क्षेत्र ...!!

30 मई 2017
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तारकेश कुमार ओझा ब्रेकिंग न्यूज... बड़ी खबर...। चैनलों पर इस तरह की झिलमिलाहट होते ही पता नहीं क्यों मेरे जेहन में कुछ खास परिघटनाएं ही उमड़ने - घुमड़ने लगती है। मुझे लगता है यह ब्रेकिंग न्यूज देश की राजधानी दिल्ली के कुछ राजनेताओं के आपसी विवाद से जुड़ा हो सकता है या फिर किसी मशहूर राजनेता घराने के

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यह आंदोलन , वह आंदोलन ....!!

25 जून 2017
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तारकेश कुमार ओझाइसे संयोग ही मानता हूं कि मध्य प्रदेश के मंदसौर में जिस दिन पुलिस फायरिंग में छह किसानों की मौत हुई, उसी रोज कभी मध्य प्रदेश का हिस्सा रहे छत्तीसगढ़ से मैं अपने गृहप्रदेश पश्चिम बंगाल लौटा था। मानवीय स्वभाव के नाते शुक्र मनाते हुए मैं खुद को भाग्यशाली समझने लगा कि इस मुद्दे पर विरोधि

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माननीयों का महाचुनाव....!!

7 जुलाई 2017
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तारकेश कुमार ओझा देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद यानी राष्ट्पति के बारे में मुझेे पहली जानकारी स्कूली जीवन में मिली , जब किसी पूर्व राषट्रपति के निधन के चलते मेरे स्कूल में छुट्टी हो गई थी। तब में प्राथमिक कक्षा का छात्र था। मन ही मन तमाम सवालों से जूझता हुआ मैं घर लौट आया था। मेरा अंतर्मन किसी के देहा

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योगी राज में कितना बदला उत्तर प्रदेश ...!!

12 जुलाई 2017
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तारकेश कुमार ओझायह विचित्र संयोग रहा कि सात साल बाद विगत मार्च में जब मेरा देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में जाना हुआ तब राज्य में विधानसभा के चुनाव अपने अंतिम चरण में थे, और इस बार जुलाई के प्रथम दिनों में ही फिर प्रदेश जाने का संयोग बना तब देश के दूसरे प्रदेशों की तरह ही यूपी में भी राष्ट्रप

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कांवड़ यात्रा पर किच – किच क्यों ?

20 जुलाई 2017
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तारकेश कुमार ओझाबचपन के दिनों में श्रावण के महीने में अपने शहर के नजदीक से बहने वाली नदी से जल भर कर प्राचीन शिव मंदिर में बाबा भोलेनाथ का जलाभिषेक किया करता था। कुछ बड़े होने पर शिवधाम के तौर पर जेहन में बस दो ही नाम उभरते थे। मेरे गृहप्रदेश पश्चिम बंगाल का प्रसिद्ध तारकेश्वर और पड़ोसी राज्य में स

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कैसी - कैसी आजादी ...!!

8 अगस्त 2017
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तारकेश कुमार ओझा फिर आजादी ... आजादी का वह डरावना शोर सचमुच हैरान करने वाला था। समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर यह कैसी आजादी की मांग है। अभी कुछ महीने पहले ही तो देश की राजधानी में स्थित शिक्षण संस्थान में भी ऐसा ही डरावना शोर उठा था। जिस पर खासा राजनैतिक हंगामा हुआ था। कहां तो आजादी की सालगिरह से प

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रेल हादसों से क्या सीखा हमने ...!!

25 अगस्त 2017
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तारकेश कुमार ओझाएस- सात कोच की बर्थ संख्या 42 व 43 । 12477 पुरी – हरिद्वार उत्कल एक्सप्रेस में यही हमारी सीट थी। जिससे एक दिन पहले ही हम झांसी पहुंचे थे। दूसरे दिन इसी उत्कल एक्सप्रेस के मुजफ्फरनगर में हादसे का शिकार होने की सूचना से मुझे बड़ा आघात लगा। क्योंकि एक दिन पहले इसी ट्रेन में सफर की याद म

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स्वादिष्ट भोजन में कंकड़ की तरह है कर्नाटक का हिंदी विरोध ....!!

10 सितम्बर 2017
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तारकेश कुमार ओझाछात्र जीवन में अनायास ही एक बार दक्षिण भारत की यात्रा का संयोग बन गया। तब तामिलनाडु में हिंदी विरोध की बड़ी चर्चा होती थी। हमारी यात्रा ओड़िशा के रास्ते आंध्र प्रदेश से शुरू हुई और तामिलनाडु तक जारी रही। इस बीच केरल का एक हल्का चक्कर भी लग गया। केरल की बात करें तो हम बस राजधानी त्रिव

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त्योहार और बाजार...!!

24 सितम्बर 2017
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तारकेश कुमार ओझाकहते हैं बाजार में वो ताकत हैं जिसकी दूरदर्शी आंखे हर अवसर को भुना कर मोटा मुनाफा कमाने में सक्षम हैं। महंगे प्राइवेट स्कूल, क्रिकेट , शीतल पेयजल व मॉल से लेकर फ्लैट संस्कृति तक इसी बाजार की उपज है। बाजार ने इनकी उपयोगित

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बदलते उत्तर प्रदेश में बेचारे बछड़े ....!!

9 अक्टूबर 2017
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तारकेश कुमार ओझा कहते हैं यात्राएं अपनी मर्जी से नहीं होती। ये काफी हद तक संयोग पर निर्भर हैं। क्या यही वजह है कि लगातार छह साल की अनुपस्थिति के बाद नवरात्र के दौरान मुझे इस साल तीसरी बार उत्तर प्रदेश जाना पड़ा। अपने गृहजनपद प्रतापगढ़ से गांव बेलखरनाथ पहुंचने तक नवरात्र की गहमागहमी के बीच सब कुछ

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कतार में जीवन ... !!

18 नवम्बर 2017
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तारकेश कुमार ओझा ​आज कल मनः स्थिति कुछ ऐसी बन गई है कि यदि किसी को मुंह लटकाए चिंता में डूबा देखता हूं तो लगता है जरूर इसे अपने किसी खाते या दूसरी सुविधाओं को आधार कार्ड से लिंक कराने का फरमान मिला होगा। बेचारा इसी टेंशन में परेशान हैं। यह सच्चाई है कि देश में नागरिकों की औसत आयु का बड़ा हिस्सा कतार

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माननीयों का नॉन स्टॉप महाभारत ...!!

20 नवम्बर 2017
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​तारकेश कुमार ओझा फिल्मी दंगल के कोलाहल से काफी पहले बचपन में सचमुच के अनेक दंगल देखे । क्या दिलचस्प नजारा होता था। नागपंचमी या जन्माष्टमी जैसे त्योहारों पर मैदान में गाजे - बाजे के बीच झुंड में पहलवान घूम - घूम कर अपना जोड़ खोजते थे। किसी ने चुनौती दी तो हाथ मिला कर हंसते - हंसते चुनौती स्वीका

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पब्लिक अॉन डय़ूटी ... !!

4 दिसम्बर 2017
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तारकेश कुमार ओझा बैंक में एक कुर्सी के सामने लंबी कतार लगी है। हालांकि बाबू अपनी सीट पर नहीं है। हर कोई घबराया नजर आ रहा है। हर हाथ में तरह - तरह के कागजों का पुलिंदा है। किसी को दफ्तर जाने की जल्दी है तो कोई बच्चे को लेने स्कूल जाने को बेचैन है। इस बीच अनेक बुजुर्गों पर नजर पड़ी जो चलने - फिरने में

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बड़े - बड़ों की शादी और बीमारी ...!!

7 जनवरी 2018
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तारकेश कुमार ओझा पता नहीं तब अपोलो या एम्स जैसे अस्पताल थे या नहीं, लेकिन बचपन में अखबारों में किसी किसी चर्चित हस्ती खास कर राजनेता के इलाज के लिए विदेश जाने की खबर पढ़ कर मैं आश्चर्यचकित रह जाता था। अखबारों में अक्सर किसी न किसी बूढ़े व बीमार राजनेता की बीमारी की खबर होती । साथ में उनके इलाज के ल

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राजनीति के ये ब्वायज क्लब ...!!

11 जनवरी 2018
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तारकेश कुमार ओझा कहीं जन्म - कहीं मृत्यु की तर्ज पर देश के दक्षिण में जब एक बूढ़े अभिनेता की राजनैतिक महात्वाकांक्षा हिलोरे मार रही थी, उसी दौरान देश की राजधानी के एक राजनैतिक दल में राज्यसभा की सदस्यता को लेकर महाभारत ही छिड़ा हुआ था। विभिन्न तरह के आंदोलनों में ओजस्वी भाषण देने वाले तमाम एक्टिविस

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वाकई ! कुछ सवालों के जवाब नहीं होते ... !!

31 जनवरी 2018
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तारकेश कुमार ओझा वाकई इस दुनिया में पग - पग पर कंफ्यूजन है। कुछ सवाल ऐसे होते हैं जिनके जवाब तो मिलते नहीं अलबत्ता वे मानवीय कौतूहल को और बढ़ाते रहते हैं।हैरानी होती है जब चुनावी सभाओं में राजनेता हर उस स्थान से अपनापन जाहिर करते हैं जहां चुनाव हो रहा होता है। चुनावी मौसम में देखा जाता है कि र

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न्यूज वल्र्ड के सोमालिया - यूथोपिया ... !!

13 फरवरी 2018
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तारकेश कुमार ओझा सच पूछा जाए तो देश - दुनिया को खबरों की खिड़की से झांक कर देखने की शुरूआत 80 के दशक में दूरदर्शन के जमाने से हुआ था। महज 20 मिनट के समाचार बुलेटिन में दुनिया समेट दी जाती थी। अंतर राष्ट्रीय खबरों में ईरान - इराक का जिक्र केवल युद्ध और बमबारी के संदर्भ में होता था। जबकि सोमालिया और य

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बैंकों की घुमावदार सीढ़ियां ... !!

1 मार्च 2018
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तारकेश कुमार ओझा तब तक शायद बैंकों का राष्ट्रीयकरण नहीं हुआ था। बचपन के बैक बाल मन में भारी कौतूहल और जिज्ञासा का केंद्र होते थे। अपने क्षेत्र में बैंक का बोर्ड देख मैं सोच में पड़ जाता था कि आखिर यह है क्या बला। बैंकों की सारी प्रक्रिया मुझे अबूझ और रहस्यमय लगती। समझ बढ़ने पर जब मुझे पता लगा कि इसम

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आम आदमी का आधार... खास का पासपोर्ट ...!!

14 मार्च 2018
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तारकेश कुमार ओझाअपने देश व समाज की कई विशेषताएं हैं। जिनमें एक है कि देश के किसी हिस्से में कोई घटना होने पर उसकी अनुगूंज लगातार कई दिनों तक दूर - दूर तक सुनाई देती रहती है। मसलन हाल में चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद त्रिपुरा में प्रतिमा तोड़ने की घटना की प्रतिक्रिया में लगातार कहीं न कहीं प्रतिमा

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