तारकेश कुमार ओझा
कहीं जन्म - कहीं मृत्यु की तर्ज पर देश के दक्षिण में जब एक बूढ़े अभिनेता की राजनैतिक महात्वाकांक्षा हिलोरे मार रही थी, उसी दौरान देश की राजधानी के एक राजनैतिक दल में राज्यसभा की सदस्यता को लेकर महाभारत ही छिड़ा हुआ था। विभिन्न तरह के आंदोलनों में ओजस्वी भाषण देने वाले तमाम एक्टिविस्ट राज्यसभा के लिए टिकट न मिलने से आहत थे। माननीय बनने से वंचित होने का दर्द वे ट्वीट पर ट्वीट करते हुए बयां कर रहे थे। श्रीमान को राज्यसभा में भेजा जाए, इस मांग को लेकर उनके समर्थक पहले से सक्रिय रहते हुए सड़क पर थे। जैसे ही टिकटों का पिटारा खुला मानो भुचाल आ गया। कश्मीर में लगातार हो रही जवानों की शहादत के बीच उन्होंने खुद को भी शहीद बता दिया। आंदोलनकारियों के एक खेमे से आवाज उठी... मारेंगे , लेकिन शहीद होने नहीं देंगे... दूसरे खेमे ने भावुक अपील की... शहीद तो कर दिया, लेकिन प्लीज.. अब शव के साथ छेड़छाड़ मत करना। हंगामा बेवजह भी नहीं था। कमबख्त पार्टी हाईकमान ने उनके बदले धनकुबेरों को टिकट थमा दिया था। समाचार चैनलों पर इसी मुद्दे पर गंभीर बहस चल रही थी। विशेषज्ञ बता रहे थे कि अब तक किन - किन दलों ने धनकुबेरों को राज्यसभा में भेजा है। विषय के विशेषज्ञ अलग - अलग तरह से दलीलें पेश कर रहे थे। जिन्हें देख - सुन कर यही लग रहा था कि किसी सदन के लिए कुछ लोगोॆं का निर्वाचित न हो पाना भी देश व समाज की गंभीर समस्याओं मे एक है। इस मुद्दे पर मचे महाभारत को देख कर ख्याल आया कि हाल में एक और सूबे के नवनियुक्त मंत्री भी तो मनमाफिक विभाग न मिलने से नाराज थे। पार्टी के राष्ट्रीय अध्य़क्ष के हस्तक्षेप से उन्हें उनका मनचाहा विभाग मिला तो उन्होंने पद व गोपनीयता की शपथ ली। इन मुद्दों पर सोचते हुए याद आया कि कुछ महीने पहले देश के सबसे बड़े सूबे के राजनैतिक घराने में भी तो ऐसा ही विवाद देखने को मिला था। चाचा नाराज थे क्योंकि भतीजे ने उन्हें उनका मन माफिक पीडब्लयूडी या रजिस्ट्री जैसा कोई विभाग नहीं दिया था। आखिरकार पार्टी के पितृपुरुष के दखल के बाद चाचा को मुंहमांगा विभाग मिल पाया और भतीजे ने भी सुख - चैन से राजपाट चलाना शुरू कर दिया। ऐसे दृश्य देख मन में ख्याल आया कि ये राजनैतिक दल हैं या मोहल्लों के लड़कों के स्टार ब्वायज क्लब। जहां बात - बात पर मनमुटाव और लड़ाई - झगड़े होते रहते है। किसी का मुंह फूला है क्योंकि रसीद बुक पर उसका नाम नहीं है तो कोई इस बात पर खार खाए बैठा है कि समारोह में मुख्य अतिथि को फूलों का गुलदस्ता भेंट करने के लिए उसे क्यों नहीं बुलाया गया। वैसे इतिहास पर नजर डालें तो यह कोई नई बात नहीं है, जिस पर छाती पीटी जाए। ऐसे अनेक आंदोलन इतिहास के पन्नों में दबे पड़े हैं, जिनमें लाठी - डंडे चाहे जो खाए खाए लेकिन सदन की सदस्यता की बारी आने पर हाईकमान को फिल्म अभिनेता या अभिनेत्री ही भाते हैं। नारागजी होती है , पार्टी टूटती है फिर बनती है, लेकिन मलाई पर हक को ले विवाद चलता ही रहता है। यानी दुनिया चाहे जितनी बदल जाए , अटल सत्य है कि देश की राजनीति में स्टार ब्यावज क्लब टाइप लड़ाई - झगड़े कभी खत्म नहीं होंगे। न तो राजनीति से राग - द्वेष का सिलसिला कभी टूटेगा। राजनीति के प्रति वितृष्णा जाहिर करते हुए कोई अभिनेता कहेगा ... मैं गलत था... यह मेरा क्षेत्र नहीं है... इसमें बड़ी गंदगी है... मैं पहले जहां था, वहीं ठीक था... तभी दूसरे कोने से आवाज आएगी... जिंदगी में मुझे सब कुछ मिल चुका है... अब बस मैं देश व जनता की सेवा करना चाहता हूं...। इसके बाद अभिनेता या अभिनेत्री तो चुप हो जाएगी, लेकिन कयासबाजी का दौर शुरू हो जाएगा कि अमुक फलां पार्टी में जाएगा या अपनी खुद की पार्टी बनाएगा। कालचक्र में भी यह सिलसिला बदस्तूर जारी रहेगा। जन्म -मृत्यु की तर्ज कहीं पुराना राजनीति को कोसेगा लेकिन तभी राजनैतिक क्षितिज पर कोई नया नवागत सितारा इसकी ओर आकृष्ट होगा। यह जानते हुए भी जनता के बीच रहना या उनकी समस्याएं सुनने का धैर्य उनमें नहीं लेकिन भैयाजी माननीय होने को बेचैन हैं। सदन में भले ही एक दिन भी उपस्थित रहना संभव न हो , लेकिन राज्यसभा में जाने का मोह भी नहीं छूटता। भले ही जनता की झोली हमेशा की तरह खाली रहे। मन का संताप जस का तस कायम रहे। शायद यही भारतीय राजनीति की विशेषता है।