अक्सर मेरे मन में ख्याल आता है कि दुनिया को बदल कर रख देने वाले कंप्यूटर , इंटरनेट और स्मार्ट फोन बनाने वालों ने क्या कभी हाथ में माइक पकड़ कर भाषण दिया। अविष्कार से पहले कभी इस बात का दावा किया कि उसकी योजना क्या है। अविष्कार के बाद भी कोई सामने आया कि उसने किस तरह ये चीजें बना कर मानवता पर उपकार किया है। आज से महज एक दशक पहले तक सेलफोन के रूप में चंद हाथों तक सीमित रहने वाला मोबाइल आज यदि हर हाथ की जरूरत बन गया है तो उसे इस मुकाम तक पहुंचाने वालों ने क्या कभी कोई दावा किया था कि कभी या लंबे - चौड़े भाषण दिए थे। टेलीविजन पर जब कभी किसी को लच्छेदार भाषण देता सुनता हूं तो मेरे मन में यही सवाल अक्सर उमड़ने - घुमड़ने लगता है। बेशक लुभावनी बातें मुझे भी लुभाती है। लेकिन दिमाग इस बात की चुगली करती है कि ऐसी लच्छेदार बातें पहले भी कई बार सुनी जा चुकी है। लेकिन दुनिया अपने तरीके से आगे बढ़ती हुई चलती है। सिर्फ बोलने - कहने से कुछ नहीं होता। लेकिन बिकाऊ चेहरों के बाजार को क्या कहेंगे जिसे हमेशा इस तरह के चेहरों की तलाश रहती है जो बाजार में बिक सके। वह चेहरा किसी क्रिकेटर का हो सकता है या किसी अभिनेता का या फिर किसी राजनेता का। इस बाजार में बिकाऊ चेहरों की मांग इस कदर है कि उसे उन चेहरों को भुनाने से भी परहेज नहीं जो गलत वजहों से चर्चा में आए। बिकाऊ चेहरों के इस बाजार को किसी पोर्न स्टार को सेलीब्रिटी बनाने से भी परहेज नहीं। पिछले कुछ दिनों से चैनलों पर देश के एक महत्वपूर्ण शिक्षण संस्थान में लगे देश विरोधी नारों को लेकर हो रहे विवादों को देख कर मैं हैरान हूं। लगता है जैसे 2011 के जनलोकपाल बिल वाला ऐतिहासिक अन्ना आंदोलन वापस आ गया है। मुझे नहीं लगता कि किसी शिक्षण संस्थान में देश विरोधी नारे लगने पर किंतु - परंतु के साथ उस पर घंटों बहस कराई जा सकती है। ऐसा प्रतीत होता है कि एक व र्ग हमेशा तैयार बैठ ा रहता है कि कभी ऐसी घटनाएं हो ं और वे बेसिर पैर की बहस शुरू करके देश का ध्यान इस ओर खींच सके। किसी गलत वजह से चर्चा में आए लोगों को भी सेलिब्रिटी की तरह पेश करने की कोशिश , उसके गांव - कूचों की खबरें दिखाने या फिर एक्सक्लूसिव के नाम पर उससे मुस्कुराते हुए यह पूछना कि शादी कब कर रहे हैं , काफी खतरनाक प्रवृति है। क्योंकि ऐसे सवालों का जनहित से कोई संबंध नहीं है। ऐसे सवाल तो साधारणतः फिल्मी हीरो या हीरोइनों से पूछे जाते हैं। यह देख कर भी को फ्त होती है कि एक व र्ग गलत वजहों से चर्चा में आए लोगों के पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश करने लगता है। प्रयास यही रहता है कि किसी तरह यह अनावश्यक विवा लंबा खींचे। जिससे उनका हित सधे। बेशक गलत वजहों से चर्चा में आने के बाद रातोंरात मिली प्रसिद्धि किसी को भी लुभा सकती है। लेकिन उन्हेंयह भी नहीं भूलना चाहिए कि बिकाऊ चेहरों का .यह बाजार अपने फायदे के लिए यह सब करता है। क्या कोई सकता है 80 के दशक के मंडल आंदोलन के बाद आत्मदाह की शिश करके अचानक चर्चा में आए राजीव गोस्वामी को। बिकाऊ चेहरों के इस बाजार ने उस बेचारे का भी उपयोग किया। लेकिन एक दिन उसे गुमनाम मौत मरना पड़ा। इतिहास में अनेक ऐसे लोग दबे पड़े हैं जो बिकाऊ चेहरों के इस बाजार के हाथों इस्तेमाल होकर आज समय के कूड़ेदान में पड़े हैं। इस घातक प्रवृति को नया ट्रेंड बनाने से बचना चाहिए।