तारकेश कुमार ओझा
आज कल मनः स्थिति कुछ ऐसी बन गई है कि यदि किसी को मुंह लटकाए चिंता में डूबा देखता हूं तो लगता है जरूर इसे अपने किसी खाते या दूसरी सुविधाओं को आधार कार्ड से लिंक कराने का फरमान मिला होगा। बेचारा इसी टेंशन में परेशान हैं। यह सच्चाई है कि देश में नागरिकों की औसत आयु का बड़ा हिस्सा कतार में खड़े रह कर मेज - कुर्सी लगाए बाबू तक पहुंचने में बीत जाता है।कभी राशन तो कभी केरोसिन की लाइन में खड़े रह कर अपनी बारी का इंतजार करने में। वहीं किसी को बल्लियों उछलता देखता हूं तो लगता है आज इसने जरूर अपनी तमाम सुविधाओं का आधार कार्ड से लिंक करवाने में कामयाबी हासिल कर ली है तभी इतना खुश और बेफिक्र नजर आ रहा है। क्योंकि पिछले कई दिनों से मैं खुद इस आतंक से पीड़ित हूं। अपनी पुरानी और खटारा मोबाइल को दीर्घायु बनाए रखने के लिए मैं रात में स्विच - आफ कर देता हूं। यह सोच कर कि इससे मोबाइल को भी दिन भर की माथा पच्ची से राहत मिलेगी और वह ज्यादा समय तक मेरा साथ निभा पाएगा। लेकिन सुबह उ नींदे ही मोबाइल का मुंह खोलते ही मुझे डरावने संदेश मिलने लगे हैं। अमूमन हर संदेश में आधार का आतंक स्पष्ट रहता है। फलां तारीख तक इस सुविधा का आधार से लिंक नहीं कराया बच्चू तो समझ लो... जैसे वाक्य। आधार के इस आतंक के चलते मैसेज का टोन ही अब सिहरन पैदा करने लगा है। ऐसे में किसी को बेफिक्र देख कर मन में यह ख्याल आना स्वाभाविक ही है कि यह आधार को लिंक कराने के टेंशन से जरूर मुक्त है तभी तो इतना निश्चिंत नजर आ रहा है। रोजमर्रा की जिंदगी में भी तमाम लोग यही सवाल पूछते रहते हैं कि भैया यह आधार को अमुक - अमुक सुविधा से लिंक कराने का क्या चक्कर है.. आपने करा लिया क्या। ऐसे सवालों से मुझे चिढ़ सी होने लगी है। सोचता हूं कि क्या देश में हर समस्या का एकमात्र यही हल है। हालांकि ऐसे आतंक मैं बचपन से झेलता आ रहा हूं। बचपन में अक्सर इस तरह के सरकारी फरमानों से पाला पड़ता रहा है। मुझे कतार में खड़े होने से चिढ़ है। लेकिन तब किसी न किसी बहाने कतार में खड़े ही होना पड़ता था। कभी केरोसिन तो कभी सरसो के तेल के लिए । अभिभावकों की साफ हिदायत होती थी कि फलां चीज की विकट किल्लत है। कनस्तर लेकर जाओ और आज हर हाल में वह चीज लेकर ही आना। यही नहीं बाल बनाने के लिए भी हजामत की दुकान के सामने घंटों इंतजार करना पड़ता था, क्योंकि घर वालों का फरमान होता था कि बाल बनेगा तो बस फलां दिन को ही। यहां भी अॉड- इवन का चक्कर। विषम दिन में बाल बनवा लिए तो घर में डांट - फटकार की खुराक तैयार रहती। कभी सुनता यह प्रमाण पत्र या कार्ड नहीं बनाया तो समझो हो गए तुम समाज से बाहर वगैरह - वगैहर...। लेकिन दूसरी दुनिया में नजर डालने पर हैरान रह जाता हूं। एक खबर सुनी कि बुढापे में बाप बनने वाले एक अभिनेता अपने नवजात बच्चे का पहला जन्मदिन मनाने का प्लॉन तैयार कर रहे हैं। इस कार्य में उनका समूचा परिवार लिप्त है। लोगों को सरप्राइज देने के लिए बर्थ डे सेलिब्रेशन के प्लान को गुप्त रखा जा रहा है। एक और खुशखुबरी कि यूरोप में हुए आतंकवादी हमले के दौरान हमारे बालीवुड की एक चर्चित अभिनेत्री बाल - बाल बच गई। वाकये के समय वह वहीं मौजूद थी। क्योंकि उसका एक मकान उस देश में भी है। वह इन दिनों यूरोप में छुट्टियां मना रही है। जिस समय हमला हुआ वह समुद्र से अठ खेल ियां कर रही थी, सो बच गई। खुशखबरी की तस्तरियों में मुझे यह देख कर कोफ्त हुई कि जन्म दिन कुछ प्रौढ़ अभिनेताओॆं का है लेकिन चैनलों पर महिमागान उनके बाप - दादाओं का हो रहा है। वैसे इसमें गलत भी क्या है। जरूर हमें उनका शुक्रगुजार होना चाहिए जिन्होंने इतने कीमती हीरे बॉलीवुड को दिए। वनार् पता नहीं बालीवुड और देश का क्या होता। एक के बाद फिल्मों के करोड़ी क्लबों में शामिल होने और फिल्म अभिनेताओं और खिलाड़ियों की कमाई लगातार बढ़ते जाने की खबरें भी अमूमन हर अखबार में पढ़ने तो चैनलों पर देखने को मिल ही जाती है। निश्चय ही यह वर्ग आधार के आतंक से मुक्त है, तभी इतना जबरदस्त रचनात्मक विकास कर पा रहा हैं।