तारकेश कुमार ओझा
यदि मुझसे कोई पूछे कि मुलायम सिंह यादव कितने बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं , तो शायद मैं सही- सही बता नहीं पाऊंगा। इतना जानता हूं कि वे एक से ज्यादा बार मुख्यमंत्री रहे थे। क्योंकि उत्तर प्रदेश की राजनीति में उनका जिक्र बचपन से सुनता आ रहा हूं। कालेज के दिनों में देवगौड़ा की सरकार में मुलायम सिंह यादव को केंद्रीय रक्षा मंत्री के तौर पर भी कुछ दिन देख चुका हूं। इस बीच उत्तर प्रदेश में तत्कालीन बसपा व भाजपा गठबंधन के बीच अनबन हो गई। लिहाजा मुलायम को अपनी प्रिय मुख्यमंत्री की कुर्सी मिल गई, और वे दिल्ली से ही लखनऊ रवाना हो गए। कुछ सालों के बाद नसीब ने फिर उनका साथ दिया और यूपी की कमान उनके हाथ लगी, तो आम भारतीय पिता की तरह उन्होंने यह अपने बेटे अखिलेश के सुपुर्द कर दिया। एक बार केंद्रीय मंत्री और मेरे लिहाज से अनेक बार मुख्यमंत्री का पद कोई मामूली बात नहीं कही जा सकती है। लेकिन इसके बावजूद पता नहीं क्यों मुझे मुलायम सिंह यादव आम पूरबिया पिता की तरह ही लगते हैं। जो अमूमन उस संत की तरह होता है जो अपने शिष्य को झोला थमाते हुए कहता है कि न शहर जाना, न गांव, न हिंदू से लेना न मुसलसान से लेना , लेकिन शाम को थैला भर कर लाना। अब बेचारे उस शिष्य या पूरबिए पिता के बेटे की हालत का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। पूरबिए रोजी - रोटी की तलाश में चाहे अपनी जड़ों से हजारों किलोमीटर दूर या परदेश ही निकल जाएं। लेकिन पिता रहते बाबूजी ही हैं। बेटे से सदा नाराज। बेटा कालेज में पढ़ रहा है, पर बाबूजी को उसकी शादी की चिंता खाए जा रही है। शादी हो गई, तो नाराज ... कि इसे तो घर - परिवार की कोई चिंता ही नहीं। बेटा नौकरी की तलाश में कहीं दूर निकल जाए या घर पर रह कर ही कोई धंधा - कारोबार करे, तो भी शिकायत। मड़हे में बैठ कर बेटे की बुराई ही करेंगे कि भैया , एेसे थोड़े धंधा - गृहस्थी चलती है। परिवार की गाड़ी खींचने के लिए हमने कम पापड़ नहीं बेले। लेकिन आजकल के लौंडों को कौन समझाएं... वगैरह - वगैरह चिर - परिचित जुमले। अब मुलायम सिंह यादव का भी यही हाल है। सुना है बेटाजी इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे थे, लेकिन पिताजी को उन्हें सांसद बनाने की जल्दी थी। सांसदी ठीक से सीखी नहीं कि उत्तर प्रदेश की कमान सौंप दी। नसीब से सरकार बन गई, तो मुख्य़मंत्री भी बना दिया। बगैर जरूरी तैयारी के। अब आम पूरबिया पिता की तरह हमेशा बेटे से नाराज रहते हैं। सार्वजनिक मंचों से बेचारे अखिलेश को डांट पिला रहे हैं। सावधान - होशियार कर रहे हैं। कह रहे हैं कि होशियार , आलोचना सुनना सीखो वगैरह - वगैरह। कुनबे का झगड़ा देख कर लगता है हिंदी पट्टी की किसी बारात में बैठे हैं। कभी कोई नाराज होता है तो कभी कोई। सरकार अपने हिसाब से ही चल रही है। अब सवाल उठता है कि यदि मुलायम बेटे से सचमुच नाराज हैं, तो घर पर अकेले में बुला कर भी तो बताया - समझाया जा सकता है। मेरे ख्याल से भारी व्यस्तता के बावजूद बाप - बेटे की घर पर मुलाकात तो होती ही होगी। लेकिन नहीं ... भरी सभा में नाराजगी जतलाई जा रही है। जैसा साधारण उत्तर प्रदेशीय या पूरबिया पिता किया करते हैं। घुर देहाती पुत्तन हों या मुख्यमंत्री , बाबूजी की सबके सामने डांट - फटकार तो सुननी ही पड़ेगी। अब तो मेरी धारणा और मजबूत हो चुकी है कि पूरबिए चाहे जितना बड़ा पद पा लें, मिजाज उनका हमेशा ठेठ देशी ही रहेगा। यानी बेटे से सदा नाराज...