तारकेश कुमार ओझा
कॉलेज के दिनों में एक बार मेरे शहर में दो राजनैतिक दलों के बीच भीषण हिंसक संघर्ष हो गया। मारामारी में किसी का सिर फूटा तो किसी के पांव टूटे। अनेक लोग गिरफ्तार हुए। कई पुलिस के डर से शहर छोड़ कर भाग निकले। लोगों में कानून का खौफ कायम करने के लिए पुलिस की सहायता के लिए विशेष बल भी बुला लिए गए । उस जमाने में यह बड़ी बात मानी जाती थी। क्योंकि खाकी से ही लोग खौफ खाते थे। तिस पर यदि विशेष बल के जवान कहीं दिख जाएं तो लोग सहम जाते थे। इस बीच मैं यह जानकार हैरान रह गया कि जिन दो कारोबारी भाईयों को लेकर शहर में फसाद की उत्पत्ति हुई थी, वे बबाल - बट्टे से कोसों दूर आस - पास बने अपने - अपने मकानों में चैन की बंसी बजाते देखे जाते थे। सुबह मार्निंग वॉक तो रात में भोजन के बाद आराम से अपने लॉन में वे चहलकदमी करते नजर थे।यानी जिनके लिए समूचा शहर परेशन था वे खुद सुख -चैन से थे। बड़े होने पर अपने शहर के कुछ ऐसे कारोबारियों को जाना - समझा जो शेर - बकरी को एक घाट पर पानी पिलाने की कला में दक्ष थे। विभिन्न दलों के नेताओं को अक्सर उनके मकान - दुकान में चाय - पान करते देख हैरत होती थी कि बंदे आखिर हैं किस दल के सम र्थक जो अलग - अलग दलों के नेताओं को साध लेते है। हर किसी को यही लगता है कि यह उसकी पा र्टी का सम र्थक है। वहीं समझ बढ़ने पर देश के नामचीन ऐसे कारोबारियों को समझने का मौका मिला जिनके पीछे तमाम विभिन्न राज्यों के राजनेता ऐसे ही पड़े रहते हैं जैसे शहरों में चंदा मांगने वाले नेता। फर्क सिर्फ इतना है कि शहरों में नेता चंदे के लिए कारोबारियों के पीछे भागते हैं । वहीं बड़े कारोबारियों के पीछे बड़े राजनेता उनके प्रदेश में निवेश के लिए कि भैया कुछ निवेश हमारे राज्य में भी करो। बड़ी बेरोजगारी है यहां। छोटे हों या बड़े कारोबारी हर खेमे को साधने में गजब का संतुलन दिखाते हैं। देश में जब कभी कलाकारों की राष्ट्रीयता को लेकर विवाद छिड़ता है मुझे अतीत की ऐसी घटनाएं बरबस ही याद आ जाती है। यानी दुश्मन हमें चाहे जितने जख्म देते रहे। सीमा पर हमारे चाहे जितने जवान शहीद होते रहें, हमारे देश के कुछ कथित कलाकार या यूं कहें कारोबारी इन सब से दूर सुख - चैन की जिंदगी बसर करना चाहते हैं। मानो देश के हित - अहित से उनका कोई वास्ता ही नहीं। वे बस इतना चाहते हैं उनके पेशे - धंधे पर कोई आंच न आए। अपने कुतर्कों को लच्छेदार शब्दों में पिरो कर पेश करना कोई इनसे सीखे। कहते हैं कि मुझसे बड़ा देश भक्त कोई नहीं... लेकिन ...। आखिर यह कैसी देशभक्ति है। यहां अस्तित्व की लड़ाई है और आपको अपनी फिल्म की कमाई की पड़ी है। मशा बस यही कि उनकी फिल्में कमाई करती रहे। प र्दे पर वे चाहे जितने बड़े देशभक्त नजर आते हों लेकिन वास्तविक जिंदगी में वे धंधेबाज ही बने रहना चाहते हैं। जबकि दुश्मन देश से रिश्ते या कलाकारों के साथ काम करने के मामले में विवाद या तर्क - वितर्क की कोई गुंजाइश ही नहीं रहनी चाहिए। फिल्में बना कर करोड़ों कमाने वाले यदि यह कहें कि प्रधानमंत्री भी तो उस देश में गए थे, तो हमारे वहां जाने पर सवाल क्यों उठ रहा है। प्रश्न है कि क्या देश के शीर्ष पदों पर रहने वालों का किसी देश में जाना और कमाई के लिए कहीं जाना क्या एक बात है। राष्ट्रहित पर व्यक्तिगत फायदों को तरजीह देने वालों के मामले में अपनी तो यही राय है कि देश के मुद्दों पर भी किंतु - परंतु करने वालों को कलाकार नहीं बल्कि कारोबारी समझना चाहिए। उन्हें इसी नजरिए से देखा जाना चाहिए। ऐसे कथित कलाकारों को भी जनता से सम्मान की उम्मीद नहीं करना चाहिए।