तारकेश कुमार ओझा
बचपन में एक फिल्म देखी थी ... कालिया। इस फिल्म का एक डॉयलॉग काफी दिनों तक मुंह पर चढ़ा रहा... हम जहां खड़े हो जाते हैं... लाइन वहीं से शुरू होती है। इस डॉयलॉग से रोमांचित होकर हम सोचते थे... इस नायक के तो बड़े मजे हैं। कमबख्त को लाइन में खड़े नहीं होना पड़ता। इस नायक से इतना प्रभावित होने की ठोस वजहें भी थी। क्योंकि लाइन में खड़े होने की तब की पीड़ा को हमारी पीढ़ी ही समझ सकती थी। तथाकथित राशन - केरोसिन मिले या न मिले। लेकिन हर हफ्ते लाइन में खड़े होना ही पड़ता था। एक बार कार्ड पर दस्तख्त कराने तो दूसरी – तीसरी बार छटांक भर सामान आदि लेने के लिए। नौकरी की परीक्षा देने कहीं दूर जा रहे हों या इंटरव्यू के लिए ही। रेलवे का टिकट लेना है तो लंबी क्यू में जिल्लत तो झेलनी ही पड़ती थी। कभी सरसो तेल तो कभी नमक की असली – नकली किल्लत होती तो फिर अंतहीन कतार में खड़े होना पड़ता। तिस पर भी घर लौटने पर उलाहना सुनना पड़ता था कि फलां का बेटा पता नहीं कहां से जुगाड़ कर पाव भर तेल ले आया है। समय के साथ काफी कुछ बदला। जमाने कि लिहाज से हम तो यही समझने लगे थे कि अब लंबी – लंबी लाइनों से लोगों को हमेशा से मुक्ति मिल चुकी है। लेकिन बड़े नोट बंद किए जाने को ले एटीएम के सामने लग रही लंबी कतारों को देख कर मुझे एक बार फिर 80 के दशक का वह कालिया याद आ गया। कैसा विरोधाभास कि जो बैंक की नौकरी सबसे आराम वाली समझी जाती थी, आज बेचारे बैंक क र्मी छुट्टी के दिन भी कुर्सी पर बैठ कर कार्य करने को मजबूर हैं। वैसे देखा जाए तो सुविधाओं के मामले में तो अपना देश अर्द्ध - बेरोजगार या रोजगार की तरह पहले से ही है। जैसे देश में लाखों लोग है जिन्हें आप न तो आत्मनिर्भर कह सकते हैं और न ही परजीवी। बेचारे खटते हैं लेकिन इतना नहीं कमा पाते कि जरूरतें पूरी कर सकें। यह देखने वाले की नजर पर है। जैसे आधे गिलास पानी को कोई आधा खाली तो कोई आधा भरा के रूप में देखता है। अपने देश में बहुत कुछ है भी और नहीं भी। इसकी तुलना हम घर के कुएं से कर सकते हैं। मसलन पुराना कुआं यूं तो साल भर पानी देता रहता है। लेकिन भीषण गर्मी में बेचारा सूख भी जाता है। यही हाल पानी और बिजली की देश में उपलब्धता का भी है और एटीएम से निकलने वाली रकम का भी। कभी रकम निकलती है और कभी नहीं। हमारे देश की सड़के साल भर बनती रहती है और टूटती भी रहती है। किसी जरूरी कार्य से निकलें तो सड़क पर जाम लगा देख आपकी गाड़ी रुक गई। पता करने पर मालूम हुआ कि सड़क की खस्ता हालत के खिलाफ फलां पार्टी के कार्यकर्ता विरोध - प्रदर्शन कर रहे हैं। लंबी कवायद के बाद सड़क बनी। अभी लोग चैन की सांस ले भी नहीं पाए थे कि सड़क फिर खोदी जाने लगी। पता करें तो मालूम होता है कि फलां कंपनी की केबल गाड़ी जा रही है। कंपनी वालों ने लिख कर दिया है कि केबल का कार्य पूरा होते ही वे उसे पूर्ववत बना देंगे। कुछ दिन बाद दूरसंचार औऱ इसके बाद बिजली विभाग वाले उसी सड़क को खोदने लगते हैं। सब की अपनी - अपनी ड्यूटी है। पूरी तो करनी ही है। इसी दौरान बारिश आ गई, और सड़क फिर अपनी पुरानी दशा में। इस तरह से सड़क बनने औऱ टूटने का कार्य अपने देश में हमेशा चलता ही रहता है। सड़कों के इस सदाबहार मौसम ने सरकारी महकमे में इंफीरिय़टी कांपलेक्स यानी हीन भावना लाने में भी बड़ी भूमिका निभाई है। कुछ दिन पहले पुलिस महकमे में व्याप्त भ्रष्टाचार की चर्चा छेड़ते ही एक पुलिस आला अधिकारी फट पड़े... आप लोगों को बस पुलिस का भ्रष्टाचार दिखता है। सड़क पर खड़ा होकर हमारा जवान वाहन चालक से दस - बीस रुपए ले ले तो वह आपको बड़ा भ्रष्टाचार नजर आता है... और सड़क बनने औऱ टूटने पर सरकार को सालाना कितने करोड़ का चूना लगता है... कभी सोचा है आप लोगों ने। सड़क ही क्यों , अपने देश में बांध भी साल भर बनते औऱ टूटते रहते हैं, लेकिन इसमें होने वाले घपले - घोटालों का खेल जनता को क्यों दिखाई दे। लोग तो बस पुलिस वालों के पीछे पड़े रहते हैं। उस पुलिस अधिकारी का रौद्र रूप देख कर मैने वहां से खिसक लेने में ही भलाई समझी। लगता है अपने देश में सड़क – पानी और बिजली जैसे ज्वलंत मुद्दों के साथ बैकों की नगदी और एटीएम का मसला भी अहम रूप में जुड़ने जा रहा है।