तारकेश कुमार ओझा
हम जैसे लड़कों का मन तो फिल्मी गाने सुनने को होता, लेकिन बड़ों की सीख रहती कि चूंकि मौका शुभ कार्य का है। पूजा होनी है तो पहले भक्ति गीत या भजन सुने जाएं।
फिर शुरू हो जाता दर्शन शास्त्र के अवसाद भरे गीतों का दौर... दो दिन का जग में मेला फिर चला - चली का बेला..।
ऐसे गीत सुन कर हमें बड़ा गुस्सा आता कि कहां तो अपना युवा मन... उड़ता ही फिरूं ... इन हवाओं में कहीं... गाने को बेताब है और कहां इस तरह की नकारात्मक बातें की जा रही है।
दूसरों की शादी हमें असीम खुशी देती।
हमें यही लगता ... शादी तो हमेशा दूसरों की होनी है। अपना काम तो बस शादी को इंज्वाय करते हुए खाना - पीना और मस्ती करना है।
लेकिन जल्दी ही आटे - दाल का भाव मालूम हो गया।
आप सोचेंगे अतीत की इन बातों की भला वर्तमान में क्या प्रासंगिकता है जो इतनी चर्चा हो रही है।
दरअसल अपने देश में विरोधी पा र्टियां और शासक दल के बीच अनवरत चलने वाला जोश और होश का खेल इन बातों की बरबस ही याद करा देता है।
जो पार्टियां विपक्ष में रहते हुए जोश में दिखाई देती हैं , सत्ता की बागडोर मिलते ही उनका सारा जोश गायब सा नजर आने लगता है और वे होश में दिखाई देने लगते हैं।
देश में यह सिलसिला मैं बचपन से देखता आ रहा हूं। बीच - बीच में पाला - बदल होता रहता है। लेकिन तस्वीर लगभग वही रहती है।
विपक्षी खेमे में रहते जो शेर बने घूमते थे, सत्ता मिलते ही उनके सुर बदल जाते हैं।
झल्लाहट में कभी - कभी तो तो यहां तक कह दिया जाता है कि ... मेरे पास महंगाई कम करने की कोई जादूई छड़ी नहीं वगैरह - वगैरह।
लेकिन कालचक्र में फिर विपक्ष में जाते ही इस खेमे के पास हर समस्या का फौरी हल विशेषज्ञों की तरह मौजूद रहता है।
जब - तक विपक्ष में रहे बताते रहे कि देश की इन विकट समस्याओं का समाधान क्या है। समस्याओं पर जिनके व्याख्यान सुन - सुन मन बेचैन होने लगता है कि बेचारे को सत्ता की कुर्सी पर बिठाने में आखिर इतनी देरी क्यों हो रही है।
लेकिन समाधान के बजाय सत्ता मिलते ही उनकी ओर से वही किंतु - परंतु के साथ दलीलें सुनने को मिलती हैं।
यानी उड़ता ही फिरूं ... इन हवाओं में कहीं ... गाने को बेचैन रहने वाला विरोधी मन सत्ता मिलते ही अचानक दो दिन का जग में मेला सब.... चला - चली का बेला .... गुनगुनाते हुए न सिर्फ स्वयं अवसाद में डूब जाता है बल्कि जनता - जनार्दन को भी मायूस करता है।