एक सेठ जी थे उनका नाम था रूपचंद ! रूपचंद की पत्नी को मरे काफी दिन हो गया था ! रूपचंद का एक पुत्र भी था जिसका नाम था महेश कुमार ! पिता पुत्र दोनों एक साथ व्यापार करते थे ! पिता की दुकान पर ही पुत्र का जीवन व्यतीत हो रहा था ! समय पर रूपचंद ने अपने पुत्र का विवाह कर दिया और एक भरा पूरा परिवार सेठ जी के यहां हो गया ! अभी तक उनको स्वयं रोटी बनाकर खानी पड़ती थी परंतु बहू के आ जाने पर उनको गरम भोजन मिलने लगा |
सेठ जी का शंकालु स्वभाव था वह किसी पर भी विश्वास नहीं करते थे ! धीरे-धीरे समय व्यतीत होने लगा परंतु सेठ जी अपने स्वभाव के कारण अपने पुत्र पर भी विश्वास नहीं कर पाते थे ! पुत्र की उम्र पैतीस-पचास छूने लगी ! परंतु रूपचंद अपने पुत्र महेश कुमार को व्यापार में स्वतंत्रता नहीं देते थे , तिजोरी की चाबी तो आज तक दी ही नहीं थी ! पुत्र के मन में यह बात खटकती रहती थी, वह सोचता था कि यदि मेरा पिता पद्रंह- बीस वर्ष तक और रहेगा तो मुझे स्वतंत्र व्यापार करने का कोई अवसर नहीं मिलेगा ! यह मानव का स्वभाव होता है कि वह स्वतंत्र रहना चाहता है स्वतंत्रता सबको चाहिए इसी बात की महेश के मन में में चिढ़ थी , कुढन थी ! और यही चिढ़ एवं कुढ़न एक दिन उनके परिवार में फूट का कारण बन गई ! पिता-पुत्र में काफी बकझक हुई और अंततोगत्वा सम्पदा का बंटवारा हो गया !
पिता रूपचंद अलग रहने लगा पुत्र महेश कुमार अपने बहू बच्चों के साथ अलग रहने लगा !
रूपचंद अकेले थे, उनकी पत्नी का देहांत पहले ही हो चुका था, किसी दूसरे को सेवा के लिए नहीं रखा, क्योंकि उनके स्वभाव में किसी के प्रति विश्वास नहीं था ! यहां तक कि पुत्र के प्रति भी विश्वास नहीं था ! वे स्वयं ही अपने हाथ से रुका सूखा भोजन बनाकर खा लेते , कभी चना चवैना तो कभी भूखे सो जाते ! इसी प्रकार दिन व्यतीत होने लगा
जब उनकी पुत्रवधू को यह बात मालूम पड़ी तो उन्हें बहुत दुख हुआ , आत्मग्लानि भी हुई ! बहू में बाल्यकाल से ही धर्म का संस्कार था , बड़ों के प्रति आदर भाव एवं सेवा का भाव था ! उसने पिता के साथ लहने के लिए अपने पति महेश को मनाने का प्रयास किया ! परंतु वे न माने ! शंकालु स्वभाव के पिता रूपचंद के प्रति पुत्र महेश के मन में कोई सद्भाव नहीं था !
अब बहू ने एक विचार अपने मन में दृढ़ कर लिया और क्रिया रूप में किया ! वह पहले रोटी बनाकर पति पुत्र को खिलाकर दुकान और स्कूल भेज देती ! स्वयं ससुर के गृह चली जाती वहां भोजन बनाकर ससुर को खिला देती और सांयकाल के लिए पराठे बना कर रख देती ! कुछ दिनों तक ऐसा ही चलता रहा ! जब महेश को यह मालूम पड़ा तो उन्होंने रोका और अपनी पत्नी से कहा :/ तुम ऐसा क्यों करती हो,,,,? बीमार पड़ जाओगी , आखिर शरीर ही तो है , कितना परिश्रम सहेगा ! बहू ने बहुत ही शालीनती से अपने पति को जबाब दिया , वह बोली :- मेरे ईश्वर के समान आदरणीय ससुर जी भूखे रहें , तकलीफ पाए और हम लोग आराम से खाएं - पीये और मौज करें ! यह मुझसे नहीं हो सकता ! मेरा धर्म है बड़ों की सेवा करना , इनके बिना मुझे संतोष नहीं है , बड़ी ग्लानि है , मैं उन्हें खिलाए बिना खा नहीं सकती ! कहते कहते महेश की पत्नी की आँखों में आँसू आ गये और वह रोते हुई बोली :- भोजन के समय उनकी याद आने पर मुझे आंसू आने लगते हैं उन्होंने ही तुम्हें पाल पोस कर बड़ा किया है तब तुम मुझे पति के रूप में मिले हो ! तुम्हारे मन में कृतज्ञता का भाव नहीं है तो क्या हुआ मैं उनके प्रति कैसे कृतघ्न हो सकती हूं !
पत्नी के सद्भाव ने पति की निष्ठुरता पर विजय प्राप्त कर ली उसने जाकर अपने पिता के चरण छुए , क्षमा मांगी और घर ले आए ! पति पत्नी दोनों पिता की सेवा करने लगे ! पिता ने व्यापार का सारा भार पुत्र पर छोड़ दिया , वे अब पुत्र के किसी कार्य में हस्तक्षेप नहीं करते थे ! जीवन सी गाड़ी फिर से पटरी पर चल पड़ी |
सारंश
परिवार के किसी भी व्यक्ति मैं यदि सच्चा सद्भाव हो तो वह सबके मन को जोड़ सकता है मन का मेल ही सच्चा पारिवारिक सुख है, |