मानस के गहरे घावों को स्मर,
जो अनवरत है रोती।
उसी हृदय की टूटी माला के,
बिखरे हुये ये मोती।।1।।
मानस सागर की लहरों के,
ये आँसू फेन सदृश हैं।
लोक लोचन समक्ष ये आँसू पर,
इनके भाव अदृश हैं।।2।।
करुण हृदय के गम्भीर भाव के,
ये रूप हैं अति साकार।
उस भाग्यहीन माँ के अश्रु ये,
दुःख है जिसका निराकार।।3।।
वह भाग्यवती गृह रमणी सुंदर,
जिसकी दुनिया सम्पन्न थी।
थे जग के सब वैभव प्राप्य उसे,
गृह में उसकी कम्पन थी।।4।।
उस सम्पन्ना का था एक सहारा,
था अनुरूप उसके सब भाँति।
जीवन में थी उनके हरियाली,
छिटकी हुयी थी कीर्ति कांति।।5।।
उन दोनों के जीवन मध्य एक,
विकशित था जीवन बिंदु।
मोहित करता उनको क्रीडा से,
वह रजनी का कल इंदु।।6।।
बीता रही थी उनका यह जीवन,
सुंदर सुंदर कल क्रीडा।
उनसे हो क्रूर विधाता वाम,
ला दी जीवन मे भीषण पीड़ा।।7।।
हा छीन लिया उस रमणी से,
उसका जीवन धन समस्त।
धुल गया सुहाग का सिन्दूर,
हुवा कांति का सूर्य अस्त।।8।।
पर एक वर्ष भी बीत न पाया,
उस सुहाग को लुटे हुये।
दूजी बड़ विपदा ने आ घेरा,
दुःख की सेना लिये हुये।।9।।
जो उगा हुवा था नव मयंक,
बिखेर रहा था शुभ्र प्रकाश।
पर वाम विधाता भेज राहु को,
करवा डाला उसका ह्रास।।10।।
उसी समय से दुखिया के जीवन में,
छाया कष्टों का तूफान।
संगी साथी सब त्याग चले,
अब जीवन बना वीरान।।11।।
अब हर गली द्वार वह भटक भटक,
करती इस पीड़ा का स्मरण।
उस विकशित जीवन की यादों में,
ढुलका देती दो अश्रु कण।।12।।
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया