कभी कहलाता था तु,
सोने की चिड़िया जग में।
जगत गुरु का देकर पद,
पड़ता जग तेरे पग में।
विपुल वैभव पर अपने,
जग में सम्राज्य विस्तारा।
अतुलनीय बल विक्रम से,
कितनो को तूने तारा।।1।।
तेरे पावन वसुधा तल पर,
रत्न अनेक खिले थे।
बल, विक्रम, सम्पदा, दया के,
उनको गुण मिले थे।
अपनी अमृत-वाणी से,
जग मानस को लहराया।
अपने धर्म आचरण से,
जग में दया केतु फहराया।।2।।
दया वीणा की ध्वनि से,
मानस लहरी गूँजाई।
जग-मन वाटिकाओं में,
करुणा लता थी सजाई।
अपना धर्म फैलाया,
धर्म भेरी के सहचर बन।
रंगा उन्होंने एक रंग में,
सम्पूर्ण जगत का मन।।3।।
पर आज तूने हे भारत,
उस गौरव को भुला दिया है।
उस अतीत को भूल,
नये युग को अपना लिया है।
सभ्य हुये थे जो,
तेरे ही ज्ञान में जग कर के।
उपदेश दे रहे तुझको,
अब तेरे अग्रज बन कर के।।4।।
तूने ही सब से पहले,
उनको उपदेश दिया था।
बनकर के तु ज्ञानभानु,
ज्ञानालोक फैलाया था।
तेरे ज्ञान में उनका,
हुआ आलोकित हृदयांगन।
तूने ही उनको सिखलाया,
था सुंदर ज्ञानांकन।।5।।
वह मान मर्यादा तूने,
अपने मन से बिसरा दी।
वह अतीत की झांकी,
हृदय पटल से मिटा दी।
अपने पावन जगद्गुरु के,
पद को तु भूल गया।
वह अतीत का गौरव,
तेरे मन से दूर गया।।6।।
कभी तेरी जो जग जन,
कृपा दृष्टि थे चाहते।
तेरे समक्ष दीन बन,
अपना आँचल फैलाते।
उनकी ही कृपा दृष्टि की,
आशा आज तु करता।
परम दीन बन उनसे,
याचना आज तु करता।।7।।
बिसरादी है आज तूने,
अपनी वेश भूषा तक।
खान-पान अरु रहन-सहन,
भी भूल गया तेरा मन।
अपनी जाति, वर्ण, कुल का,
तुझको रहा न भान।
आज विदेशी रंग अपनाना,
तूने लिया है ठान।।8।।
व्याप्त हुई है तेरे,
कण कण में आज कृत्रिमता।
आज विदेशी चाल चलन
की है तुम में व्यापकता।
दृष्टि जिधर को जाती,
रंग नये नये हैं दिखते।
ये नूतन रंग रूप तेरी,
भाग्य रेख है लिखते।।9।।
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया