ईश तुम्हारी सृष्टि की महिमा है बड़ी निराली;
कहीं शीत है कहीं ग्रीष्म है कहीं बसन्त की लाली ।
जग के जड़ चेतन जितने हैं सब तेरे ही कृत हैं;
जो तेरी छाया से वंचित अस्तित्व रहित वो मृत है ।।1।।
कलकल करती सरिता में तेरी निपुण सृष्टि है;
अटल खड़े शैल पर भी तेरी आभा की दृष्टि है ।
अथाह उदधि की उत्ताल तरंगों में तु नीहित है;
भ्रमणशील भू देवी भी तुझसे ही निर्मित है ।।2।।
अथाह अनंत अपार अम्बर की नील छटा में;
निशि की निरवता में काली घनघोर घटा में ।
तारा युक्त चीर से शोभित मयंक मयी रजनी में;
तु ही है शीतल शशि में अरु चंचल चपल चांदनी में ।।3।।
प्राची दिशि की रम्य अरुणिमा में उषा की छवि की;
रक्तवर्ण वृत्ताकृति सुंदरता में बाल रवि की ।
अस्ताचल जाते सन्ध्या में लालिम शांत दिवाकर की;
किरणों में तु ही नीहित है प्रखर तप्त भाष्कर की ।।4।।
हरे भरे मैदानों में अरु घाटी की गहराई में;
कोयल की कुहु से गूँजित बासन्ती अमराई में ।
अन्न भार से झुकी हुई खेतों की विकसित फसलों में;
तेरा ही चातुर्य झलकता कामधेनु की नसलों में ।।5।।
विस्तृत एवम् स्वच्छ सलिल से भरे हुए ये सरोवर;
लदे हुए पुष्पों के गुच्छों से ये सुंदर तरुवर ।
घिरे हुए जो कुमुद समूह से ये मन्जुल शतदल;
तेरी ही आभा के द्योतक पुष्पित गुलाब अति कल ।।6।।
अथाह अनंत सागर की उफान मारती लहरों में;
खेतों में रस बरसाती नदियों की मस्त बहारों में ।
समधुर तोय से भरे पूरे इस धरा के सुंदर सोतों में;
दृष्टिगोचर होती है तेरी ही आभा खेतों में ।।7।।
मदमत्त मनोहर गजराज की मतवाली चालें:
बल विक्रम से शोभित वनराज की उच्च उछालें ।
चंचल हिरणी की आँखों में यह मा की ममता:
तुझसे ही तो शोभित है सब जीवों की क्षमता ।।8।।
हे ईश्वर हे परमपिता हे दीनबन्धु हितकारक;
तेरी कृतियों का बखान करना है कठिन ओ' पालक ।
तुझसे ही तो निर्मित है अखिल जगत सम्पूर्ण चराचर;
तुझसे जग का पालन होता तुझसे ही होता संहार ।।9।।
खिल जाए मेरी मन की वाटिका में भावों के प्रसून;
कर सकूँ काव्य रचना मैं जिनसे हो भावों में तल्लीन ।
ये मनोकामना पूर्ण करो हे ईश मेरी ये विनती;
तेरे उपकारों की मेरे पास नहीं कोई गिनती ।।10।।
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया