"शशिकला"
रात्री देवी के आँगन में,
गगन मार्ग से जब शशि जाता ।
शीतल किरणों को फैला,
शुभ्र ज्योत्स्ना सर्वत्र छाता ।।1।।
गगन मार्ग को कर आलोकित,
बढ़ता धीरे धीरे पथ पर ।
पूरणानन से छिटका मुस्काहट,
दिन करता धरणी तल पर ।।2।।
आंखमिचौली खेला करता,
वह सुंदर तारों के संग ।
जलद समूह के सुंदर पट में,
हो विलीन अति लाता रंग ।।3।।
छिप कर वह मेघाम्बर में,
कभी देखता लुकछिप कर ।
घूंघट से नव वधु सदृश,
देख बिखराता अपनी कर ।।4।।
चञ्चलता लिए नव शिशु सदृश,
रूप बदलता दिन प्रति दिन ।
होके कभी वह पूर्ण रूप में,
होता प्रति दिन क्षीण क्षीण ।।5।।
रजनी जब सुंदर थाल सजा,
आ राजतिलक करती तेरा ।
गगन सिंहासन आरूढ़ हो,
तू करता धरणी का फेरा ।।6।।
राज्यसभा में सुंदर नभ की,
बुध तारागण के बैठ संग ।
संचालन जब राज्य का करता,
यह नृप तब लाता नया रंग ।।7।।
रजत सदृश किरणें बिखरा,
भूतल को करता आलोकित ।
चांदी के रंग में रंग कर,
करता जग को वह अति मोहित ।।8।।
शष्य सुवर्ण सम खेतों का,
पा कर तेरी रश्मियाँ रजत ।
हेम रजतमय हो कर वह,
अद्वितीय रूप में है छाजत ।।9।।
सरिता सलिल भी होता शुभ्र,
अरु पावन धरती का आँचल ।
नन्हे नन्हे ग्रामीण गृह भी,
अरु प्रासाद रजत होते प्रांजल ।।10।।
रजनी के शासन में करके,
पृथ्वी अम्बर को यह 'नमन' ।
रजनी संग दिनकर के पट में,
छिप जाता तब यह मनमोहन ।।11।।
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया