मचल कौवा झमार , आगे पीछे अनिहार ।
नीति कवनों विस्तार के
चलावा इहें ।
बचवा धरती छोड़ दोसरा के आवा
इहें ना ॥
इत पुरुखन के भूमि , नीमन कइने एका चूमी ।
रीति कवनों अभिसार के चलावा
इहें ।
बचवा धरती छोड़ दोसरा के आवा
इहें ना ॥
छोड़ा घुमला के चाह , मने भरी के उछाह ।
प्रीति के रहिया बनवा इहें ।
बचवा धरती छोड़ दोसरा के आवा
इहें ना ॥
सोच नीमन करा आपन , कइके लोभ क उद्यापन ।
सभके विकास ला बयार के बहावा इहें ।
बचवा धरती छोड़ दोसरा के आवा
इहें ना ॥
नाही कवनों रार इहवाँ , भरल बाटे प्यार इहवाँ
सुतल पौरुष के आई जगावा इहें ।
बचवा धरती छोड़ दोसरा के आवा
इहें ना ॥
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जयशंकर प्रसाद द्विवेदी