माथे पर उभर आई लकीरें
भविष्य को ही
चिन्हित करती जा रही हैं
पसीने से तर – बतर
बिखरे लटियाए बाल
नियति बन चुके हैं
उनकी ।
हाथ की लकीरें
बदल भी सकती हैं
लेकिन
नहीं बदल पाती
माथे पर उभरी लकीरें
अमिट हैं
लक्ष्मण रेखा सी
अडिग हैं
चीन की दीवार सी ।
कर्म – नियति – भाग्य
बन गए हैं
नदी के किनारे
जो कभी मिलते ही नहीं
उनके लिए
हमारे लिए
कुछों के लिए
हथकंडो से हारकर ।
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जयशंकर प्रसाद द्विवेदी