टेढ़ी मेढ़ी
धूल धूसरित रौंदी सी
तल्ख धूप से
क्रिसकाय
असहाय
बेचारी पगडंडी ।
निपट मूर्ख सी
सहती
गर्मी वर्षा शीत
फिर भी
सबकी मीत
बेचारी पगडंडी ।
अनचाही घासों से
अटी पटी
कभी कलंकित
कभी सुशोभित
कभी बिलखती
कभी प्रफुल्लित
निभाती रहती रीत
बेचारी पगडंडी ।
देखी !
सबकी हार , जीत
समय के साथ बदलती भक्ति
अस्मिता का संकट
आंकड़ो का लफड़ा
सुनी !
उनकी चिल्ल पों
चाहकर भी
समझ न पायी गीत
बेचारी पगडंडी ।
बदल गए राही
जन – जीवन
उंच नीच
अल्हड्पन
नहीं बदली
अपनी प्रीत
बेचारी पगडंडी ।
·
जयशंकर प्रसाद द्विवेदी