दरबार हताश, निराश, शोकमग्न, भयभीत, सहमा हुआ और चिंतित था । लोगों ने दरबार को इस तरह से हैरान, परेशान कभी देखा नहीं था । दरबार की तो छवि ही ऐसी गढी गई थी कि वह सूर्य से भी अधिक तेजस्वी , चांद से भी अधिक धवल , हिमालय से भी अधिक अडिग और समीर से भी अधिक तेज नजर आता था । मगर विगत कुछ वर्षों से उसकी छवि मंद पड़ने लगी थी । उसका इकबाल खत्म होने लगा था । यह स्थिति बड़ी भयावह थी । चमत्कार तो कब का समाप्त हो चुका था । अब तो वह इकबाल जो दरबार ने अपने पुरखों के अथक प्रयासों से बनाया था , इस इकबाल के लिए दरबार ने क्या क्या नहीं किया था ? लूट खसोट, हत्या, भ्रष्टाचार, षड्यंत्र सब कुछ किया था । न जाने कितने लोगों की बलि दी गई और न जाने कितने लोगों का मान मर्दन किया गया था, वह इकबाल अब समाप्त हो रहा था । बस, यही बात दरबार को परेशान कर रही थी ।
दरबार ने अपनी छवि चमकाने के लिए न जाने कितने भांड, चारण, पंडित, दरबारी तैयार किये थे । कुछ को पैसे देकर तो कुछ को दरबार का सदस्य बनाकर अपनी तरफ किया था । इन सभी भांडों ने दरबार की शान में कसीदे पढने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी । यहां तक कि रियासत के सभी महानायकों का इन भांडों से मान मर्दन करवाया गया और दरबार का गुणगान करवाया गया । बेचारी जनता इन भांडों की विरुदावली के कारण हकीकत को कभी जान ही नहीं पाई और इस तरह दरबार का इकबाल बुलंद होता रहा ।
मगर पिछले कुछ वर्षों से सोशल मीडिया के प्रचलन में आ जाने के कारण इन भांडों की कलई खुलने लगी थी और दरबार की हकीकत सामने आने लगी थी । इन भांडों ने बहुत कोशिश की कि सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लग जाये लेकिन अब दरबार का वो इकबाल नहीं रह गया था कि जो वह चाहता था करा लेता था । इसलिए दरबार के लाख चाहने के बावजूद सोशल मीडिया का कोई कुछ भी नहीं उखाड़ सका अपितु सोशल मीडिया ने दरबार की जडें उखाड़नी शुरू कर दी थी ।
दरबार की सबसे बड़ी परेशानी यही थी कि रियासत में उसके प्रति विद्रोह बढता जा रहा था । हालांकि अब दरबार का राज नहीं रह गया था पर रियासत में दरबार का दबदबा अभी तक कायम था । इसी दबदबे को कायम रखने की चुनौती थी क्योंकि दरबार के दबदबे को अब "घर" से ही चुनौती मिल रही थी और प्रजा तो अब हिसाब चुकता करने के मूड में थी । ऐसी दशा में दरबार का झंडा बुलंद कैसे रहे, इस पर विचार करने के लिये सभी धूर्त, मक्कार, लंपट, ढोंगी, चाटुकारों की एक सभा बुलाई गई और कुछ समाधान सुझाने का "आदेश" दिया गया ।
सभी दरबारी "चिंतन" करने लगे । यद्यपि अब दरबारियों में न तो चिंतन करने की शक्ति बची थी और न ही उनकी बात सुनी जाती थी । अब तो दरबार को जो बात जंचती थी वही सुनी जाती थी । विमत को कहीं कोई जगह नहीं थी । कुछ लोगों ने डरते डरते ऐसी बात कह दी जो दरबार के मतानुकूल नहीं थी । इतनी सी बात पर दरबार के चाटुकारों ने उन्हें मारपीट कर धक्के मारकर घर से निकाल दिया था । बेचारे , वे लोग या तो दूसरे घरों में शरण लेने को मजबूर हो गये या दर दर की ठोकरें खा रहे हैं । इसलिए अब और कोई भी चाटुकार सत्य कहने का साहस नहीं करता था ।
चर्चा के दौरान यह बात सामने आई कि जनता दरबार से चिढी हुई है । बरसों से दरबार का आधिपत्य सहने के कारण जनता विद्रोही हो गई है । अब एक उपाय यह सुझाया गया कि दरबार का मुखौटा किसी और को बना दिया जाये जिससे जनता को लगे कि अब दरबार का प्रभुत्व कम हो गया है । इससे हो सकता है कि कुछ बात बन जाये । मगर दरबार अपना प्रभुत्व कम नहीं करना चाहता था । इसलिए यह सुझाव दरबार को पसंद नहीं आया ।
परंतु चाटुकारों की फौज में कुछ विश्वस्त चाटुकार भी थे । उन्होंने दरबार को कान में कहा "हुकुम, मुखौटा तो अपने विश्वस्त चाटुकारों में से ही कोई होगा । वह तो बस नाम का दरबार होगा , काम तो आपका ही होगा । प्रभुत्व तो आपका ही रहेगा । यह तो कांटों का ताज है जो मुखौटा नाम के प्राणी को पहनाया जायेगा । इससे हमें एक ऐसा "बकरा" मिल जायेगा जिसकी "बलि" कभी भी दी जा सकेगी । जब दरबार को याद दिलाया गया कि पहले भी तो एक "बकरे" को "राज सिंहासन" पर बैठाया जा चुका है । सारे अच्छे काम दरबार के बताकर दरबार का महिमामंडन किया गया था और सारे बुरे कर्म उस "बकरे" के मत्थे मढ दिये गये थे । इस बार भी ऐसे ही करते हैं । मुखौटा किसी और का लगा लेते हैं , दबदबा तो आपका ही रहेगा" ।
दरबार को बात जम गई । अब एक बकरे की तलाश की जाने लगी । बकरा विश्वस्त होना चाहिए, जड़खरीद गुलाम होना चाहिए और हां , बकरे के सींग बिल्कुल नहीं होने चाहिए । चाटुकारों की फौज में से ऐसा बकरा ढूंढना कोई मुश्किल काम नहीं था । दरबार की निगाह राजस्थान पर पड़ी । राजस्थान का तो इतिहास ही वफादारी, स्वामीभक्ति और सेवा भाव का रहा है । यहां तो "खम्मा घणी, हुकुम, अन्नदाता" कहने वालों की कोई कमी नहीं है । "पन्ना धाय" का उदाहरण तो इतिहास में भी मिलता है । इससे ज्यादा वफादारी और कहां मिलेगी ? तो सारा फोकस राजस्थान पर ही हो गया और राजस्थान के बकरों में से एक सबसे स्वामीभक्त बकरे का चयन कर लिया गया ।
भांडों के द्वारा इस बकरे का और दरबार के मास्टर स्ट्रोक दोनों का बढचढ कर बखान होने लगा । भांडों को अपने प्राचीन नाम पर आपत्ति होने लगी तो उन्होंने अपना नाम बदल लिया और इन्होंने अपना नया नाम "ईको सिस्टम" रख लिया । यह नाम कुछ सम्मान जनक था । भांड बहुत प्राचीन नाम था और इससे गुलामी की बू आती थी । ईको सिस्टम आधुनिक नाम था और इसमें गुलामी के अवशेष भी नजर नहीं आते थे यद्यपि थी गुलामों की फौज ही ।
राजस्थान वाला बकरा बड़ा चतुर खिलाड़ी था । लोग उसे जादूगर कहा करते थे । लोगों ने और तो कोई जादूगरी नहीं देखी थी उसकी लेकिन "सत्ता" हथियाने में उसे महारथ हासिल थी । खाना पकाता कोई और था लेकिन खाना पकने पर कब्जा वह कर लेता था । ये जादूगरी तो कमाल की थी उसकी । दरबार के भी बहुत निकट था वह । बल्कि यों कहें कि दरबार का सबसे विश्वस्त आदमी था तो गलत भी नहीं था । उसकी इसी खूबी के कारण उसे "मुखौटा" बनाने का निर्णय हो गया ।
मगर जादूगर को सत्ता से विशेष लगाव था । वह जानता था कि मुखौटा बनने से उसकी सत्ता चली जायेगी । वह किसी भी हाल में सत्ता से विमुख नहीं होना चाहता था । इसलिए उसने खेल कर दिया । और खेल भी ऐसा किया कि दरबार की सिट्टी पिट्टी गुम हो गई । दरबार हतप्रभ रह गया । दरबार तो उसे "गूंगा बहरा" समझ रहा था मगर जब उसकी "टेढी मेढी चालों" में उलझा तो दरबार को छठी का दूध याद आ गया । इस बकरे के तो सींग भी थे जो पहले दिखाई नहीं दे रहे थे । शायद उसने अपने घने बालों में छुपा लिये थे । यों कहना ज्यादा उपयुक्त होगा कि इसके पास न केवल सींग थे बल्कि यह तो कलाबाजियां खाने में भी माहिर था । जादूगर बकरे ने ऐसी ऐसी कलाबाजियां खाईं कि दरबार दांतों तले उंगलियां दबाने को विवश हो गया । दरबार को एक "मुखौटे" की जरूरत थी जिसे बलि का बकरा बनाया जा सके न कि एक कलाबाज की जो पृथक पृथक पैंतरे दिखाकर दरबार को सींग मारता रहे और लहूलुहान करता रहे ।
उसके खेल से दरबार का भरोसा इस बकरे से उठ गया । अब इसकी बलि नहीं दी जा सकती थी इसलिए अब किसी दूसरे बकरे की तलाश की जाने लगी । देखते हैं कि बलि के लिए कौन सा बकरा तैयार होता है ? लेकिन जादूगर ने अपनी जादूगरी से अपनी खुद की "बलि" होने से बचा ली थी । बकरे की मां कब तक खैर मनायेगी, ये देखना दिलचस्प होगा ।
श्री हरि
30.9.22