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एक कुंवारा

16 अक्टूबर 2022

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एक गाना सुना था कभी 


एक कुंवारा फिर गया मारा 


फंस गया देखो ये बेचारा 


इस गाने से याद आया कि आदमी जब तक कुंवारा है समझो कि वह स्वर्ग में है और सबका दुलारा है । कुंवारे आदमी को स्वर्ग के राजा "इंद्र" की सी अनुभूति होती है । उसे ऐसा लगता है जैसे उसके चारों ओर मेनका, उर्वशी, रंभा, तिलोत्तमा जैसी अनेक अप्सराएं मंडरा रही हैं । वे विभिन्न तरह के प्रयासों यथा हाव भाव , नैन संचलन ,भंगिमाओं, बदन की लचकन, थिरकन, आंचल की सरकन आदि आदि से उसे रिझा रही हैं , अपने पास बुला रही हैं , प्रेम पथ पर आगे बढने के लिए निमंत्रण दे रही हैं । कितना मधुर लगता है यह सब । आदमी सोचता है कि काश ये समां ऐसे ही बरकरार रहे तमाम जिंदगी । 


कितने मधुर सपने आते हैं उन दिनों में । कभी सपना आता है कि वह एक राजकुमारी के दरबार में बैठा है और राजकुमारी उसकी ओर तिरछी निगाहों से देख देखकर मुस्कुरा रही हैं । बस, इतने से ही वह धन्य हो जाता है । वो तो शुक्र है कि राजकुमारी जी ने इतना सा ही 'ट्रेलर' दिखाया था । अगर वे पूरी 'फिल्म' दिखा देतीं तो कयामत ही आ जाती । और न जाने इससे भी बेहतर कितने सपने आते रहते हैं ? तब कुंवारा आदमी अपने आपे में कहां रहता है ? जिस तरह तेजड़ियों की लिवाली से किसी खास शेयर के भाव दिन दूने रात चौगुने बढते रहते हैं ,ऐसे ही कुंवारे इंसान के भाव भी सातवें आसमान पर पहुंच जाते हैं । 


कुंवारा इंसान अगर ऊंचे पद पर सरकारी अधिकारी है तो उसके पास रिश्तों की लाइन लगी रहती है । एक से बढकर एक रिश्ते । तब वह उस रिश्ते में सब कुछ पा लेना चाहता है । खूबसूरती भी और धन दौलत भी । ये उसका "स्वर्ण युग" होता है । जैसे ही उसकी शादी हो जाती है उसके भाव धीरे धीरे जमीन चूमने लग जाते हैं । फिर वह शेयर बाजार का वह शेयर बन जाता है जिसे कोई खरीदना तो दूर उसकी ओर देखना तक करना पसंद नहीं करता है । 


पर सब लोग ऊंचे सरकारी अधिकारी तो नहीं होते हैं । कुछ लोग प्राइवेट कंपनियों में मोटे वेतन पर भी काम करते हैं । इनकी भी पौ बारह है । लड़कियों की कमी इन्हें भी नहीं है । ये भी अपनी पसंद की 'छम्मक छल्लो' लेकर सैट हो जाते हैं । ये अलग बात है कि इन जैसे और ऊंचे सरकारी "दामादों" का दिल कभी अपनी बीवी से भरता नहीं है । इनकी आंखें 'हुस्न की गलियों' में कुछ न कुछ अवश्य ढूंढती रहती हैं । कभी कोई मिल जाती है तो फिर से "कुंवारेपन" का अहसास होने लग जाता है । मगर बीवियां भी पूरी सिद्ध हस्त होती हैं । पति के लक्षणों को बड़ी जल्दी पहचान लेती हैं कि आजकल ये 'पतंग' इतनी ऊंची कैसे उड़ रही है ? फिर वह अपनी 'खोजी' निगाहों से सारा मामला पता कर लेती हैं । तब जो 'सार्वजनिक कुटाई' कार्यक्रम आयोजित होता है वह वाकई देखने के काबिल होता है । 


समस्या तो बाकी लोगों की है । ना तो कोई सरकारी नौकरी है, ना कोई ढंग की प्राइवेट नौकरी और ना ही कोई बड़ा व्यवसाय । ऐसे में कोई रिश्ता भी आये तो कैसे आये ? वह इंसान क्या करे बेचारा ? जिंदगी बिना हमसफ़र के अधूरी सी लगती है । दिन तो कैसे भी गुजर जाता है मगर रातें काटने को दौड़ती हैं । 'आंखों में नींदें ना दिल में करार' वाली स्थिति हो जाती है बेचारों की ।


फिर वह खुद ही ढूंढने लगता है अपने सपनों की परी । मगर परियां ऐसे आदमी को क्यों दाना डालेंगीं ? परियां भी तो राजकुमारों के ख्वाब देखती हैं । फिर बेचारे 'गुलाम' कहां जायें ? ये बेचारे लोग साम दाम दंड भेद यानि कि हर तरीके से 'लड़की पटाओ अभियान' में लग जाते हैं । वैसे एक कहावत भी है कि लगे रहो किनारे से , कभी तो लहर आयेगी । और जब लहर आती है तो कुछ लोगों के दिल की किश्ती चल निकलती है , बाकी लोग अगली लहर का इंतजार करते रहते हैं । 


पर एक उम्र भी होती है ना शादी की । जब वह उम्र निकल जाती है , मूंछ दाढी में कुछ कुछ सफेदी आने लगती है तब लड़कियां ऐसे लड़कों से इस तरह दूर भागती हैं जैसे किसी बिगड़े हुए सांड को देखकर बेचारी गाय भाग जाती है । शायद वे सोचती हैं कि ऐसे छुट्टे सांडों का क्या भरोसा, कब क्या कर बैठे ? 


ऐसे कुंवारे आदमी का रिश्ता अकेलेपन से जुड़ जाता है । तब उसके मन में एक ही विचार आता है कि कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन । वो हुस्न की गलियों में चक्कर काटना वो यौवन की गर्मी से आंखें सेंकना वो हर हसीना पर लाइन मारना , सब याद आता है । मगर वह करे भी तो क्या ? लाख कोशिशों के बाद भी इस दिल में कोई मूरत स्थापित ही नहीं हुई तो यह दिल खाली मंदिर सा श्री हीन नजर आता है । ऐसे खाली मंदिर में कोई दीपक भी नहीं जलाने आता है । फिर एक अंतहीन सूनापन व्याप्त हो जाता है उसकी जिंदगी में । जब वह किसी दंपत्ति या प्रेमी युगल को देखता है तो उसके दिल में एक टीस सी उठती है जो दर्द का अथाह सागर लेकर आती है । प्रेम का प्रतिदान मिलना भी बहुत जरूरी है वरना आदमी का दिल अतृप्त सा रहता है । और यह अतृप्ति अनेक अपराधों को जन्म देती है । इसलिए समाज में एक उम्र तक तो कुंवारों की बहुत इज्जत होती है मगर वह उम्र गुजरने के पश्चात उन्हें उपेक्षा , उपहास और उलाहने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिलता है । तब यह जीवन अभिशप्त सा लगने लगता है । 


अब यह सोचने वाली बात है कि कुंवारा रहना वरदान है या अभिशाप ? 


श्री हरि 



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